Tuesday, December 1, 2009

मीडिया संस्थानों के लिए Twitter पर समाचार की अहमियत समझना जरुरी

माइक्रोब्लॉगिंग साइट ट्विटर के बारे में एक साल पहले तक आम लोगों को खास पता नहीं था। मुंबई हमलों के दौरान सोशल मीडिया के इस औजार की अहमियत पहली बार कायदे से लोगों के सामने आई,जब लोगों ने ट्विटर के जरिए लाइव रिपोर्टिंग की। सैकड़ों लोगों ने आंखों देखा हाल बताया और कई अहम जानकारियां ट्विटर के जरिए ही सामने आईं।

इस घटना के बाद ट्विटर की लोकप्रियता में अचानक जबरदस्त इजाफा हुआ। एक साल पहले तक भारत में ट्विटर के उपयोक्ताओं की संख्या खासी कम थी, लेकिन अब करीब 26 लाख हो चुकी है। ट्विटर उपयोक्ताओं के मामले में भारत का नंबर अमेरिका और जर्मनी के बाद तीसरे नंबर पर है।

लेकिन, ट्विटर के तेजी से बढ़ते उपयोक्ताओं के बीच आम धारणा यही है कि लोग सोशल नेटवर्किंग के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं। अपना हाल बताने और स्टेटस अपडेट करने के इरादे से लोग ट्विटर के सदस्य बनते हैं। इसके अलावा, उन्हें यहां कई सेलेब्रिटी से जुड़ने का मौका मिला है,लिहाजा ट्विटर का आकर्षण बढ़ा है।

लेकिन, हाल में ट्विटर उपयोक्ताओं के बीच प्लग्डडॉटइन के किए एक सर्वे में चौकाने वाले नतीजे सामने आए। इस सर्वे के मुताबिक 16 फीसदी ट्विटर ग्राहक न्यूज पाने के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं,जबकि मित्रों से संपर्क में रहने के लिए महज 11 फीसदी। 17 फीसदी लोगों को अभी तक नहीं मालूम कि वो सोशल नेटवर्किंग के इस प्लेटफॉर्म पर क्यों हैं? 12 फीसदी लोग काम के सिलसिले में ट्विटर पर मौजूद हैं,जबकि 11 फीसदी लोगों को स्टेटस अपडेट करने का शौक है। 10 फीसदी ट्विटर उपयोक्ताओं को लगता है कि वो इसके जरिए कुछ दिलचस्प लोगों (सेलेब्रिटी शामिल) से मिल सकते हैं। लेकिन,बात इन आंकड़ों की नहीं,सर्वे के सबसे अहम पहलू की है। वो ये कि सबसे ज्यादा लोग न्यूज पाने के लिए ट्विटर पर हैं। ये आंकड़ा इसलिए हैरान करता है,क्योंकि ये सर्वे भारतीय उपयोक्ताओं के बीच है।

दिलचस्प ये है कि भारतीय मीडिया संस्थानों ने अभी न्यूज के रुप में ट्विटर फीड को गंभीरता से नहीं लिया है। देश के दो सबसे अधिक बिकने वाले अंग्रेजी समाचार पत्रों यानी टाइम्स ऑफ इंडिया और हिन्दुस्तान टाइम्स को छोड़कर बाकी अखबारों की ट्विटर फीड संभवत: फीड़ है नहीं, अथवा उपेक्षित है। मसलन इंडियन एक्सप्रेस के कथित ट्विटर एकाउंट के महज 300 के करीब फॉलोअर हैं।

लोग ट्विटर पर ख़बरें चाहते हैं,इसका अंदाजा इस बात से लगता है कि टाइम्स ऑफ इंडिया के फॉलोअरों की संख्या 6 हजार से अधिक है,जो लगातार बढ़ रही है। दूसरी तरफ, अमेरिका में ट्विटर पर ख़बरों को लेकर लोगों की दिलचस्पी इस कदर है कि न्यूयॉर्क टाइम्स की ट्विटर फीड़ के ग्राहकों की तादाद 21 लाख से ज्यादा है। बाकी बड़े मीडिया संस्थानों की ट्विटर फीड के भी लाखों में फॉलोअर हैं। सोशल मीडिया के जानकारों की मानें तो लोगों में समाचारों को जानने की एक स्वाभाविक कुलबुलाहट होती है। और इस कुलबुलाहट को ट्विटर फीड के जरिए आसानी से शांत किया जा सकता है। खबरों को लेकर उत्सुकता अमेरिका से लेकर भारत सभी जगह है। यानी ट्विटर फीड के अपने ग्राहक हो सकते हैं, और फिर ट्विटर के जरिए लोगों को अखबार-टेलीविजन चैनल अपनी साइट तक खींच सकते हैं। क्योंकि ट्विटर पर न्यूज देने का एक तरीका यह है कि हेडलाइन के साथ खबर का लिंक भी दे दिया जाता है। लेकिन, भारत में अभी मीडिया संस्थानों ने इस बारे में गंभीरता से सोचा नहीं है। एयरटेल के साथ ट्विटर के समझौते के बाद करीब 11 करोड़ लोग तो अपने मोबाइल फोन पर ट्विटर फीड मुफ्त में पा सकते हैं,यानी अब ट्विटर उपयोक्ताओं की संख्या यहां तेजी से बढ़ सकती है। ऐसे में,हिन्दी-अंग्रेजी समेत तमाम भाषाओं में लोग ट्विटर पर न्यूज चाहेंगे, और जो पहले इस प्लेटफॉर्म पर गंभीर पहल करेगा, बढ़त उसी को मिलना तय है।

Saturday, November 28, 2009

I-Next में आज प्रकाशित व्यंग्य- मुहब्बत के तराने

ज्यादा वक्त नहीं गुजरा जब आशिक बड़ी मुहब्बत से ख़त लिखा करते थे। नया नवेला आशिक प्रेम पत्र को रोमांटिक बनाने के लिए हिन्दी साहित्य में डूब जाया करता था। ग़ालिब से लेकर मीर तक की शायरी के दरिया में तैर जाया करता था। कुछ जुनूनी किस्म के पागल प्रेमी लहू की लाल स्याही से मुहब्बत का पैगाम लिखा करते थे। आशिक के रकीब यानी प्रेमिका के बाकी प्रेमी भी इसी खत नुमा आइटम के जरिए उसे ठिकाने लगाने की कोशिश करते थे। वो आशिक ने नाम से गालियों का ख़त प्रेमिका के घर पर टपका आते। हालांकि, लड़की के घरवाले यह समझ जाते थे कि भद्दा खत उस लड़के ने नहीं लिखा, जिसके नाम से भेजा गया है, लेकिन घरवालों की प्रतिबंधित सूची में आशिक का नाम आना तय हो जाता था। लड़कियां प्रेम पत्र नहीं लिखती थी, इस बात के इतिहास में सबूत नहीं है, अलबत्ता ज्यादातर अपने नाम से नहीं लिखती थी, और बहुत विश्वासपात्र सहेलियां ही उनके खतों की ‘पोस्टमैन’ होती थीं।

लेकिन,बात गुजरे जमाने की नहीं गुजरते जमाने की है। एसएमएस का तूफान कमबख्त मुहब्बत की इस पाती परंपरा को उजाड़ गया। स्कूली एसएमएसी मुहब्बत की गाड़ी कई बार ‘बैलेंस’ के झंझावत में पटरी से उतर जाती है। अनपढ़ से अनपढ़ टपोरी आशिक के पास भी मोबाइल नामक ये यंत्र है, जिससे भेजे एसएमएस से समझ नहीं आता कि किस कैटेगरी का आशिक है। भौंदू-नादान-चिरकुट-रक्तप्रिय...किस टाइप का।

एक ही एसएमएस फॉरवर्ड हो-होकर इतनी बार महबूबा के पास पहुंचता है कि पता नहीं चलता कि एसएमएस में व्यक्त भावनाएं रामू की हैं या शामू की। हालांकि, मोबाइल ने लड़कियों को भी सुविधा दी है कि वो आंखों के तीर से घायल हुए तमाम परिंदों को एसएमएस का चारा डालकर लपेट लें।

लुटे-पिटे आशिकों के शोध बताते हैं कि एक एसएमएस पाकर तर्र हुआ छोरा एक महीने तक मुफ्त का सेवक होता है। दुहने के बाद गाय को पता चलता है कि दूध-मलाई-मक्खन और घी सब कुछ कोई और खा गया है,तो वो उस प्राणप्रिय एसएमएस को ‘डिलीट’ कर नए सिरे से कोशिश में जुटता है।

कन्फ्यूजन के बावजूद एसएमएस पर रोमांस धड़ल्ले से जारी है। सर्वे बता रहे हैं कि दफ्तरों में रोमांस अब मोबाइल के बिना दम तोड़ देंगे। कॉलेजों में भी बिप-बिप की चहचहाहट कइयों की मुहब्बत ज़िंदा रखे है। एसएमएस धर्म-निरपेक्ष भाव से इंस्टेंट प्यार करने वाली बिरादरी की सेवा कर रहे हैं। लेकिन, इस एसएमएसी मुहब्बत के युग में भी कुछ मजनूं अपनी लैला को प्यार की पाती लिखे बिना बाज नहीं आते। उन्हें न जाने क्यों ढाई आखर प्रेम के हाथ से लिखने में ही आनंद आता है। नयी पीढ़ी उन्हें ‘बैकवर्ड’ कहते हुए ताना कसती है-मजनूं है न!

Wednesday, November 11, 2009

चंडीगढ़ हादसे से फिर उजागर प्रशासन का संवेदनहीन चेहरा

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पीजीआई चंडीगढ़ में मरीजों से कुशलक्षेम पूछ रहे हैं,तो अस्पताल के बाहर गेट नंबर-1 पर एक मरीज बेसुध हालत में कार में पड़ा है। मरीज के रिश्तेदार प्रधानमंत्री की सुरक्षा में लगे सुरक्षाकर्मियों से गिड़गिड़ाकर अंदर जाने की मिन्नतें मांग रहे हैं ताकि मरीज को इमरजेंसी वार्ड में पहुंचाया जा सके। सुरक्षाकर्मियों ने डंडा बरसाते हुए उन्हें गेट नंबर-2 की ओर भेज दिया। यहां उन्हें झिड़कते हुए फिर गेट नंबर-1 पर जाने को कहा गया। अस्पताल की दहलीज पर खड़े मरीज ने आखिरकार इस आने-जाने के बीच दम तोड़ दिया। प्रधानमंत्री कार्यालय ने अब इस हादसे की रिपोर्ट तलब की है,लेकिन यह गंभीर वाक्या अपने आप में कई बड़े सवाल खड़े करता है।

इन सवालों पर चर्चा से पहले एक और हादसे का जिक्र। ये हादसा ब्रिटेन के ऑक्सफोर्ड में हुआ। यहां एक स्कूली छात्र ने खुदकुशी की कोशिश की। छात्र ने खुदकुशी की कोशिश से पहले सोशल नेटवर्किंग साइट ‘फेसबुक’ पर अपने स्टेटस मैसेज के रुप में सुसाइड नोट लिखा। उसने लिखा-“मैं अब बहुत दूर जा रहा हूं,वो करने जिसके बारे में मैं काफी वक्त से सोच रहा था। अब लोग मुझे खोजेंगे।” अमेरिका में बैठी छात्र की ऑनलाइन मित्र ने इस संदेश को पढ़ा तो दंग रह गई। उसे नहीं मालूम था कि छात्र ब्रिटेन में कहां रहता है ? इस लड़की ने अपनी मां को इस बारे में फौरन बताया। मां ने मैरीलेंड पुलिस को सूचित किया। पुलिस ने राष्ट्रपति भवन यानी व्हाइट हाउस के स्पेशल एजेंट से संपर्क साधा, और उसने एक झटके में वाशिंगटन में ब्रिटिश दूतावास के अधिकारियों से। उन्होंने ब्रिटेन के मेट्रोपॉलिटन पुलिस से संपर्क किया, और इस बीच छात्र के घर का पता लगाकर थेम्स वैली के पुलिस अधिकारी उसके घर जा पहुंचे। पुलिस अधिकारियों के पहुंचने से पहले छात्र नींद की कई गोलियां निगल चुका था। उसकी हालत बेहद खराब थी, और मुंह से खून आ रहा था। लेकिन, पुलिस अधिकारियों ने हार नहीं मानी। उन्होंने आनन-फानन में छात्र को अस्पताल पहुंचाया, जहां आखिरकार उसकी जान बच गई। इस पूरी कवायद में एटलांटिक सागर के दोनों ओर सांस रोककर काम कर रही पांच बड़ी एजेंसियों की तारीफ करनी होगी,जिन्होंने वक्त के साथ होड़ लगाते हुए छात्र की जान बचाने में कामयाबी पाई।

कर्तव्यनिष्ठा की अनूठी मिसाल पेश करने वाली इस वाक्ये को पढ़ने-सुनने के बाद चंडीगढ़ के हादसे से रुबरु होना शर्मसार कर देता है। आखिर, ऑक्सफोर्ड का छात्र किसी का क्या लगता था, जिसके लिए दो देशों की बड़ी एजेंसियों ने एक पांव पर खड़े होकर काम किया ? दूसरी तरफ, चंडीगढ़ में आंखों के सामने लाचार तड़पता मरीज भी क्यों सुरक्षाकर्मियों के दिलों में रहम की अलख नहीं जगा सका ?

सवाल सिर्फ चंडीगढ़ की घटना का नहीं है। इस तरह के हादसे लगातार सुर्खियां बनते रहे हैं, जब वीवीआईपी सुरक्षा पर आम आदमी की ‘बलि’ ली गई। 1998 में मार्टिन मैसे नाम के एक एक्जीक्यूटिव को कई पुलिसकर्मियों ने पीट पीटकर अधमरा कर दिया था,क्योंकि वो गलती से प्रधानमंत्री काफिले को तोड़ बैठा था। एनडीए शासनकाल में उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के वीवीआईपी रूट में फंसने की वजह से कई छात्र इम्तिहान नहीं दे पाए थे। ऐसी घटनाओं की लंबी फेहरिस्त है।

दरअसल, सवाल संवेदनहीनता का है, जो अब अपने आप में एक मर्ज बनता जा रहा है। वीवीआईपी सुरक्षा के दौरान मरीज की मौत इस मर्ज की तरफ जोरशोर से ध्यान दिलाने को बाध्य करती है। वरना, इसी साल पटना के अस्पताल में जूनियर डॉक्टरों की हड़ताल के चलते 38 मरीजों की जान चली गई, लेकिन क्या किसी के खिलाफ ठोस कार्रवाई हुई अथवा पुनरावृत्ति रोकने के लिए कोई कदम उठाया गया। पिछले साल 13 अगस्त को विश्व हिन्दू परिषद के अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन स्थानांतरित किए जाने के मसले पर किए गए राष्ट्रीय चक्का जाम के चलते एक 70 साल के बुजुर्ग ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया। इस बुजुर्ग को दिल का दौरा पड़ा था। वो अंबाला में लगे ट्रैफिक जाम में फंसकर रह गया और चंडीगढ़ नहीं पहुंच पाया। लेकिन,क्या इस मामले पर किसी ने ध्यान दिया ?

रैलियों-धरने-हड़ताल और वीवीआईपी सुरक्षा आम लोगों के लिए परेशानी का सबब बनते रहे हैं, लेकिन इनके चलते मरीजों की जान जाने की घटनाएं अब न्यूनतम संवेदनशीलता की मांग करती हैं। और ये संवेदनशीलता सिर्फ चंद लोगों को नहीं बरतनी बल्कि पूरे समाज को बरतनी है। वीवीआईपी सुरक्षा के मामले में संवेदनहीनता बर्बर भी हो जाती है,क्योंकि वहां कानून के रखवालों के हाथ में ‘काम निपटाने’ का जिम्मा होता है। यानी अगर सुरक्षाकर्मियों को प्रधानमंत्री की सुरक्षा का जिम्मा दिया गया है, तो किसी पंछी की भी क्या बिसात कि वो उनके सुरक्षा घेरे को तोड़ पाए !

वीवीआईपी दौरों के दौरान पूरा प्रशासन सिर्फ एक सूत्र पर काम करता है। वो यह कि दौरा सकुशल निपट जाए। इस बीच आम आदमी ‘भाड़ में जाए’ की तर्ज पर उपेक्षित दिखता है। फिर, व्यवहारिक स्तर पर तैयारियों का अभाव छोटी परेशानी को बड़ा कर देता है। मसलन प्रधानमंत्री के चंडीगढ़ पीजीआई दौरे के दौरान अगर सिर्फ इमरजेंसी वार्ड में जाने वाले मरीजों की सुविधा को थोड़ा ख्याल रखा जाता तो मुश्किल हल हो सकती थी। ऑक्सफोर्ड छात्र की जान बचाने की घटना जहां पश्चिमी एजेंसियों की संवेदनशील और चौकस कार्यप्रणाली की ओर इशारा करती है,तो वहीं चंडीगढ़ की घटना संवेदनहीन,लचर और बेहूदा सिस्टम की तरफ।

परेशानी यह है कि इन हादसों से कोई सबक नहीं लेता। वीवीआईपी रूट में अभद्रता का शिकार हुए लोगों की सैकड़ों शिकायतें मानवाधिकार आयोग में दर्ज हैं,लेकिन कुछ नहीं हुआ। एनडीए शासनकाल में लालकृष्ण आडवाणी ने वीवीआईपी के लिए एक अलग ट्रैफिक नीति बनाने की वकालत की थी, लेकिन इस दिशा में भी कुछ खास नहीं हुआ। मीडिया में भी ऐसे हादसे कभी मुहिम नहीं बन पाए। और राजनेताओं के लिए तो मानो दौरा लोकप्रिय होने की सबसे जरुरी खुराक है। फिर, आलू की फसल इफरात में होने पर जैसे आलू सड़क पर मारा-मारा डोलता है, उसी तर्ज पर एक अरब से अधिक आबादी वाले हमारे देश में लोग मारे डोलते हैं। सचाई यही है कि यहां जान की कोई कीमत नहीं है और यूरोपीय देशों एक जान बचाने में पूरी मशीनरी हमेशा एक पांव पर खड़ी रहती है। ऑक्सफोर्ड की घटना तो उनकी सक्रियता की अनूठी मिसाल भर है।

(ये लेख आज यानी 11 नवंबर को अमर उजाला के संपादकीय पेज पर प्रकाशित हुआ है)

Thursday, October 29, 2009

कॉमेडी के बाजार में विशुद्ध व्यंग्य को पुनर्स्थापित करता ‘लापतागंज ’

बुधवार यानी 28 अक्टूबर को सब टीवी पर प्रसारित लापतागंज का तीसरा एपिसोड देखा तो एक छोटे से शब्द ने दिल खुश कर दिया। शब्द था-लबड़याए। धारावाहिक के मुख्य किरदार मुकंदी लाल गुप्ता की पत्नी घर के बीच में चावल की बोरी पर गिरे पति से दो टूक कहती है- तुम कहां बीच में ही लबड़याए रहे हो...सोना है तो बिस्तर पर सोओ। पूरी तरह याद नहीं है, लेकिन ये एपिसोड शरद जोशी के संभवत: डेमोक्रेसी नामक निबंध का रुपांतरण था, जिसमें वोट की ताकत से अंजान लोगों की वोट डालने में दिलचस्पी नहीं है, और जिन चंद लोगों की दिलचस्पी है भी, उन्हें वोट डालना नसीब नहीं होता, क्योंकि या तो उनके वोट पहले ही डाल दिए जाते हैं या फिर वोटर लिस्ट में उनका नाम नहीं होता।

लब्धप्रतिष्ठ व्यंग्यकार शरद जोशी के व्यंग्य पर आधारित सीरियल लापतागंज की पिछली तीन कड़ियों को देखकर शिद्दत से अहसास होता है कि टेलीविजन पर बन चुके कॉमेडी के बड़े बाजार में विशुद्ध व्यंग्य के लिए न केवल जगह है, बल्कि विज्ञापन भी हैं। अच्छी बात यह है कि इन व्यंग्यों को स्क्रिप्ट में परिवर्तित करते हुए थोड़ा बहुत परिवर्तन किया है लेकिन वो आज की परिस्थतियों आवश्यक मालूम पड़ता है। मसलन-बुधवार के एपिसोड में वोट डालने को इच्छुक एक शख्स कहता है- मेरी पत्नी ने जब से देखा है कि वोट डालने के बाद लोग अपनी निशान लगी उंगली दिखाते हैं, तब से वोट डालने को उतावली है। इसलिए उसने नेल पॉलिश भी लगाई है।

इसी सीरियल के सबसे पहले एपिसोड़ की शुरुआत शरद जोशी के उस व्यंग्य से हुई, जिसमें उन्होंने अचानक प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने वाले राजीव गांधी पर कटाक्ष किया था। उस दौर में उनका वो व्यंग्य लेख खासा चर्चित भी हुआ था। पानी की समस्या पर आधारित इस व्यंग्य में राजीव जी गांव के लोगों से पूछते हैं- गांव से नदी कितनी दूर है? गांव वाले जवाब देते हैं-दो किलोमीटर। तो राजीव फिर सवाल करते हैं-तो क्या लौटते में भी इतनी ही पड़ती है। ऐसे कई कटाक्ष इस व्यंग्य में हैं। लेकिन,लापतागंज में राजीव जी का किरदार बदलकर एक विदेश में पढ़े-लिखे मुख्यमंत्री का हो जाता है, जो अपने पिता के मरने के बाद कुर्सी संभालता है।

लेकिन,सवाल शरद जोशी के व्यंग्य के टेलीस्क्रिप्ट में बदलने का नहीं है। सवाल है इस सीरियल के बहाने विशुद्द व्यंग्य की दर्शकों के बीच पहुंच का। अचानक रजनी, ये जो है ज़िंदगी और कक्का जी कहिन जैसे दूरदर्शन मार्का लेकिन सामाजिक विसंगतियों पर कटाक्ष करते धारावाहिकों की याद दिलाता हुआ ‘लापतागंज ’ बाजारवाद के उस दौर में दर्शकों से रुबरु है, जहां इस तरह का सीरियल निर्माण की सोच भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं है।

दरअसल,लापतागंज सिर्फ एक कॉमेडी सीरियल नहीं है,ये उससे कहीं आगे का धारावाहिक है। आखिर,व्यंग्य को सामाजिक आक्रोश की परीणिति कहा गया है, और इस सीरियल के बहाने शरद जोशी की कलम से निकले कटाक्ष एक बार फिर दर्शकों को सोचने को मजबूर करेंगे कि कुछ भी तो नहीं बदला।

फिर, स्वस्थ्य मनोरंजन की दृष्टि से देखें तो हंसी-ठिठोली का बड़ा बाजार आज मौजूद है, लेकिन इसमें व्यंग्य कहां है ?या तो इस कॉमेडी में मिमिक्री है या भौंडा हास्य। कहीं द्विअर्थी चुटकुलेबाजी है, तो कहीं सिर्फ हंसाने की कोशिश करते निरर्थक चुटकले। हां, इनके बीच तारक मेहता का उल्टा चश्मा जैसे धारावाहिक सामाजिक संदेश देने की कोशिश करते जरुर दिखते हैं,लेकिन एक सीमा तक।

दिलचस्प यह है कि ‘लापतागंज ’ के दौरान विज्ञापनों की खासी तादाद पहली नज़र में यह भरोसा जगाती है कि विज्ञापनदाताओं को भी शरद जोशी के व्यंग्य की ताकत मालूम है, और उन्हें इसके हिट होने का भरोसा है। सब टीवी का भारतीय टेलीविजन की दुनिया में यह योगदान तो है ही, कि वो उन सीरियल्स के जरिए स्वस्थ्य मनोरंजन की अलख जगाए हुए है,जिनके लिए टीआरपी की होड़ में जुटे चैनलों पर जगह नहीं है।

Monday, October 26, 2009

'नई दुनिया' की गलतियों के बहाने एक सवाल


क्या हिन्दी के समाचार पत्र भाषा-वर्तनी की गलतियां बहुत ज्यादा करते हैं? ये सवाल इसलिए क्योंकि यह गलतियां लगातार अख़बारों में दिखायी देती हैं, और आप इनसे चाहकर भी नज़र नहीं चुरा सकते। राष्ट्रीय समाचार पत्रों में तमाम सावधानियों के बावजूद गलतियां दिखायी देती हैं तो अफसोस अधिक होता है।

ये बात आज इसलिए क्योंकि राष्ट्रीय समाचार पत्र ‘नई दुनिया’ के 26 अक्टूबर के अंक को रोज की तरह देखा तो अचानक हेडलाइन्स में एक के बाद एक कई गलतियां दिखायी दे गईं। कहीं बदमाश को बादमाश लिखा गया, तो कहीं शिकंजा को शिंकजा। सवाल, छोटी-बड़ी गलती का नहीं है, सवाल है अशुद्धि का।

क्योंकि, जब शब्द हेडलाइन में ही गलत लिखे दिखायी देते हैं,तो पढ़ना अचानक भारी लगने लगता है। खास बात यह कि आपके सामने प्रस्तुत तीन कतरनें सरसरी निगाह से अखबार पढ़ने के दौरान ही दिखायी दे गईं। और इन समाचारों की पूरी कॉपी नहीं पढ़ी गई है। अब आप इन तीन कतरनों पर नज़र डालिए और अपने विचार बताइए.........

Monday, October 5, 2009

जनाब राज ठाकरे साहब से अहम दरख्वास्त

आदरणीय राज भैया,

फिल्मों में आने का शौक है, इसलिए आपके लागू तमाम सिद्धांतों को अभी से घोंट घोंट कर पीने की कोशिश कर रहे हैं। ना..ना...भाई साहब, एक्टिंग का कोई इरादा नहीं है...अपन तो डायरेक्शन में हाथ आजमाने आएंगे मुंबई। तुमची मुंबई। फ़क्त तुमची मुंबई। करण जौहर के आपके सापने हाथ जोड़कर खड़े रहने के बाद समझ आ गया है कि डायरेक्शन बिना आपकी इजाजत नहीं होगा। अपन को कोई दिक्कत नहीं है। स्क्रिप्ट,डायलॉग वगैरह की एक कॉपी शूटिंग शुरु करने से पहले ही आपके शुभ हाथों से ‘अटैस्टेड’ करा ले जाएंगे।

लेकिन भैया, बड़ा कन्फ्यूजन है। इधर हम लगातार मुंबई मुंबई कहने की आदत डाल रहे हैं, उधर टेलीविजन पर एक विज्ञापन लगातार हमारे कानों में बंबई नाम का ज़हर डाल रहा है। क्या कहा ? आपको पता ही नहीं है कि आपके राज में आपके आंखों के नीचे बने इस विज्ञापन के बारे में ?

भैया,वोडाफोन वालों का विज्ञापन है। इरफान खान इस विज्ञापन में अपने भाई की शादी का जिक्र करता है। फिर कहता है, अब लगाओ फोन- दिल्ली,बंबई,कलकत्ता,चेन्नई। मुझे तो इस पर भी घनघोर आपत्ति है कि इरफान खान ने मुंबई को बंबई और कोलकाता को कलकत्ता कहने की हिमाकत की। लेकिन, उत्तर भारतीय होने के बावजूद चेन्नई को मद्रास नहीं कहा। वैसे,इरफान के हाथों में अभी काफी हिन्दी फिल्में हैं,पर हो सकता है कि वो साऊथ की फिल्मों के लिए अभी से सैटिंग कर रहा हो।

लेकिन,अपन को उसकी सैटिंग से क्या? हमें तो अपनी भावी फिल्म से मतलब है। राज साहब, इधऱ दिल्ली में बैठकर मुंबई वंदना की आदत डाल रहे हैं,लेकिन इस विज्ञापन की वजह से सब गुड़गोबर हो रहा है। उस पर, एक कन्फ्यूजन यह भी होता है कि आपकी औकात कुछ नहीं है। आप वोडाफोन का एक विज्ञापन, जो दिन भर तमाम टेलीविजन चैनलों पर भौंपू की तरह बजता रहता है, उसे नहीं रुकवा पाए तो हमारा क्या उखाड़ लोगे ?

अरे ना ना....बुरा ना मानना भइया....ये कन्फ्यूजन होता है। इसलिए कृपया कर ‘वेक अप सिड’ के खिलाफ अपने दिखाए पराक्रम का एक नमूना इस विज्ञापन के खिलाफ भी दिखाइए। बड़ी मेहरबानी होगी। और हां, मुंबई मुंबई मुंबई मुंबई मुंबई...........1001 की माला जप रहा हूं। इस माला में विघ्न न पड़े-इसलिए तत्काल कार्रवाई अपेक्षित है।

Saturday, October 3, 2009

गूगल बनाम गांधी ब्रांड

बापू के 140वें जन्मदिन पर आयोजित कार्यक्रमों और घोषणाओं के बीच एक खबर अचानक ध्यान खींच रही थी। वो थी गूगल का गांधी प्रेम। गूगल सर्च इंजन ने अपने Google के G को बापू के चेहरे में तब्दील कर दिया। इंटरनेट पर गूगल के इस गांधी प्रेम पर भारतीय समाचार पत्र, वेबसाइट्स और दूसरे समाचार माध्यम इतने प्रभावित हुए कि सभी ने इस खबर को तवज्जो दी।

सवाल ये कि गूगल को भारत के राष्ट्रपिता पर इतना प्यार कहां से आ गया? फिर,ये भी मुमकिन नहीं कि गूगल के कर्ता धर्ता अचानक गांधी के आदर्शों से रुबरु हुए,और सर्च इंजन पर उनकी तस्वीर टांग दी। ओबामा का गांधी की महानता पर भाषण भी बाद में आया, और गूगल इससे पहले ही बापू की तस्वीर टांग चुका था।

तो सवाल यही गूगल की इस कवायद का मकसद क्या है? सूचना तकनीक से संबंधित कई लोगों का तर्क है कि गूगल दुनिया का सबसे बड़ा सर्च इंजन है, और उसकी इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि इससे अंहिसा को हथियार बनाने वाले बापू के आदर्शों को दुनिया भर में फिर जाना-पढ़ा जाएगा।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि गूगल दुनिया का सबसे बड़ा सर्च इंजन है। सर्च इंजन के करीब 85 फीसदी बाजार पर इसका कब्जा है। गूगल पर गांधी की तस्वीर देखकर नयी पीढ़ी,खासकर विदेशों में रह रहे नौजवानों को यह जानने की जिज्ञासा हो सकती है कि ये शख्स कौन है? 140 वें जन्मदिन पर गूगल की इस पहल का स्वागत भी किया जाना चाहिए।

लेकिन,क्या इस कवायद में गूगल का कोई स्वार्थ नहीं है? वैसे,ये सोचना गलती है। गूगल को सिर्फ और सिर्फ गांधी के आदर्शों-सिद्धांतों या उनकी महानता के प्रचार में दिलचस्पी होती तो वो बापू पर समर्पित एक वेबसाइट बना सकता था। ये साइट एक नहीं कई भाषाओं में होती ताकि दुनिया भर के लोग गांधी के विचारों को समझ पाते। किसी भारतीय संस्थान ने इस तरह का प्रयोग अभी तक नहीं किया,लेकिन गूगल के पास मौजूद असीमित संसाधन और पूंजी के लिए यह काम कठिन नहीं था। भारतीय आम चुनावों के वक्त गूगल ने सभी संसदीय क्षेत्रों से लेकर उम्मीदवारों तक की जानकारी के लिए एक समर्पित साइट बनायी थी, तो बापू के लिए यह काम मुश्किल नहीं था।

गूगल चाहता तो गांधी के नाम से कई परियोजनाएं शुरु कर सकता था,जिनका अपना महत्व होता। लेकिन,नहीं। दरअसल,गूगल ऐसा कुछ चाहता ही नहीं था। गूगल सिर्फ भारत के सबसे बड़े ब्रांड गांधी को भुनाना चाहता था,सो उसने मुफ्त में भुना लिया। सर्च इंजन के होमपेज पर गांधी की तस्वीर टांगने में न तो किसी शोध की दरकार है, और न वक्त की। लेकिन, गांधी नाम का ब्रांड गूगल को वह पब्लिसिटी दे गया, जो वो कई बड़ी घोषणाओं के जरिए भी नहीं पा पाता। फिर, देशभक्ति के तड़के में गूगल की यह पहल भी खास हो गई।

वैसे,गूगल को अब ये बात समझ आ गई है कि महान हस्तियों के नाम और तस्वीर के सहारे ही खासी पब्लिसिटी बटोरी जा सकती है,लिहाजा वो यह कवायद लगातार करने लगा है। हाल में गूगल ने महान ब्रिटिश लेखक एच जी वेल्स को छोटे ट्वीट्स और एलीअन के लोगों बनाकर याद किया था। गौरतलब है कि वेल्स साइंस फिक्शन के लिए मशहूर थे। इसके बाद चीन के महान दार्शनिक कन्फ्यूशियस का जन्मदिन मनाया। अपने 11वें जन्मदिन पर गूगल ने फिर लोगो बदला। और अब बापू के जन्मदिन पर गूगल बापूमय हुआ।

दरअसल,महात्मा गांधी से लेकर वेल्स तक सभी महान हस्तियां अपने आप में ब्रांड हैं। इनके नाम पर सवार होकर पब्लिसिटी बटोरना हमेशा से आसान रहा है। गूगल अब इसी सिद्धांत के आसरे मुफ्त में पब्लिसिटी बटोर रहा है। देश के तमाम बड़े अखबारों में ‘गूगल पर गांधी’ वाली खबर के प्रकाशित होने का यही अर्थ है।

Thursday, August 13, 2009

बॉलीवुड को लुभा गई सोशल मीडिया की दुनिया

सोशल मीडिया की दुनिया में ऐसा क्या आकर्षण है कि यहां बॉलीवुड सितारों का मेला लगने लगा है? हिन्दी सिनेमा के महानायक अमिताभ बच्चन से लेकर खुद को साबित करने में जुटे रीतेश देशमुख तक यहां अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहे हैं ? क्या इस नयी दुनिया के रुप में उन्हें ‘अलादीन का चिराग’ मिल गया है, जो फिल्म हिट कराने से लेकर अपनी अलग पहचान गढ़ने में मदद कर रहा है या वजह कुछ और हैं ? सवाल कई हैं, जो अब सोशल मीडिया में बॉलीवुड कलाकारों की बढ़ती दिलचस्पी के बीच पूछे जा रहे हैं।

इन सवालों का जवाब टटोलने से पहले बॉलीवुड कलाकारों की सोशल मीडिया में बढ़ते दखल की बानगी देखिए। साल 2004 में प्रकाश झा ने फिल्म ‘अपहरण’ के प्रचार के लिए कलाकारों से जमकर ब्लॉगिंग कराई थी। अजय देवगन, बिपाशा बसु, मोहन आगाशे और खुद प्रकाश झा ने फिल्म से जुड़े अपने अनुभवों पर ब्लॉगिंग की। लेकिन, उस वक्त फिल्म की सफलता के बावजूद इस प्रयोग की ओर ज्यादा ध्यान नहीं गया था।

लेकिन, अप्रैल-2008 में अचानक बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन ने अपना ब्लॉग शुरु कर एक हवा को आंधी में बदल दिया। व्यस्त कार्यक्रम के बावजूद अमिताभ बच्चन की ब्लॉगिंग को शुरुआत में ‘चार दिनों का शौक’ करार दिया गया, लेकिन उन्होंने इस आशंका को गलत साबित कर दिया। अमिताभ बच्चन ने ऐश्वर्या के मांगलिक होने से लेकर विमान यात्राओं में अपना सामान खोने तक कई निजी मसलों पर लिखा। इसके अलावा कई बार मीडिया पर भी अपनी भड़ास निकाली। अमिताभ से पहले, आमिर खान 2007 से ही ब्लॉगिंग कर रहे थे। इसके अलावा करण जौहर, रामगोपाल वर्मा और शेखर कपूर जैसे निर्देशक भी पुराने ब्लॉगर हैं, लेकिन अमिताभ के ब्लॉग को मिली लोकप्रियता ने सभी को पीछे छोड़ दिया। इसके बाद तो सलमान खान, शाहरुख खान, मनोज बाजपेयी, शिल्पा शेट्टी, पायल रोहतगी, अभय देओल जैसे कई सितारों ने ब्लॉगिंग में हाथ आजमाया। हाल में राहुल बोस ने एक बार फिर ब्लॉगिंग शुरु की है।

ब्लॉग पर पोस्ट लिखने के साथ इन दिनों बॉलीवुड कलाकारों पर माइक्रोब्लॉगिंग साइट ‘twitter’ का भूत सवार है। 140 अक्षरों की पोस्ट वाली यह सेवा खासी लोकप्रिय हो रही है। प्रियंका चोपड़ा के twitter खाते से करीब 28,000 प्रशंसक जुड़ चुके हैं। उदय चोपड़ा, करण जौहर, गुल पनाग,रीतेश देशमुख जैसे कई नाम हैं,जो twitter के दीवाने हैं। इस सूची में रोज बड़े नाम जुड़ रहे हैं। इसी तरह, सोशल नेटवर्किंग साइट ‘फेसबुक’ और ‘ऑर्कुट’ पर तमाम सितारे मौजूद हैं।

सोशल मीडिया के रुप में बॉलीवुड कलाकारों को एक अनूठा हथियार मिल गया है। इस हथियार से एक साथ कई निशाने साधे जा सकते हैं। मसलन-बॉलीवुड कलाकारों को अपनी फिल्म की पब्लिसिटी का एक और जरिया मिल गया है। हज़ारों की तादाद में जुड़े प्रशंसकों से सीधे फिल्म देखने की भावनात्मक अपील भले फिल्म को हिट न कराए लेकिन उत्सुकता तो जगाती ही हैं। फिर, इसी हथियार से विरोधियों को चित किया जा सकता है। अमिताभ बच्चन अक्सर ब्लॉग पर मीडिया को आड़े हाथों लेते रहे हैं, तो मनोज बाजपेयी एक बार राम गोपाल वर्मा से दो-दो हाथ कर चुके हैं। आमिर खान ने अपने कुत्ते का नाम शाहरुख पर होने की बात लिखकर संभवत: अपनी भड़ास निकाली थी। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि सोशल मीडिया की पहुंच लगातार व्यापक हो रही है। प्रकाश झा की पिछली फिल्मों की सोशल नेटवर्किंग साइट ‘ऑर्कुट’ पर बनी कम्यूनिटी के सदस्यों की संख्या से इस बात को और बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। ‘गंगाजल’ के वक्त जहां अजय देवगन के नाम बनी 110 कम्यूनिटी में कुल सदस्यों की संख्या करीब 15 हजार थी, वहीं ‘राजनीति’ के रिलीज होने से पहले ही सिर्फ रणबीर कपूर के नाम पर 532 कम्यूनिटी हैं,जिनकी सदस्य संख्या दो लाख से ज्यादा है। कैटरीना कैफ के नाम पर तो 1000 से ज्यादा कम्यूनिटी हैं, जिनकी सदस्य संख्या पांच लाख से ज्यादा है।

भारत में ‘फेसबुक’ इस्मेमाल करने वालों की तादाद चंद महीनों में 25 लाख पार कर गई है। ‘आर्कुट’ के भी लाखों सदस्य हैं। जबकि ट्विटर के उपभोक्ताओं के बढ़ने की रफ्तार हजार गुना से ज्यादा है। ट्विटर के संदेशों को मोबाइल फोन के जरिए भी भेजा और प्राप्त किया जा सकता है, लिहाजा इसके मुरीद सभी हैं। फिर, इस नए माध्यम में मुख्यधारा की मीडिया की कोई दखलंदाजी नहीं है यानी बयान तोड़मरोड़कर पेश करने जैसी कोई बात नहीं है। इसके अलावा, विदेशों में बैठे दर्शकों के बीच फिल्म की पब्लिसिटी का यह शानदार माध्यम है।

निर्माता-निर्देशक भी इस बात को बखूबी समझ रहे हैं,लिहाजा फिल्म के प्रमोशन की रणनीति सोशल मीडिया के इर्दगिर्द बुने जाने की शुरुआत हो गई है। हाल में प्रदर्शित हुई फिल्में ‘कम्बख्त ईश्क’ और ‘लव आज कल’ के प्रचार के लिए सोशल नेटवर्किंग साइट ‘फेसबुक’ पर फिल्म पर आधारित ग्रुप बनाए गए। इन ग्रुप के सदस्यों के बीच कभी फिल्म की ताजा तस्वीरें जारी की गईं तो कभी इम्तियाज अली जैसे निर्देशक ने खुद नियमित तौर पर ‘चैट’ की। कमीने, काइट्स और सिकंदर जैसी कई आगामी फिल्मों का प्रमोशन इस तर्ज पर हो रहा है।

निश्चित तौर पर, आठ करोड़ से ज्यादा इंटरनेट और करीब 40 करोड़ मोबाइल धारकों के इस नए समाज में एक तरफ जहां बॉलीवुड को प्रचार का बेहतरीन जरिया मिला है, वहीं दूसरी तरफ, बॉलीवुड कलाकारों को एयरकंडीशन कमरे और गाड़ियों में बैठे बैठे सीधे प्रशंसकों से जुड़ाव का। लेकिन, सचाई यही है कि हाई-फाई लैपटॉप और मोबाइल के जरिए ज्यादातर कलाकार या तो अपनी फिल्म का प्रचार कर रहे हैं या खुद को एक मजबूत ब्रांड के रुप में स्थापित करने की कोशिश । कलाकारों के ब्लॉग-ट्विटर या सोशल नेटवर्किंग साइट्स के इस्तेमाल की खबर मुख्यधारा के मीडिया में सुर्खियां बटोर रही हैं। यही वजह है कि शाहरुख, सलमान, माधवन, अभय देओल और फरहान अख्तर जैसी कई हस्तियों ने सिर्फ अपना उल्लू सीधा होने तक यह खेल खेला। सलमान रिएलिटी शो ‘दस का दम’ को हिट कराने के लिए ब्लॉगिंग करते दिखे, तो शाहरुख आईपीएल में नाइट राइडर्स के प्रचार के इरादे से। अभय ने ‘ओए लक्की ओए’ के दौरान एक पोस्ट भर लिखी। हां, शेखर कपूर, मनोज बाजपेयी, आमिर खान जैसे अपवादों को छोड़ दें, जिन्होंने देश-दुनिया के हाल को भी अपनी सोच के दायरे में रखा तो बाकी कलाकार इस सोशल मीडिया के सोशल पहलू को भुलाते दिखे हैं। कहीं अहंकार हावी है, कहीं आत्ममुग्धता। इस बीच, देशी सेलेब्रिटियों के बीच ट्विटर का झंडा बुलंद करने वाली अभिनेत्री गुल पनाग का रक्त दान से संबंधित मैसेज (ट्वीट) दिखता है, तो सुखद हैरानी होती है। निश्चित तौर पर बॉलीवुड कलाकारों के हाथों में आए सोशल मीडिया के नए औजार न केवल औरों से कहीं ज्यादा प्रभावी हो सकते हैं, बल्कि कई सार्थक पहल कर सकते हैं। बशर्ते वो इस दिशा में सोचें।

(दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में 13 अगस्त को प्रकाशित आलेख)

Sunday, August 2, 2009

ग़ज़ब नौटंकी का आखिरी भाषण, इलेश के गले में राखी की वरमाला

स्वयंवर से पहले राखी (नौटंकी)सावंत का आखिरी भाषण-

"जिन्होंने मुझे इस दुनिया में एक जगह दी। मैं उन्हें आज इस पल कैसे भूल जाऊं। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं इस तरह से स्वंयर रचूंगी। इतिहास रचूंगी टेलीविजन पर। कभी नहीं सोचा था। हमेशा ईश्वर मेरे आगे रहे । मैं पीछे रही। मेरे कुछ फ्रेंड यहां आए हैं। पहले उनके साथ मैं प्रार्थना करना चाहूंगी। फिर कोई फैसला लूंगी। जो लोग देख रहे हैं, वो भी मेरे लिए प्रार्थना करें। मुझे उनकी ब्लेसिंग चाहिए। मैंने बहुत दुख उठाए हैं लेकिन आज के बाद कभी दुख नहीं उठाऊंगी। मैं और मेरी फ्रेंड्स प्रेयर करेंगे मेरे लिए। ग्रूम के लिए। ससुराल के लिए और एनडीटीवी इमेजिन के लिए। जीसस, मैं आपको साक्षी मानकर प्रे करना चाहूंगी। आपके नाम से मैं हर चीज करती हूं। दगी में आप सबसे पहले मेरे साथ हैं। ईश्वर मैं आपको बुलाती हूं। अपने हदय में, अपने शरीर में। मैंने कदम कदम पर ठोकर खाई। आज इतना पवित्र दिन है। आज यीशू मैं चाहतीं हूं आप जमीन पर आइए और मेरे लिए फैसला लीजिए।

एक छोटा सा गाना है, मैं गाती हूं।

आराधना करुंगी मैं पूरे मन से.......
...........................
...........................
थैक्यू लॉर्ड
थैक्यू जीसस
आईलवयू गॉड

इससे पहले मैं कोई फैसला लूं। मैं कुछ कहना चाहती हूं। आप तीनों मेरे फेवरेट हैं। मैंने कभी नहीं चाहा था कि मैं किसी का दिल तोडू। और बहुत सॉरी कि मैं किसी दो को सिलेक्ट नहीं कर पाई। अंजाने में मैं किसी का दिल तोड़ू रही हूं तो मुझे माफ करना।

खैर,राखी-राखी के नारों के बीच आखिरी टीआरपी नौटंकी हुई। राखी कभी एक के सामने खड़े होकर ठहरी तो कभी कहा कि मैं अब स्वंयर पार्ट टू करना चाहती हूं। लेकिन, आखिर में दूल्हा बने कनाडा के बिजनेसमैन इलेश।

लेकिन,ठहरिए...असली पेंच यही था। राखी ने आखिर में ऐलान कर दिया कि अभी सगाई हुई है,स्वंयर का मतलब होता है वर चुनना। शादी हम बाद में कर लेंगे। यानी हुई गुगली।

टीआरपी नौटंकी खत्म हुई। अब,देखें एनडीटीवी इमेजिन टीआरपी की जंग में बने रहने के लिए कौन सी अगली नौटंकी लेकर आता है।

Saturday, August 1, 2009

गूगल को पछाड़ना आसान नहीं

बिल गेट्स की कंपनी माइक्रोसॉफ्ट आखिरकार अपने इरादे में कामयाब हो गई। ये अलग बात है कि याहू कॉर्प को खरीदने को उसका मंसूबा सफल नहीं हुआ, लेकिन इंटरनेट सर्च और ऑनलाइन विज्ञापन में गूगल की बढ़त के खौफ में दोनों कंपनियों ने हाथ मिला लिए। पिछले साल माइक्रोसॉफ्ट ने याहू को 47.5 अरब डॉलर में खरीदने का प्रस्ताव रखा था, लेकिन बात नहीं बनी। लेकिन, इस सौदे के खटाई में पड़ने के एक साल के भीतर ही दोनों कंपनियां सर्च इंजन को लेकर एक हो गईं, तो यह जानना दिलचस्प है कि ऐसा क्यों हुआ?

इंटरनेट पर सर्च इंजन के मामले में गूगल का कोई सानी नहीं है। सर्च इंजन पर अमेरिकी खोजों के मामले में गूगल की हिस्सेदारी 78 फीसदी है,जबकि याहू के पास 11 फीसदी और माइक्रोसॉफ्ट के पास महज 8.4 फीसदी हिस्सा है। अमेरिका में सर्च इंजन पर को मिलने वाले विज्ञापनों में भी गूगल के पास 75 फीसदी हिस्सा है,जबकि याहू के पास 20.5 फीसदी और माइक्रोसॉफ्ट के पास 4.5 फीसदी हिस्सा है। ऑनलाइन विज्ञापनों के मामले में गूगल की बढ़त एकाधिकार जैसे हालात बना देती है,और माइक्रोसॉफ्ट के लिए यह चिंता का विषय थी।

लेकिन,बात सिर्फ माइक्रोसॉफ्ट की नहीं है। याहू की भी हालत खस्ता थी। एमएसएन के जरिए सर्च इंजन के क्षेत्र में माइक्रोसॉफ्ट अरसे से अपनी मौजूदगी दर्ज कराए हुए है, लेकिन उसकी बाजार हिस्सेदारी लगातार घटती गई। दूसरी तरफ, याहू का बिजनेस मॉडल ही बहुत हद तक सर्च इंजन की हिस्सेदारी पर निर्भर है,लिहाजा गूगल की बढ़ती हिस्सेदारी उसकी परेशानी का भी सबब थी।

लेकिन,बात सिर्फ सर्च इंजन में गूगल की बढ़त का भी नहीं है। गूगल ने हाल में माइक्रोसॉफ्ट के खिलाफ नयी जंग का ऐलान करते हुए ‘ऑपरेटिंग सिस्टम’ बाजार में उतारने का फैसला किया है। इसका सीधा अर्थ यह है कि माइक्रोसॉफ्ट को पहली बार उस क्षेत्र में चुनौती मिलेगी, जिस पर अभी तक उसका लगभग कब्जा रहा है। गूगल की ई-मेल सेवा ‘जी-मेल’ पहले ही माइक्रोसॉफ्ट की ई-मेल सेवा हॉटमेल को जोरदार पटखनी दे चुकी है। गूगल की ब्लॉगसेवा ब्लॉगस्पॉट भी माइक्रोसॉफ्ट भी ब्लॉग सर्विस पर इक्कीस साबित हुई है। गूगल का मैसेजिंग सॉफ्टवेयर गूगल टॉक माइक्रोसॉफ्ट के एमएसएन को कड़ी चुनौती दे चुका है। करीब ढ़ाई साल पहले लाए गूगल के डेस्कटॉप सर्च सॉफ्टवेयर ने भी माइक्रोसॉफ्ट की नींदें पहले ही उड़ा रखी हैं।

लेकिन,लाख टके का सवाल यह है कि क्या माइक्रोसॉफ्ट और याहू के बीच हुए इस समझौते के बाद गूगल का एकाधिकार खत्म हो पाएगा? इस सवाल का जवाब तलाशने से पहले इस समझौते की अहम बात समझ ली जाए। वो यह कि इस समझौते के अमल में आने के बाद (संभवत: 2010 तक) माइक्रोसॉफ्ट पांच साल तक सर्च के जरिए होने वाली आमदनी का 88 फीसदी याहू को देगा। यह करार दस साल के लिए है और इस दौरान याहू की सभी साइट्स पर सर्च इंजन का विकल्प माइक्रोसॉफ्ट मुहैया कराएगी। माइक्रोसॉफ्ट के नये सर्च इंजन ‘बिंग’ को हर जगह इसका श्रेय दिया जाएगा। यानी अचानक करीब 28 फीसदी सर्च पर माइक्रोसॉफ्ट का कब्जा हो जाएगा। इसके जरिए, वो ऑनलाइन विज्ञापन प्रदाता कंपनियों को तो आकर्षित कर ही पाएगी, अपने प्रोडक्ट का भी बेहतर प्रचार कर पाएगी। माइक्रोसॉफ्ट और याहू का कहना है कि इस समझौते के बाद दोनों कंपनियां इंटरनेट सर्च को बेहतर बनाने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ सकेंगे। हालांकि, गूगल ने इस समझौते पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि इससे प्रतिस्पर्धा घटेगी। बाजार में तीन के बजाय दो खिलाडी रहने के बाद प्रतिस्पर्धा की भावना कम होगी, लिहाजा नए शोध नहीं होंगे और उपभोक्ताओं के विकल्प भी कम होंगे।

इसमें कोई शक नहीं है कि गूगल के सामने लगातार बेबस हो रही माइक्रोसॉफ्ट के लिए यह सौदा संजीवनी बूटी साबित हो सकता है। इस बात का पहला प्रमाण सौदे की घोषणा के साथ दिखा, जब माइक्रोसॉफ्ट के शेयरों में तो .72 फीसदी उछाल दिखा अलबत्ता याहू कॉर्प के शेयर 12 फीसदी से ज्यादा गिर गए। आशंका इस बात की है कि सौदे के अमल में आने तक याहू के कई निवेशक अपने शेयर बेचकर निकल सकते हैं।

दरअसल, इस सौदे के बाद माइक्रोसॉफ्ट बनाम गूगल की जंग नए रुप में सामने आएगी। ऑपरेटिंग सिस्टम के मामले में माइक्रोसॉफ्ट इसी साल विंडोस-7 लाने की तैयारी कर चुका है, जबकि सर्च इंजन के क्षेत्र में अब वो छोटी ही सही चुनौती देने की स्थिति में तो होगा। हालांकि,सर्च इंजन के मामले में गूगल को हराना अभी दूर की कौड़ी है,जबकि उसके आसपास फटकना भी आसान नहीं है। इसकी वजह हैं। पहली, गूगल ने इंटरनेट सर्च में अपना जो रुतबा बनाया है,वो सिर्फ किसी नए खिलाड़ी या दो खिलाड़ियों के हाथ मिलाने से कम नहीं होता। सवाल यह है कि याहू-माइक्रोसॉफ्ट सर्च को कितना प्रभावी बनाते हैं, और विज्ञापनदाताओं को कैसे लुभाते हैं। दूसरी वजह- ‘पे फॉर परफॉरमेंस’ का गूगल का फंडा छोटे कारोबारियों को लुभा चुका है। तीसरा, गूगल को मालूम है कि उसकी सबसे बड़ी ताकत सर्च इंजन ही है, लिहाजा माइक्रोसॉफ्ट के ‘बिंग’ की चुनौती से निपटने की उसकी अपनी रणनीति होगी। फिर, अभी तो सौदा अमल में आने में ही वक्त है यानी गूगल के पास तैयारी के लिए थोड़ा वक्त है।

माइक्रोसॉफ्ट और याहू की जुगलबंदी अगर गूगल को चुनौती देने में कामयाब होते हैं, तो ये अच्छा है। विज्ञापनदाताओं को जहां ऑनलाइन विज्ञापन में जहां नया विकल्प मिलेगा, वहीं बेहतर ‘बिंग’ शायद उपभोक्ताओं को भी सर्च के नए विकल्प दे। हालांकि, भारत में गूगल का वर्चस्व बना रहेगा क्योंकि अभी यहां 92 फीसदी सर्च गूगल के जरिए होती हैं,जबकि याहू-माइक्रोसॉफ्ट सिर्फ 7 फीसदी सर्च में इस्तेमाल होते हैं। सर्च इंजन को मिलने वाले भारतीय विज्ञापनों में भी करीब 85 फीसदी गूगल के खाते में जाते हैं। लेकिन, बड़ी बात ये कि याहू-माइक्रोसॉफ्ट की रणनीति कारगर हुई तो सर्च इंजन में गूगल के एकाधिकार का खौफ कम होगा। ये अच्छा संकेत है क्योंकि गूगल का प्रभुत्व लगातार उसके दुनिया की सबसे बड़ी ‘जासूसी एजेंसी’ होने की ओर इशारा कर रहा है।

(दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित लेख)

Friday, July 31, 2009

अब ‘Wife Swapping’ पर रिएलिटी शो के लिए तैयार होइए

स्टार प्लस पर प्रसारित ‘सच का सामना’ को लेकर इन दिनों बहस छिड़ी हुई है। रिएलिटी शो को अश्लील और भारतीय संस्कृति के खिलाफ बताकर एक वर्ग इसकी मुखालफत कर रहा है, तो दूसरे वर्ग का तर्क है कि आधुनिक समाज अब इस तरह के कार्यक्रमों के लिए तैयार हो चुका है, और शो में हिस्सा लेने वाले लोग जबरदस्ती नहीं बुलाए जाते।

‘सच का सामना’ के पक्ष-विपक्ष में अपने अपने तर्क हैं, और एक लिहाज से दोनों किस्म के तर्क ‘आधा सच’ तो कह ही रहे हैं। लेकिन, सच का सामना के बारे में बहुत कुछ कहा जा चुका है। अब,जबकि सच का सामना को कोर्ट की हरी झंडी मिल चुकी है, और शो निर्विवाद रुप से जारी है तो मेरा मन एक भविष्यवाणी करने को हो रहा है। वो ये कि अब जल्दी ही भारतीय टेलीविजन पर एक रिएलिटी शो दिखेगा-जिसमें पत्नियों की अदला बदली होगी। यानी वाइफ़ स्वैपिंग।

दरअसल, इस भविष्यवाणी के पीछे अपना एक तर्क है। सबसे पहला, नकल का सफल फंडा। भारतीय टेलीविजन पर प्रसारित ज्यादातर रिएलिटी शो नकल आधारित रहे हैं। अंताक्षरी को छोड़ दें, जो बिलकुल देशी आइटम है, बाकी ज्यादातर रिएलिटी शो का कांसेप्ट चुराया हुआ /खरीदा हुआ/ प्रेरित हुआ है।

कौन बनेगा करोडपति से लेकर, क्या आप पांचवी पास हैं, इंडियन आइडल, बिग बॉस स्पिलट्सवाला, खतरों के खिलाड़ी, इस जंगल से मुझे बचाओ, इंडियाज गॉट टेलेंट और सच का सामना तक सभी का कांसेप्ट विदेशी रिएलिटी शो से लिया गया है। जस का तस। ये सभी रिएलिटी शो हिट रहे हैं। एक हद तक मनोरंजन चैनलों के लिए टीआरपी की संजीवनी बूटी लेकर आते रहे हैं। इनकी खासियत,लोकप्रियता और विवाद सब टीआरपी खेंचू रहे हैं।

अब मुद्दे की बात। वाइफ स्वैपिंग पर रिएलिटी शो नया नहीं है। ब्रिटेन में 2003 और अमेरिका में 2004 से इसका प्रसारण चल रहा है। ब्रिटेन में चैनल-4 और अमेरिका में एबीसी नेटवर्क पर ‘वाइफ स्वैप’ दिखाया जाता रहा है। शो के फॉर्मेट के मुताबिक सामाजिक-आर्थिक स्तर में दो अलग ध्रुव पर रहने वाले दो परिवारों के बीच पत्नी/मां की अदला-बदली होती है। ये शो दो हफ्ते का है। पहले हफ्ते बदली गई पत्ती पहली पत्नी के नियमों और उसके अंदाज में घर चलाती है, और दूसरे हफ्ते अपने नियम-कायदे गढ़ती है। हालांकि, इन रिएलिटी शो का इतिहास बताता है कि इस दौरान गाली-गलौज, बच्चों से बदसलूकी और पत्नी पर हाथ उठाने के मामले सामने आए। इसी शो का एक सेलेब्रिटी संस्करण भी है,जिसमें हमारी परीचित जेड गुडी भी एक बार शामिल हुई थीं।

लेकिन,अब वो बात जो संभवत: आपके पेट में खलबली मचा रही हो। जी नहीं, इस शो में पत्नियां ‘बेड शेयर’ नहीं करतीं। लेकिन,पर-पुरुष के साथ उनका भावनात्मक संबंध नहीं बनता-ये कहना भी गलत होगा। इसी साल वाइफ स्वैप में शामिल हो चुकी एक महिला जैमी ने अपने पति को चाकू मार दिया था। वजह एक दूसरा मर्द ही था। वो कौन था-ये साफ नहीं है। जैमी का पति घायल हुआ,मरा नहीं। जमानत मिली 75,000 डॉलर में।

बहरहाल, शो में टीआरपी बटोरने की खूब गुंजाइश है। इसलिए भारतीय मनोरंजन चैनलों की भी इस पर जल्द नज़र जाएगी ही। अब, इसमें आप खोजिए नैतिक-अनैतिक बातें-टेलीविजन चैनलों को टीआरपी चाहिए,जो इसमें खूब मिलेगी।

वैसे,अपने दिमाग में एक आइडिया चैनल वालों के लिए आ रहा है। राखी स्वयंवर रचा चुकी हैं(मतल दो को रचा लेंगी) और अब आने वाले दिनों में उन्हें फिर एक रिएलिटी शो की तलाश होगी। राखी टीआरपी सावंत को अभी से एप्रोच किया जा सकता है !

Thursday, July 30, 2009

जाको राखे 'नेटीजन', रोक सके न कोय

पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ़ अली ज़रदारी को सोशल मीडिया के कुछ दिलचस्प और चर्चित किस्सों का पता होता, तो शायद वो ऐसी गलती कभी नहीं करते। उन्होंने खुद पर गढ़े गए एसएमएस-ईमेल और ब्लॉग पोस्ट पर पाबंदी लगाने के लिए “दोषियों” को 14 साल की जेल का ऐलान कर डाला। अपनी नीतियों पर जनता की आलोचना से भन्नाए राष्ट्रपति के इस फरमान का खुलासा किया गृहमंत्री रहमान मलिक ने। उनके मुताबिक, फेडरल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी को यह जिम्मेदारी दी गई है कि वो लतीफे वाले ई-मेल और एसएमएस पर नजर रखे और दोषियों को साइबर क्राइम एक्ट के तहत जेल में ठूंस दे। लेकिन, जरदारी और मलिक का यह दांव उल्टा पड़ गया है। जरदारी पर गढ़े लतीफे एसएमएस, ई-मेल, ब्लॉग और सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर खूब दिख रहे हैं। राष्ट्रपति साहब अब इस बात पर खफ़ा हैं कि इतनी जबरदस्त चेतावनी के बावजूद भी ऐसा क्यों हुआ। दरअसल,ऐसा होना ही था। सोशल मीडिया के किसी भी माध्यम में कंटेंट के आने के बाद उस पर जबरदस्ती पाबंदी लगभग नामुमकिन है। ऐसे उदाहरणों की लंबी फेहरिस्त है।

अमेरिका में चंद साल पहले पायलट गैब्रिली एडलमैन और फोटोग्राफर केनेथ एडलमैन ने अपनी साइट कैलिफोर्नियाकोस्टलाइनडॉटओआरजी के लिए पूरे समुद्र तट के फोटो खींचे तो उनमें एक तस्वीर मशहूर गायिका बारबरा स्ट्रीसैंड़ की भी थी। बारबरा ने जिद की कि उनके घर का फोटो साइट से हटाया जाए। इस बात की भनक लगते ही नेट प्रेमियों के बीच इस फोटो का धुआंधार आदान-प्रदान हुआ। तमाम साइटों और ब्लॉग पर फोटो चस्पां हो गया। नतीजा,बारबरा का यह घर आज भी नेट पर देखा जा सकता है। इसी तरह,पाठकों द्वारा किसी ब्लॉग,साइट या ट्विटर की पोस्ट की रेटिंग करने वाली वेबसाइट डिगडॉटकॉम पर 2007 में एचडी-डीवीडी को तोड़ने वाला एक कोड़ जबरदस्त हिट हुआ। सिर्फ एक दिन के भीतर 3172 ब्लॉग पर इस कोड़ का ज़िक्र किया जा चुका था। फिल्म इंडस्ट्री ने डिग पर कानूनी कार्रवाई का ऐलान किया तो डिग के संस्थापक कैविन रोज़ ने फौरन मूल कोड़ हटा लिया। लेकिन,तब तक लाखों लोग इस कोड़ को न केवल जान चुके थे,बल्कि कोड़ तोड़ने का वीडियो ‘यूट्यूब’ पर भी आ चुका था। डिगडॉटकॉम सिर्फ साइट-ब्लॉग का एग्रीगेटर है,लिहाजा इसमें उसकी कोई गलती नहीं थी। लेकिन,कार्रवाई की बात ने कोड़ के प्रचार में अहम भूमिका निभायी। ज़रदारी भी इसी तरह गलती कर गए हैं-कार्रवाई की धमकी देकर। नतीजा पाकिस्तान में यार-दोस्त आपस में तो एसएमएस-ईमेल भेज ही रहे हैं, सोशल मीडिया पर इन लतीफों की भरमार हो रही है। जानकारों की मानें तो इस माध्यम में ‘नेटीजन’ के माऊस क्लिक तक पहुंचे कंटेंट को भगवान भी उनसे नहीं छीन सकता। लेकिन, जरदारी ये बात कहां जानते थे ?

चीन बोला- नामीबिया कहां ?

इंटरनेट सेंसरशिप के मामले में चीन का कोई जवाब नहीं। ज़रा ज़रा सी बात पर चीन में वेबसाइट पर पाबंदी लगना आम हो चला है। हाल में, चीन ने सर्च इंजन में नामीबिया से जुड़े की-वर्ड ही ब्लॉक कर डाले। दरअसल,एक चीनी कंपनी के नामीबिया सरकार के साथ समझौते में हुई धांधली की खबर लीक होने के बाद चीन सरकार ने यह फैसला किया। इस फैसले के बाद बीस लाख की आबादी वाला यह दक्षिणी अफीका का मुल्क इंटरनेट से लापता हो गया। नामीबिया सर्च करने पर एरर मैसेज आने लगा। इससे पहले, जून में थ्यानमैन चौक नरसंहार की 20वीं बरसी पर चौकसी बरतते हुए सरकार ने ट्विटर, हॉटमेल और फ्लिकर जैसी कई साइटों पर पाबंदी लगा दी थी। दिलचस्प यह कि सरकार पाबंदी लगाती है,लेकिन यह खबर लीक जरुर होती है कि सरकार ने किन साइटों पर और क्यों रोक लगाई है। ऐसे में,क्या सरकार अपने इरादे में कामयाब हो पाएगी ?


आंकड़ों में :

बराक ओबामा से प्रियंका चोपड़ा तक कई हस्तियां इन दिनों माइक्रोब्लॉगिंग साइट ट्विटर का इस्तेमाल कर रही हैं। एक तरह से ट्विटर नया स्टेटस सिंबल बन गई है। ट्विटर के चाहने वाले दुनिया भर में किस तेजी से बढ़ रहे हैं, इसका अंदाजा नील्सन कंपनी की रिसर्च के नतीजों से लगाया जा सकता है। इसके मुताबिक, साल 2006 में बनी इस कंपनी की साल 2008 में विकास दर 1382 फीसदी रही है। 2009 फरवरी में इसे सबसे लोकप्रिय सोशल नेटवर्किंग प्लेटफॉर्म घोषित किया गया।


चलते-चलते :

जरदारी पर बने हज़ारों एसएमएस में से कुछ

1-“जरदारी और मुशर्ऱफ़ ”

हकीकत थी पर / ख्वाब निकला /दूर था पर पास निकला / मैं इस बात को क्या कहूं /ये ज़रदारी तो / मुशर्ऱफ़ का भी बाप निकला

2-“अपहरण”

आतंकवादियों ने जरदारी का अपहरण कर लिया। उन्होंने पाकिस्तान सरकार से बदले में 5 करोड़ डॉलर की मांग की है। सरकार ने लोगों से अपील की है कि वो अपने प्यारे राष्ट्रपति को छुड़ाने के लिए जो कुछ दे सकते हैं, दें।

मैंने पांच लीटर पेट्रोल दान दिया है।

(दैनिक भास्कर, दिल्ली में प्रकाशित स्थायी स्तंभ-ब्लॉग उ(वॉच)

Wednesday, July 22, 2009

अब ‘टीआरपी’ वाले मुद्दों पर मचाओ हंगामा !

दाल की कीमतें एक-दो महीनों में 20 रुपए किलो से ज्यादा बढ़ गई हैं। निजी स्कूल सरकारी आदेश के बावजूद फीस बढ़ाने में जुटे हैं। अंबानी भाइयों ने देश के गैस भंडार को अपनी जागीर समझ रखा है। महिलाओं से बलात्कार की घटनाएं रोज अखबारों में सुर्खियां बन रही हैं। इस तरह के पचासों गंभीर मसले हैं,जिन पर बहस होनी चाहिए ताकि किसी निष्कर्ष तक पहुंचा जा सके। इन मसलों पर राजनीतिक दलों में एक सहमति बननी चाहिए ताकि प्रभावी तरीके से कोई कानून बन सके-उपाय खोज सकें।

लेकिन,सहमति किस मसले पर बनती है? 'सच का सामना' पर। स्टार प्लस पर प्रसारित 'सच का सामना' भारतीय संस्कृति के खिलाफ है- यह कहते हुए समाजवादी पार्टी के सांसद कमाल अख्तर ने राज्यसभा में मामला उठाया तो बीजेपी के प्रकाश जावड़ेकर समेत कई पार्टियों के नेताओं का समर्थन मिल गया।

चलिए मान लिया कि ‘सच का सामना’ के सवाल भारतीय संस्कृति के खिलाफ हैं। लेकिन, इसमें शामिल होने वाले प्रतियोगियों को क्या खींच खींचकर हॉट सीट पर बैठाया जा रहा है? पैसा बोलता है भइया। लोगों को पैसा मिले तो बीच सड़क नंगे होने को तैयार हैं, तो यहां तो सिर्फ सच बोलना है।

लेकिन,सवाल ‘सच का सामना’ का नहीं है। सवाल है सांसदों के विरोध का। क्यों इन दिनों बालिका वधू से लेकर सच का सामना जैसे टेलीविजन कार्यक्रमों पर संसद में सवाल उठाए जा रहे हैं? क्या नेशनल ब्रॉडकॉस्टिंग एसोसिएशन मर गया है, जिसका काम ही इन कार्यक्रमों के खिलाफ सुनवाई करना है।

एक सवाल ये भी क्यों सांसदों को घटिया-बेहूदा और अश्लील विज्ञापन टेलीविजन पर नज़र नहीं आते। विज्ञापन तो उन्हें बड़े टॉयिंग लगते हैं :-)

कहीं,टेलीविजन कार्यक्रमों पर सवाल उठाने का एक सिरा खुद की टीआरपी बटोरना तो नहीं है। इन दिनों हर जगह ‘सच का सामना’ का जिक्र है तो सांसद महोदय ने इसी कार्यक्रम पर सवाल उठा डाला और सुर्खियां बटोर लीं। बालिका वधू के सिलसिले में भी यही कहा जा सकता है।

वैसे,एक वजह सांसदों का डर भी हो सकता है कि कहीं आने वाले दिनों में उन पर हॉट सीट पर बैठने का दबाव न बनने लगे। कहीं क्षेत्र की जनता कह दे- पहले हॉट सीट पर बैठकर आओ, फिर देंगे वोट। हो ये भी सकता था कि ‘सच का सामना’ में किसी भी पार्टी का छुटभैया नेता हॉट सीट पर बैठ जाए और सवालों के जवाब में भद्द पिटे आलाकमान की। मसलन-

क्या कभी आपसे आपकी पार्टी के मंत्री ने किसी काम के एवज में संबंधित पक्ष से मोटी रकम बटोरने को कहा है?

क्या आप मानते हैं कि आपने अपनी पिछली पार्टी को इसलिए छोड़ा कि वो भ्रष्टाचार के गर्त में जा चुकी है?

क्या आपने कभी अपने आला नेताओं के चरित्र पर शक किया है?

क्या आपने बड़े नेताओं के इशारे पर बूथ कैप्चरिंग या फर्जी वोटिंग करायी है?

यानी इन सवालों के जवाब देकर छुटभैया नेता तो दस-बीस लाख जीतकर निकल लेगा और जवाब देने पड़ेगे बड़े नेताओं को....

खैर, ‘सच का सामना’ बकवास है,इसमें कोई शक नहीं, लेकिन भारतीय संस्कृति के खिलाफ नारा उतना ही खोखला है,जितना ज्यादातर राजनेताओं का ईमान। क्योंकि,भारतीय संस्कृति के खिलाफ किस किस चीज को अब हम स्वीकृति मिलते देख रहे हैं-ये किसी से छिपा नहीं है। और महज 50 एपिसोड के एक रिएलिटी शो से ही भारतीय संस्कृति ध्वस्त हो ली तो फिर तो हो लिया काम।

Saturday, July 18, 2009

किसी को दो अवॉर्ड, अपने बाप का क्या जाता है?

अभी अभी एक न्यूज साइट पर ख़बर पढ़ी कि फिल्म अभिनेता शाहिद कपूर को राजीव गांधी अवॉर्ड से नवाजा गया है। बेस्ट एक्टर के लिए। अचानक जेहन में सवाल आ गया कि भाई शाहिद को क्यों? क्या बॉलीवुड में शाहिद के अलावा कोई इस लायक बचा नहीं था कि उसे ‘बेस्ट एक्टर’ माना जा सकता।

लेकिन,फिर दूसरे ही पल लगा कि अपने बाप का क्या जाता है, किसी को दो। 28 साल के शाहिद ने भले अभी तक सिर्फ इश्क विश्क,विवाह और जब वी मैट जैसी तीन सफल फिल्में दी हों,लेकिन अगर ज्यूरी उनके अभिनय पर फिदा है तो कोई क्या करे। अब,ये अलग बात है कि उनकी सबसे सुपर हिट फिल्म 'जब वी मैट' के सारे अवॉर्ड फिल्म की हीरोइन करीना कपूर की झोली में गए हैं।

वैसे,बात सिर्फ शाहिद कपूर की भी नहीं है। अवॉर्ड का सम्मान कैसे कम किया जाता है,ये राजीव गांधी अवॉर्ड में एक्टरों के नामों की फेहरिस्त को देखकर लगाया जा सकता है। 2005 में सुनील शेट्टी और करीना कपूर को ये अवॉर्ड दिया गया। अब सुनील भाई ने एक्टिंग में क्या तोप मारी है भला? और करीना कपूर ने अपनी बेहतरीन एक्टिंग 2005 के बाद ही दिखायी है,लेकिन उन्हें 2005 में इस अवॉर्ड से सम्मानित कर दिया गया। 2006 में जॉन अब्राहम और सुष्मिता सेन को यह अवॉर्ड दे दिया गया। बहुत खूब! 2007 में सलमान खान और शिल्पा शेट्टी को। शायद, इनके अनुभव के मद्देनजर दिया गया हो अवॉर्ड ! 2008 में सैफ अली खान और लारा दत्ता को। सैफ अली तो 2008 तक 'ओंकारा' और 'हम तुम' के जरिए अपने बेहतरीन अभिनय का जौहर दिखा चुके थे, लेकिन लारा दत्ता?

दिलचस्प ये कि इस लिस्ट में शाहरुख खान का नाम अपन को दिखायी नहीं दिया अभी तक। वैसे,शाहरुख को भी मैं बहुत उम्दां एक्टर नहीं मानता लेकिन लोकप्रियता में उनका कोई सानी नहीं है। इसके अलावा, 'चक दे' और 'स्वदेश' के बाद यह कहना भी गलत है कि शाहरुख को एक्टिंग नहीं आती।

वैसे, शाहिद कपूर से टक्कर लेने वालों में अभय देओल का नाम हो सकता था। अभय देओल की तमाम फिल्में लीक से हटकर हैं, और उनका अभियन कमाल का है। इसके अलावा एक नाम अभिषेक बच्चन का हो सकता था,जो 'गुरु' में बेहतरीन अभिनय दिखा चुके हैं, और 'धूम' और 'दोस्ताना' जैसी मसालेदार फिल्मों में भी खूब चले हैं। लेकिन,कांग्रेस सरकार में अभिषेक को सम्मान? न न...ये सोचना भी गलत है। आप क्या कहते हैं?

Wednesday, July 15, 2009

बकवास है 'सच का सामना'

स्टार प्लस पर रिएलिटी शो सच का सामना के पहले एपिसोड में हॉट सीट पर स्मिथा मटाई बैठीं तो लगा कि पहली बार में ही वो एक करोड़ रुपए नहीं तो कम से कम दस लाख रुपए जरुर जीत लेंगी।

उन्होंने तमाम सवालों के सही जवाब दिए। मसलन-

-क्या आपको अपनी बड़ी बहन की इस्तेमाल की गई किताबें मिलने पर गुस्सा आता था। (हां)
-क्या आप एक हफ्ते तक बिना नहाए रही हैं। (हां)
-क्या आपको लगता है कि आप 12वीं क्लास में इसलिए फेल हो गईं क्योंकि आप आलसी थीं।(हां)
-क्या आपने कभी अपने ग्राहकों को बासी खाना भेजा है।( नहीं)
-क्या आपके ससुर आपके पति से अच्छे दिखते थे। (हां)
-क्या आपको अपने भाई से इसलिए जलन थी कि क्योंकि आपको लगता था कि वो मां-बाप का दुलारा है।(हां)
-क्या आप अपने दूसरे बच्चे के जन्म के वक्त अपनी मां के साथ न होने पर उन्हें माफ कर सकती हैं।(नहीं)
-क्या आप मानती हैं कि आपके माता पिता आपके बच्चों से ज्यादा आपके भाई के बच्चों को प्यार करते हैं। (हां)
-क्या आपको लगता है कि आपकी सास आपकी मां से बेहतर मां थीं।(हां)
-क्या आप इस डर में जीती हैं कि आपके पति दोबारा शराबी न बन जाएं( हां)
-क्या आपने कभी अपने पति को जान से मारने के बारे में सोचा है।( हां)
-क्या आप सिर्फ अपने बच्चों की खातिर अपनी शादी बचाए हुए हैं।( नहीं)
-क्या आपने कभी अपने पति को धोखा देने के बारे में सोचा है।( हां)

इन 13 सवालों के जवाब में स्मिता ने सिर्फ सच बोला। बीच में अपना रुख साफ भी किया। लेकिन,जिस प्रश्न के जवाब में वो शो से हार गईं, वो था-

-क्या आप अपने पति के अलावा किसी दूसरे मर्द से शारीरिक संबंध बनाना चाहेंगी, अगर आपके पति को पता न चले तो...

स्मिता ने जवाब दिया-नहीं। यही जवाब उन्होंने शो से पहले पोलिग्राफिक टेस्ट के दौरान दिया था। लेकिन, जवाब गलत निकला। स्मिता अपने जीते पांच लाख रुपए फिर हार गईं।

लेकिन, इस शो ने मेरे मन में दो सवाल जरुर उभार दिए। पहला ये कि इंसान की जिंदगी में एक लम्हे के कई सच होते हैं। ऐसे कई लम्हें होते हैं,जब वो पता नहीं क्या सोचा है। भावावेश में वो अपनी पत्नी,गर्लफ्रेंड को मारने के बारे में भी सोच सकता है,तो बॉस को गोली मारने की भी। अपने टीचर से ही मोहब्बत का अफसाना जुड़ता देखता है तो घर में चोरी की भी कल्पना करता है। लेकिन,क्या वो ऐसा करता है? दरअसल, जिंदगी के किस लम्हे में आपके दिमाग में क्या ख्याल आया हो-ये याद कर पाना भी कई बार मुश्किल है। शायद यही वजह है कि स्मिता उस सवाल के जवाब में हार गई,जिसका जवाब उन्हें 'नहीं' के रुप में पता था। अगर ऐसा नहीं होता तो शायद वो पांच लाख के पड़ाव पर ही बाहर हो लेतीं।

इसके अलावा, इस शो के फॉर्मेट से जुड़ा एक सवाल यह है कि प्रतियोगी का पोलीग्राफिक टेस्ट क्या हॉट सीट पर बैठने से ऐन पहले होता है या एक-दो दिन पहले टेस्ट हो लेता है। अगर,टेस्ट ऐन पहले होता है,तो शायद प्रतियोगी के हौसले के कद्र करनी चाहिए। लेकिन,अगर टेस्ट दो-एक दिन पहले हो चुका होता है तो फिर शो का फॉर्मेट दर्शकों को उल्लू बनाने जैसा है।

फिलहाल,स्टार प्लस पर यह कार्यक्रम टीआरपी बटोरने में सफल हो सकता है क्योंकि इस तरह का कोई कार्यक्रम भारतीय टेलीविजन पर कभी नहीं आया। लेकिन,हॉट सीट पर सोच समझकर बैठे प्रतियोगी इन सवालों के झंझावत से हिलेंगे-इसमें संदेह है। क्योंकि,जिन सवालों का सच चौंकाने वाला होगा, वो 'फुके हुए बम' होंगे, और सच विस्फोटक हो सकते हैं-वो अपने आप में पूरा सच नहीं होंगे। पहले एपिसोड के बाद मेरा यही निष्कर्ष है। बाकी देखते हैं आगे होता है क्या।

रिएलिटी शो के नये युग में ले जाएगा ‘सच का सामना’ ?

क्या आपके पति या पत्नी को मालूम न चले तो आप उन्हें धोखा दे सकते हैं? क्या आपका पत्नी की बहन से कभी अफेयर रहा है? क्या आपकी मां आपके बच्चों से ज्यादा आपके भाई के बच्चों को प्यार करती हैं? क्या आपने शादी से पहले सेक्स किया है? और क्या आपके दिमाग में कभी अपने पति या पत्नी की हत्या का ख्याल आया है? हां और न की सीमाओं में बंधकर ऐसे तमाम सवालों के जवाब और इसके रोमांच से टेलीविजन दर्शक रुबरु होने को तैयार हैं-रिएलिटी शो ‘सच का सामना’ के जरिए। आज यानी 15 जुलाई से शुरु हो रहा अमेरिकी रिएलिटी शो ‘द मूमेंट ऑफ ट्रूथ’ का देशी संस्करण ‘सच का सामना’ भारतीय टेलीविजन चैनलों पर रिएलिटी शो के एक नए युग की शुरुआत कर सकता है।

रिएलिटी शो के अतीत पर नज़र डालें तो परंपरागत ‘अंताक्षरी’ से लेकर नाच गाने के ‘इंडियन आइडल’ जैसे तमाम कार्यक्रमों में दर्शकों को लुभाने के लिए गाने-बजाने का सहारा लिया गया। इस बीच, ‘कौन बनेगा करोड़पति’ जैसा कार्यक्रम भारतीय सिनेमा के महानायक अमिताभ बच्चन के कंधों पर सवार होकर पहली बार छोटे पर्दे के जरिए एक करोड़ रुपए जीताने का ख्वाब लेकर ड्राइंगरुम में दाखिल हुआ तो वो भी सफल साबित हुआ। हालांकि,इसकी सफलता में अमिताभ की आत्मीयता और संवाद अदायगी की भी बड़ी भूमिका थी। बदलते वक्त में बिग बॉस, रोड़िस और स्पिल्ट्जवाला जैसे फूहड़ और भौंडे रिएलिटी शो ने भी टेलीविजन पर सफलता की कहानी लिखी। इन कार्यक्रमों में अश्लीलता, द्विअर्थी संवाद और बेहूदा हरकतें सामान्य थीं। लेकिन, ‘सच का सामना’ इन सभी रिएलिटी शो में इस मायने में बिलकुल अलग है कि यहां प्रतियोगियों को जीत के लिए सिर्फ और सिर्फ सच बोलना है, और इसमें कोई दो राय नहीं कि सच कई बार खौफनाक होता है।

इस शो के फॉर्मेट को दिलचस्प कहा जा सकता है। इसमें प्रतियोगियों को हॉट सीट पर बैठने से पहले पॉलीग्राफिक टेस्ट (लाइ डिटेक्टर टेस्ट) से गुजरना पड़ता है। इस दौरान, प्रतियोगी से 50 सवाल पूछे जाते हैं। पॉलीग्राफिक टेस्ट के नतीजे बताए बगैर प्रतियोगियों को इन्हीं 50 सवालों में से 21 सवालों का सामना कार्यक्रम के दौरान करना होता है। लेकिन, अपने मित्र-परिजनों के सामने। ये आसान काम नहीं है। खासकर तब,जबकि सवाल निजता की सीमाएं लगातार लांघ रहे हों, और हर सच मित्रों-परिजनों को आहत कर सकता हो।
अमेरिका में इस रिएलिटी शो पर कई घर बर्बाद करने का आरोप है। हॉट सीट पर बैठकर लाखों का इनाम जीतते हुए प्रतियोगियों ने कहीं अपने घर तोड़ डाले तो कहीं दिल। इस शो से जुड़े कई दिलचस्प किस्से हैं। लॉरेन क्लेरी नाम की एक प्रतियोगी से सवाल पूछने उसका पूर्व ब्यॉयफ्रेंड भी पहुंचा था। उसने पूछा, अगर मैं तुम्हारे पास लौटना चाहूं तो क्या तुम अपने पति को छोड़ दोगी। कार्यक्रम के नियम के मुताबिक, अगर कोई मित्र-परिजन जवाब न सुनना चाहता हो तो एक बार सवाल बदलने की गुजारिश कर सकता है। लॉरेन की मित्र ने यही किया। सवाल बदला गया तो फिर पूर्व ब्यॉयफ्रेंड को ही मौका मिला। उसने पूछा, क्या मैं ही वो शख्स हूं,जिससे तुम्हें शादी करनी चाहिए थी। लॉरने ने जवाब दिया-हां। इस जवाब के साथ लॉरेन एक लाख डॉलर के आंकड़े पर पहुंच गई। उसके पति ने खेल जारी रखने को कहा क्योंकि उसे लगा कि इससे ज्यादा वो निराश नहीं कर सकती। अगला सवाल था- क्या आपने शादी के बाद किसी दूसरे शख्स से शारीरिक संबंध बनाए हैं। लॉरेन का जवाब था- हां। इस जवाब के बाद लॉरेन और उसके पति की राहें जुदा हो गईं। लॉरेन संबंधों को गंवा लाखों डालर जीत चुकी थी। लेकिन, किस्मत का खेल देखिए कि अगला सवाल था-क्या आप खुद को बेहतर इंसान मानती हैं। लॉरेन ने जवाब दिया-हां। लेकिन,जवाब गलत साबित हुआ। लॉरेन खाली हाथ घर लौटी। इसी तरह, कोलंबिया में एक बार इस शो को इसलिए रद्द भी करना पड़ा क्योंकि हॉट सीट पर बैठी महिला ने स्वीकार किया कि उसने अपने पति की हत्या के लिए सुपारी दी थी, लेकिन वो बच गया।

लेकिन, बात अमेरिका की नहीं भारत की है। मुमकिन है यहां सेक्स से संबंधित सवाल कम पूछे जाएं, लेकिन इनके बगैर यह खेल यहां भी पूरा नहीं होगा। फिर, निजता की सीमाएं लांघते सवाल तो यहां भी होंगे ही। सवाल ये कि क्या भारतीय समाज ड्राइंगरुम के भीतर इन सवालों और इनके जवाबों को सुनने के लिए अब तैयार हो चुका है? सच की असल तस्वीर हालात से दिखायी देती है,लेकिन यहां सिर्फ हां और न में बंधा होगा सच। ऐसे में, क्या भारत में यह शो महज रिएलिटी शो साबित होगा या विवादों की खाद लेकर घरों और दिलों को तोड़ते हुए सफलता की नयी दास्तां लिखेगा?

बात सिर्फ सच की भी नहीं है। बात झूठ की भी है। समाज को कड़ी दर कड़ी जोड़े रखने में झूठ भी गोंद की तरह इस्तेमाल होता है। लेकिन, इस रिएलिटी शो में रोज सच का विस्फोट होगा। ड्राइंगरुम में। बच्चों के बीच। हालांकि,पॉलीग्राफिक टेस्ट को अभी कानूनी मान्यता नहीं है, लेकिन इस शो की विश्वसनीयता को इसी आधार पर भुनाया जाएगा।

कई लोगों का मानना है कि भारतीय घरों के चाय के प्याले में ‘सच का सामना’ अभी तूफान नहीं ला सकता। वजह यह कि भारतीय मानस अभी टेलीविजन को गंभीरता से लेता ही नहीं। भारतीय समाज की विसंगतियां भी उतनी दुश्कर नहीं हुई, जितनी पश्चिमी समाज की। लिहाजा, हमारे सच अभी उतने विस्फोटक नहीं हुए। इसके अलावा अहम बात ये भी कि इस कार्यक्रम में शिरकत कौन करता है?

इसमें कोई दो राय नहीं कि दूसरों की निजता से जुड़े सवालों का जवाब सार्वजनिक होने पर एक ‘अलग मज़ा’ देते हैं। टीआरपी की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में इस तरह का कार्यक्रम चैनल को आगे ले जाने में मदद कर सकता है,लेकिन लाख टके का सवाल यही है कि ‘कौन बनेगा करोड़पति’ की तरह ड्राइंगरुम में बैठा परिवार जब हर सवाल का जवाब बुदबुदाएगा,तब वो सोच के किस पार खड़ा होगा? आखिर, 21 नितांत निजी सवालों के पार रखे एक करोड़ के इनाम का इनाम खुद को ‘नंगा’ करने सरीखा नहीं होगा। फिर, इस रिएलिटी शो के जरिए एक सवाल फिर उभार ले सकता है कि क्या ये टेलीविजन चैनलों का दिवालियापन नहीं है कि हम नकल कर एक ताले की चाबी को दूसरे में फिट कर देखना चाहते हैं। फिलहाल,देखना यही है कि क्या भारतीय दर्शक ‘सच का सामना’ करने के लिए तैयार हैं? अगर ऐसा हुआ तो भारतीय रिएलिटी शो के एक नए युग की शुरुआत होगी,जहां नाच गाने-शारीरिक श्रम-बौद्धिक चातुर्य से आगे जाकर निजता में सीधे सेंध लगाने की शुरुआत होगी।

(ये लेख दैनिक भास्कर के दिल्ली संस्करण में 15 जुलाई को प्रकाशित हुआ है)

Saturday, July 11, 2009

‘सविताभाभी’ के बहाने एक बड़ी बहस की गुंजाइश

इंटरनेट की दुनिया की पहली पोर्न कार्टून स्टार सविताभाभी का भारत में काम तमाम हुए करीब एक महीना बीत गया है, लेकिन वर्चुअल दुनिया में हुई इस ‘हत्या’ का बवाल थम नहीं रहा है। सीधे शब्दों में कहें तो भारतीय चरित्रों पर आधारित चर्चित और लोकप्रिय पोर्न कार्टून बेवसाइट सविताभाभी डॉट कॉम पर सरकार की पाबंदी को एक करीब सवा महीना गुजर गया है,लेकिन इसके प्रशंसक अभी हारे नहीं है। इंटरनेट पर ‘सेव सविता प्रोजेक्ट’ चलाया जा रहा है,जहां इस पोर्न कार्टून चरित्र के मुरीद अपने तर्कों के साथ हाजिर हैं और इसे पुनर्जीवित करने के लिए रणनीतियों पर बहस कर रहे हैं। दूसरी तरफ, इंटरनेट पर सेंसरशिप के खिलाफ और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर कई बुद्धिजीवी भी सरकार के इस कदम को गलत करार देकर उसका पुरजोर विरोध कर रहे हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि सविताभाभी डॉट कॉम की लोकप्रियता ने कई रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए थे। पाबंदी से पहले साइट को प्रतिदिन देखने वालों की तादाद 200,000 से ज्यादा थी। वेबसाइट्स के ट्रैफिक नापने वाली प्रमुख कंपनी एलेक्सा पर सविताभाभी डॉट कॉम की रैकिंग टॉप 100 में थी। साल 2008 के मार्च में लॉन्च हुई इस साइट के तीस हजार से ज्यादा सदस्य हैं,जो पाबंदी से पहले तेजी से बढ़ रहे थे। लेकिन,इसमें भी कोई शक नहीं है कि अपनी तरह की इस अनूठी वेबसाइट की लोकप्रियता के साथ इसका विरोध भी जमकर हो रहा था। इस विरोध को निर्णायक शक्ल दी बेंगलुरु के एक मामले ने। पिछले साल अगस्त में बेंगलुरु के एक 11 वर्षीय छात्र ने इस पोर्न स्ट्रिप का एक एमएमएस बनाकर अपनी अध्यापिका को भेज दिया। इस मामले के सामने आने के बाद साफ हो गया कि बच्चों के बीच भी सविताभाभी की पैठ बन चुकी है,लिहाजा कई लोगों ने सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अधीन सरकारी एजेंसी द कंट्रोलर ऑफ सर्टिफाइंग अथॉरिटीज (सीसीए) के पास शिकायत दर्ज करायी। लेकिन,फैसला लेते-लेते सरकार को करीब आठ महीने लग गए और इस साल 3 जून को डिपार्टमेंट ऑफ टेलीकम्यूनिकेशन्स की तरफ से सभी इंटरनेट सेवा प्रदाताओं को आदेश दिया गया कि वो इस साइट को ब्लॉक कर दें।

लेकिन, सवाल ये कि क्या सविताभाभी डॉट कॉम वास्तव में पाठकों की पहुंच में नहीं है ? यह सवाल न केवल अहम है,बल्कि पोर्न कार्टून स्ट्रिप की एक वेबसाइट पर पाबंदी के फैसले से कहीं आगे बहस की गुंजाइश पैदा करता है। दरअसल, सविताभाभी डॉट कॉम को भारत सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया है,लेकिन अमेरिका में रजिस्टर्ड इस साइट को धड़ल्ले से अमेरिका-यूरोप समेत कई देशों में देखा जा सकता है। भारत में भी इस साइट तक ‘प्रॉक्सी सर्वर’ के जरिए आसानी से पहुंचा जा सकता है। गूगल सर्च इंजन के जरिए लोग आसानी से इस प्रॉक्सी सर्वर तक पहुंच सकते हैं। इस साइट की लोकप्रियता अभी भी बहुत कम नहीं हुई है क्योंकि एलेक्सा डॉट कॉम में इसकी रैंकिंग अभी भी शुरुआती 1200 साइटों में है। इतना ही नहीं,पाबंदी का खुलासा होने के बाद सविताभाभी डॉट कॉम से मिलते जुलते नामों से ही करीब 100 से ज्यादा साइट तैयार हो गईं, जिन पर लगभग वही पोर्न सामग्री है।

ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि इस स्थिति में क्या पाबंदी का कोई औचित्य रह गया ?वैसे,,बात सिर्फ सविताभाभी डॉट कॉम की नहीं है। इसके प्रशंसक और विरोधी दोनों के पास अपने अपने तर्क हैं। सवाल है इंटरनेट पर पोर्न साइटों का। अमेरिका की गुड पत्रिका के एक अध्ययन के मुताबिक नेट पर मौजूद कुल साइटों की 12 फीसदी पोर्नोग्राफिक हैं। इतना ही नहीं, 266 पोर्न साइट प्रतिदिन इंटरनेट पर अपना आशियाना सजाती हैं। इंटरनेट पर भारतीय पोर्न साइट्स की संख्या भी 2000 से ज्यादा है और लगातार नयी साइट जन्म ले रही हैं।

निसंदेह दुनिया भर में पोर्न कंटेंट की जबरदस्त मांग है और पोर्न साइट्स का अपना बड़ा बाज़ार है। एशियाई मुल्कों चीन,दक्षिण कोरिया और जापान में पोर्न साइट्स की कमाई 75 बिलियन डॉलर से अधिक है। अमेरिका एशियाई मुल्कों से इस मामले में कुछ पीछे हैं,जहां इंटरनेट पोर्नोग्राफी से करीब 15 बिलियन डॉलर की कमाई होती है। भारतीय संदर्भ में सटीक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है,लेकिन जानकारों के मुताबिक भारतीय पोर्नोग्राफी बाजार तेजी से बढ़ रहा है। इस बात की पुष्टि इस बात से भी होती है कि इंटरनेट पर साल 2006 में 75 मिलियन बार ‘सेक्स’ शब्द खोजा गया और इन उत्सुक उपभोक्ताओं में दूसरे नंबर पर भारत के लोग थे।

इस हकीकत से मुंह मोड़ना संभव नहीं है कि इंटरनेट पोर्नोग्राफी के लाखों-करोड़ों दर्शक हैं। इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि कच्ची उम्र में बच्चों पर इन साइटों का बुरा असर पड़ सकता है। इस तरह के कई मामले लगातार सामने आए हैं। लेकिन,किसी खास साइट पर पाबंदी इसका कोई हल नहीं है। आखिर,सविताभाभी डॉट कॉम पर पाबंदी ने भी इसे पब्लिसिटी ही दी। ये साइट नेट पर उपलब्ध है,लिहाजा पाठकों के लिए इस तक पहुंचने में कोई खास परेशानी भी नहीं है। चिंताजनक बात यह है कि इंटरनेट पर पोर्नोग्राफी समस्या का सिर्फ एक पहलू है। इंटरनेट पर तमाम वेबसाइट्स (भारतीय भी) मसाज वगैरह का खुलेआम विज्ञापन करते हुए वैश्यावृत्ति को बढ़ावा दे रही हैं। कई अश्लील साइटों पर ‘इंडियन ब्यूटी’ के गुणगान के बीच दावा किया जा रहा है ‘दिल्ली-चेन्नई और जालंधर की लड़कियों के प्रामाणिक वीडियो’उपलब्ध हैं। इन पर रोक की कोई ठोस कोशिश नहीं हो रही। दरअसल, इंटरनेट पर पोर्न कंटेंट और इससे जुड़ी समस्या की जड़े गहरी हैं,जिन्हें किसी साइट पर पाबंदी के जरिए नहीं सुलझाया जा सकता। जानकारों के मुताबिक,सभी देश इस समस्या से ग्रस्त हैं। इस बाबत एक वैश्विक समझौते की आवश्यकता है, लेकिन असली दिक्कत ये है कि पोर्न कंटेंट की परिभाषा अलग अलग देशों में अलग है।

इंटरनेट पर अश्लील कंटेंट को रोकने के लिए भारतीय सूचना तकनीक एक्ट-2000 को हाल में कुछ दुरुस्त किया गया। इसी कानून के तहत सरकारी एजेंसी द कंट्रोलर आफ सर्टिफाइंग अथारिटीज को वेबसाइटों को ब्लॉक करने का अधिकार दिया गया। लेकिन, इंटरनेट सेंसरशिप की मुखालफत करने वाले लोगों का मानना है कि सरकार धीरे धीरे मनमर्जी पर उतर सकती है।

दूसरी तरफ, सचाई यह भी है कि सभी पोर्न साइट्स को प्रतिबंधित करना फिलहाल दूर की कौड़ी है। फिर, सिर्फ कानून से ही पोर्न कंटेंट पर रोक लगी होती तो आज दुनिया भर में खरबों डॉलर की पोर्नोग्राफी इंडस्ट्री का अस्तित्व ही नहीं होता। हां,पोर्न साइट्स पर वैश्विक इंटरनेट नीति के बीच जरुरत जागरुकता की भी है। इसके अलावा,सरकार पोर्नोग्राफी के किसी खास पहलू पर ध्यान रखने की कोशिश कर सकती है। साइबर कानून के जानकार पवन दुग्गल कहते हैं-“अमेरिकी सरकार ने भी इंटरनेट पोर्नोग्राफी पर पाबंदी की तमाम कोशिशें की,लेकिन नाकाम रही। अब,वो सिर्फ चाइल्ड पोर्नोग्राफी पर ध्यान केंद्रित किए हैं। इसमें उन्हें सफलता भी मिली है। भारत में भी ऐसा ही होना चाहिए।”

बहरहाल,सविताभाभी डॉट कॉम के बहाने ही सही इंटरनेट पर अश्लील कंटेंट से जुड़ी बहस फिर शुरु हुई है। इस बहस के जरिए अगर किसी निष्कर्ष तक पहुंचा जा सके तो बड़ी कामयाबी मिल सकती है।

(दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में 11 जुलाई को प्रकाशित आलेख)

Sunday, April 12, 2009

कुछ भी लिखो ! कोई देखने वाला नहीं

पत्रकारिता का हाल इन दिनों वास्तव में बहुत बुरा है। जिस पत्रकार को जो सब्जेक्ट नहीं है,उसे उसी सब्जेक्ट में लिखना पड़ रहा है। अब,जिस विषय के बारे में कुछ पता नहीं है,उसके बारे में लिखना पड़े तो अल्ल बल्ल लिख ही जाता है। एक नमूना देखिए-



हिन्दुस्तान के 11 अप्रैल के दिल्ली संस्करण में प्रकाशित इस खबर में जिन पत्रकार महोदय ने खबर लिखी, उन्हें शायद पता नहीं था कि मधुर भंडारकर की 'ट्रैफिक सिगनल' फिल्म को आए एक साल से ज्यादा वक्त बीत चुका है। फिल्म सुपरहिट भले न हो,चर्चित तो थी ही। फिल्म को कई अवार्ड भी मिले। जहां तक मुझे याद है कि नेशनल अवार्ड भी मिला। लेकिन,इसमें सिर्फ गलती इस एक फिल्म को लेकर नहीं है। भंडारकर की फिल्म 'आन-मेन एट वर्क' को आए भी कई साल बीत चुके हैं। अक्षय कुमार,सुनील शेट्टी,शत्रुघ्न सिन्हा अभिनीत यह फिल्म भंडारकर की व्यवसायिक फिल्मों की तरफ मुड़ने की विफल कोशिश थी। लेकिन,हिन्दुस्तान अखबार में आन को अलग और मेन एट वर्क को अलग फिल्म बताया है।

मजे की बात है कि मधुर के बारे में वैसे भी मशहूर है कि वो एक बार में सिर्फ एक फिल्म ही करते हैं। लेकिन,अखबार ने बता दिया कि चार-पाच फिल्में निर्माणाधीन हैं। हां,इस गड़बड़झाले से मधुर खुश हो सकते हैं!

Saturday, April 11, 2009

नयी दुनिया ने ढूंढा राजनाथ सिंह का डुप्लीकेट !

11 अप्रैल का नयी दुनिया दिल्ली संस्करण देखिए। आपको पता चल जाएगा कि डॉ वीरेन्द्र नाथ के रुप में बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह का डुप्लीकेट भी मौजूद है। लीजिए आप भी नयी दुनिया में प्रकाशित एक रिपोर्ट के साथ इस गलती को देखिए।


हां,जिस सज्जन ने यह पेज बनाया और वो राजनाथ सिंह को नहीं पहचानते-ये है तो हैरान करने वाली बात। लेकिन,अगर ऐसा है तो राजनाथ सिंह के लिए ये खतरे की घंटी है...। भइया,जब अखबार वाले ही नहीं पहचान रहे तो क्षेत्र की जनता क्या खाक पहचानेगी।

Tuesday, April 7, 2009

याद आया जनरैल से अपना छोटा सा नाता

दोपहर दो बजे किसी ने मुझसे कहा कि गृहमंत्री चिदंबरम को किसी पत्रकार ने जूता मार दिया तो अचानक मुंह से निकल पड़ा-कौन था पागल पत्रकार? लेकिन,दोपहर बाद टेलीविजन स्क्रीन पर उभार लेती तस्वीरों पर अचानक नज़रें गढ़ी तो दिल धक कर गया। ये तो जनरैल सिंह हैं !

जनरैल सिंह को कई लोग मुझसे कहीं ज्यादा जानते होंगे। लेकिन,जनरैल से मेरा छोटा सा नाता रहा है। टीचर-स्टूडेंट का। 1994 में यूपी बोर्ड से इंटर पास करने के बाद दिल्ली आकर बीए(पास) में एडमिशन लिया तो अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र जैसे विषय पहली क्लासों में सिर के ऊपर से निकल गए। लेकिन, तब जनरैल ने घर आकर राजनीति शास्त्र की चंद क्लास लीं। जनरैल पॉलिटिकल साइंस में मास्टर्स हैं। उन दिनों जनरैल पब्लिक एशिया नाम के एक अखबार में थे,और अपने पुराने स्कूटर पर पहाड़गंज स्थित मोतिया खान के मेरे घर आते थे। सिर्फ मेरे चाचा से अपने संबंधों के चलते।

इन चंद क्लास और उसके बाद की चंद मुलाकातों में जनरैल की छवि हमेशा एक बेहद सुशील और हंसमुख इंसान की रही। मेरे लिए मददगार की भी। उस वक्त,जब जनरैल सिंह को अदद बढ़िया नौकरी की तलाश थी, परेशानियां थी लेकिन तब उन्होंने कभी अपना आपा नहीं खोया। अब वो दैनिक जागरण में सीनियर रिपोर्टर हैं,लेकिन अचानक ?

दरअसल,शांत जनरैल के चिदंबरम पर जूता फेंकने का दृश्य देखने के बाद अचानक सिखों की पीड़ा एक नए अर्थ में सामने आ खड़ी हो रही है। 1984 के दंगों में सिखों का जिस तरह कत्ल-ए-आम हुआ,उसके गुनाहगार आज भी खुलेआम घूम रहे हैं,और इसका दर्द विषबुझे तीर की तरह सिखों के मन में गढ़ा हुआ है।हालांकि,जनरैल की हरकत कतई सही नहीं कही जा सकती,लेकिन इसमें भी कोई दो राय नहीं कि अगर जनरैल को चिदंबरम को जूता मारना ही होता तो अगली कतार में बैठकर ऐसा आसानी से किया जा सकता था। उनका निशाना इतना खराब नहीं होगा!

लेकिन,अब जनरैल क्या करेंगे? क्या चुनाव लड़ेंगे? शिरोमणि अकाली दल ने जनरैल को दिल्ली में टिकट देने का ऐलान किया है(अगर जनरैल चाहें तो)। जनरैल सिखों के नये हीरो बन गए हैं। वेदना में जूतों के आसरे नायकों की उत्पत्ति नया फॉर्मूला है।

Thursday, April 2, 2009

चुनाव आयोग के लिए नया सिरदर्द है मोबाइल कैंपेन

ब्लॉग और सोशल नेटवर्किंग साइट्स के अलावा जिस माध्यम पर सबसे ज्यादा ध्यान दे रही हैं-वो है मोबाइल फोन। इसकी बड़ी वजह है। भारत में करीब 71 करोड़ मतदाता और करीब 38 करोड़ मोबाइल धारक हैं। और तकरीबन 36 करोड़ मोबाइल धारक वोटर हैं। दूसरी तरफ, इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या अभी महज आठ-नौ करोड़ के आसपास है। यानी मोबाइल के जरिए वोटरों को लुभाना आसान है। राजनीतिक पार्टियां और उम्मीदवार अपने अपने संसाधनों के बीच मोबाइल का इस्तेमाल करने में जुट गए हैं। सूत्रों के मुताबिक हाईटेक प्रचार में अग्रणी भारतीय जनता पार्टी डू-नॉट-कॉल रजिस्टरी से बाहर करीब 25 करोड़ मोबाइल धारकों को चुनाव के दौरान एसएमएस भेजेगी। कांग्रेस बीजेपी से भले पीछे रहे,लेकिन करीब 15 से बीस करोड़ उपभोक्ताओं तक वो भी इस माध्यम के जरिए पहुंचने की कोशिश करेगी। बाकी राजनीतिक दलों के अलावा अपने अपने स्तर पर राजनेता भी अपने संसदीय क्षेत्र के वोटरों से मोबाइल फोन के जरिए संवाद स्थापित करेंगे। कर्नाटक, दिल्ली, मुंबई में ये कवायद शुरु हो चुकी है। वोटरों को अंग्रेजी के अलावा अब हिन्दी में भी एसएमएस भेजे जा रहे हैं। उम्मीदवारों की शिक्षा,पिछला रिकॉर्ड और विभिन्न मसलों पर उनके विचार भी एसएमएस के जरिए भेजे जाने की बात कही गई है।तमिलनाडु की एसएमएस समेत अन्य मोबाइल सेवा देने वाली कंपनी एयर टू वेब राजनीतिक वॉयस मैसेज भेजने की तैयारी में है,जिसके तहत आपके क्षेत्र का उम्मीदवार अपनी आवाज में वोट मांगेगा। टेलीकॉम ऑपरेटरों को उम्मीद है कि वो इन चुनावों के दौरान करीब चार अरब एसएमएस भेजेंगे और इससे उनकी करीब 50 करोड़ रुपए की अतिरिक्त आय होगी। लोकल स्तर पर जो एसएमएस भेजे जाएंगे,उसका कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। जानकारों के मुताबिक एक उम्मीदवार 80 लाख से एक करोड़ एसएमएस जरुर भेजेगा क्योंकि इससे कम एसएमएस कैंपेन का कोई अर्थ नहीं है। इस कैंपेन पर 10 पैसे प्रति एसएमएस के हिसाब से उम्मीदवार आठ से दस लाख रुपए कम से कम खर्च करेंगे। दरअसल,इस नए मद में उम्मीदवार और पार्टियां कितना खर्च करेंगी,इसका कोई हिसाब-किताब ही नहीं है। हालांकि,पंजाब के चुनाव आयोग ने साफ किया है कि चुनावी आचार संहिता के मुताबिक उम्मीदवारों को एसएमएस कैंपेन पर किए खर्च का ब्योरा देना होगा,और मतदान के दो दिन पहले एसएमएस कैंपेन बंद करना होगा। हालांकि, टेलीकॉम आपरेटर इस फरमान से खुश नहीं है, लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या एसएमएस पर खर्च की गई राशि का पता लगाया जा सकता है? चुनाव आयोग पहली बार इस नयी समस्या से रुबरु है,और तमाम घुड़कियों के बावजूद उसके पास इस खर्च पर लगाम का कोई सीधा रास्ता नहीं है। ऐसे में,मोबाइल कैंपेन के परवान चढ़ने का इंतजार कीजिए,और अगर आप इस कैंपेन में दिलचस्पी नहीं रखते,तो फौरन अपना मोबाइल नंबर डू-नॉट-कॉल में रजिस्टर्ड कीजिए। ताकि,शायद राजनीतिक एसएमएस के तूफान में आप थोड़ा बच पाएं।

लेफ्ट तुझे क्या हुआ ?
एक ज़माने में कम्प्यूटर की भरसक विरोधी रही लेफ्ट पार्टियां साइबर कैंपेन के दौर में धुआंधार हाईटेक हो ली हैं। न जाने क्यों,लेफ्ट को लग रहा है कि युवाओं को लुभाने का इंटरनेट सबसे उपयोगी माध्यम साबित हो सकता है। यही वजह है कि पहले सीपीएम ने खास चुनावी मकसद से 18 मार्च को वेबसाइट लांच की-वोटडॉटसीपीआईएमडॉटओआरजी। लेकिन,लेफ्ट पार्टियों की अगुआ सीपीएम को लगता है कि हर राज्य के युवा मतदाताओं को लुभाने के लिए अलग वेबसाइट होनी चाहिए। इसीलिए,केरल में लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट यानी सीपीएम,सीपीआई,आरएसपी,केरल कांग्रेस(जोसेफ),जनता दल(लेफ्ट) आदि के उम्मीदवारों के साइबर प्रचार के लिए दो अलग वेबसाइट लॉन्च की गई हैं। एक अंग्रेजी में-एलडीएफडॉटओआरजीडॉटइन और दूसरी मलयालम में वोटफॉरएलडीएफडॉटइन। इन दोनों साइटों पर कांग्रेस और बीजेपी पर जमकर निशाना साधा गया है। कांग्रेस की यूपीए सरकार की नाकामियों को गिनाया गया है,और अपने उम्मीदवारों की तस्वीरों समेत उनके बारे में जानकारी दी गई है। लेकिन,युवा मतदाता क्या सिर्फ सूचना लेने के लिए साइट पर आएंगे। दोनों साइटों पर
'इंटरेक्टिविटी' पर खास ध्यान नहीं दिया है। ऐसे में,ये दोनों साइटें युवा मतदाताओं को कैसे लुभाएगी,ये चुनाव बाद ही पता चलेगा।

ऑनलाइन बनाओ प्रधानमंत्री !
पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश को इराक में जूता क्या पड़ा,इस हादसे पर ऑनलाइन गेम बन गया। फिर,टेलीविजन चैनलों ने दो दिन बताया कि बुश को अभी तक कितने जूते पड़ चुके हैं। खैर,अब बात बुश की नहीं,मनमोहन और आडवाणी की है। वैसे,दोनों नेता खुशकिस्मत हैं कि वर्चुअल दुनिया में उनकी ठुकाई पिटाई नहीं हो रही। ओलंपिक गेम्स की थीम पर यहां नेताओं का कंपटीशन जारी है। ऑनलाइन गेम्स की कुछ साइटों पर इस तरह के राजनीतिक गेम्स शुरु हो चुके हैं,जबकि कुछ जल्द ही अपने गेम लॉन्च करने वाली हैं। पॉलिटिकल ऑनलाइन गेम बनाने वाली एक कंपनी के अधिकारी का कहना है कि ये गेम्स राजनीतिक जागरुकता फैलाने और थकान से राहत देने का काम करते है।खैर,अच्छी बात ये है कि नतीजों के लिए बेचैन लोग ऐसी साइटों पर जाकर गेम खेल सकते हैं,और अच्छा खेले तो अपना प्रधानमंत्री खुद चुन सकते हैं। ऐसी ही एक साइट है-ऑनलाइनरियलगेम्सडॉटकॉम। ये गेम्स फ्री हैं। हां,गेस्ट बनकर खेलने में ज्यादा मजा नहीं आता।

एक एसएमएस :
संटी (बंटी से) - इस बार चुनावों में संघ की ही चलेगी। इंटरनेट पर तो कोई दूसरी पार्टी उसके आसपास नहीं फटक सकती।
बंटी (संटी से)- ऐसा क्यों
? संघ तो चुनाव भी नहीं लड़ती।
संटी (बंटी से)- बेटा,नहीं लडती तो क्या। आरएसएस फीड तो सिर्फ उसी के पास है।

(दैनिक भास्कर का पोल टेक स्तंभ, 2 अप्रैल को प्रकाशित)

Tuesday, March 31, 2009

अब तो बस मज़ा लीजिए ख़बरों के प्रोमों का !

इस लम्हे की अपनी अहमियत थी। टाटा की लखटकिया कार लॉन्च हो रही थी। कार खरीदने का ख्वाब पाली हज़ारों आंखें टेलीविजन के स्क्रीन पर टकटकी लगाए बैठी थीं। आखिर,सूचनाओं के रुप में कई सवालों के जवाब चाहिए थे उन्हें ! कितने की है नैनो ? कैसे होगी नैनो की बुकिंग? कब तक मिलेगी लखटकिया कार,और कितनों को मिलेगी वगैरह वगैरह। दिलचस्प ये कि नैनो की इस लॉचिंग को भी कुछ न्यूज चैनलों ने सनसनीख़ेज बना दिया। यकीं नहीं होता तो गौर फरमाइए। "इतने करीब से नहीं देखी होगी आपने नैनो। हम बताएंगे आपको नैनो का एक-एक राज़।" फिर,कुछ इसी तरह की लाइनें नैनो की ख़बर से जुड़े प्रोमो में भी दिखायी दी।

लेकिन बात सिर्फ इस इकलौती ख़बर की नहीं है। बात नैनो की भी नहीं है। बात है प्रोमो की। न्यूज़ चैनलों पर नैनो के प्रोमो ने एक बात साफ कर दी कि अब सॉफ्ट न्यूज़ भी दमदार वॉयस ओवर में लपेटकर, सनसनीखेज बनाकर बेचने का ट्रेंड शुरु हो चुका है। टीआरपी पाने की रेस में न्यूज चैनलों की ग्रामर लगातार बदल रही है। सॉफ्ट ख़बर का हार्ड प्रोमो इससे जुड़ती नयी कड़ी है। बिग बॉस के घर में कंटेस्टेंट खेल खेल में भूत बनते हैं,और एक दूसरे को डराते हैं,तो इसका प्रोमो भी रहस्य और सनसनी के आवरण में बुना जाता है-"बिग बॉस के घर में किसका साया, ये कोई भूत है या प्रेतात्मा,संभावना सेठ ने किसको देखा,राजा चौधरी किस साए को देखकर बुरी तरह डर गए"।

वैसे प्रोमो लिखना हमेशा से आर्ट माना जाता है। प्रोग्राम का प्रोमो देखकर ही कई बार दर्शक फैसला करता है कि उसे देखा जाए या नहीं। लेकिन,हर एक प्वाइंट टीआरपी के लिए मारामारी मचाने पर उतारु न्यूज चैनल में अब इस आर्ट ने सनसनीखेज शब्दों को जोड़कर अल्ल-बल्ल प्रोमो लिखने लगे हैं। मसलन-मौत के फरिश्तों की उन्होंने की खिदमत,वो धरती पर बन गए यमराज के कॉन्ट्रैक्टर। दुनिया के सबसे बड़े कातिल को देखिए रात.....। इसी तरह, "तीन सिरों वाला एक जहरीला सांप, जो एक जमाने से सोया हुआ था। जाग गया है...वो बढ़ रहा है कि वादी ए कश्मीर की तरफ..क्या होगा अंजाम।" एक और उदाहरण देखिए-"एक स्कूल…जहां बाथरूम जाते ही…लडकियां हो जाती है…बेहोश…क्या है बाथरूम का राज?"

ऐसे प्रोमो की लंबी लिस्ट है,और अब ये सामान्य हैं। सी ग्रेड फिल्म के डालयॉग की तरह प्रोमो की भाषा में वो शब्द और वाक्य इस्तेमाल होने लगे हैं, मानो दर्शक को पीटकर, जबरदस्ती कॉलर पकड़कर या ब्लैकमेल कर प्रोग्राम देखना ही होगा। दिलचस्प है कि कुछ वाक्य तो लगातार इस्तेमाल होते हैं। मसलन- आंखें बंद मत कीजिए, वर्ना ये जिंदगी में दोबारा नहीं देख पाएंगे। कान बंद मत कीजिए, नहीं तो ये चीजें फिर कभी नहीं सुन पाएंगे। अगर आपके घर में मां है, बहन है, बेटी है, बहू है तो ये खबर आपके लिए बेहद जरूरी है। इस बार नहीं देखा, तो फिर कभी नहीं देख पाएंगे। देश की सबसे बड़ी मर्डर मिस्ट्री है ये। दुनिया का सबसे खौफनाक कातिल। दुनिया का सबसे घिनौना शख्स है ये। सिहर जाएंगे आप। दहल जाएंगे आप..वगैरह वगैरह।

न्यूज़ चैनलों की एक हद तक मजबूरी भी है कि उन्हें दर्शकों को हर हाल में टीवी स्क्रीन से चिपकाए रखना है,जिसके लिए उन्हें हर हथकंडा अपनाना पड़ता है। लेकिन, हर प्रोमो को सनसनीखेज बनाकर दर्शक को रोके रखने के चक्कर में कई बार संवेदनशील और बेहतरीन खबर भी हल्के से ले ली जाती हैं। यहीं चैनलों की 'क्रेडेबिलिटी' को झटका लगता है। दर्शक धीरे धीरे इन प्रोमो को देखकर मज़ा लेने लगे हैं। प्रोमो की भाषा और अंदाज अब उन्हें गुदगुदाने लगा है। वो इस बात से वाकिफ हैं कि 'दुनिया का सबसे बड़ा रहस्य' किसी आश्रम के ढोंगी बाबा की ख़बर हो सकती है या 'देखिए दुनिया के सबसे खतरनाक रास्ते' ऐलान करता प्रोमो दिल्ली के द्वारिका इलाके के फ्लाईओवर की खबर हो सकती है,जहां ज्यादा एक्सीडेंट हो रहे हैं।
प्रोमो का फसाना हकीकत की जम़ी पर दम तोड़ देता है। तकरीबन हर बार। लेकिन,न्यूज़ चैनलों की बदलती ग्रामर के आइने में यह एक्सपेरीमेंट भी चल निकला है। दर्शकों को फंसा लेने वाले प्रोमो लिखना ही कॉपी राइटर की काबलियत मानी जा रही है। फिलहाल,इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता कि प्रोमो दर्शक को गुदगुदा रहे हैं या हंसा रहे हैं। टीआरपी आनी चाहिए बस...।

(दैनिक जागरण समूह के अखबार आई-नेक्स्ट में 31 मार्च को संपादकीय पेज पर प्रकाशित लेख)

Monday, March 30, 2009

विरोध में दिग्विजय का हाईटेक बयान!

बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लाल कृष्ण आडवाणी इन दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की तर्ज पर चुनावी मैदान में हैं। उनका साइबर कैंपेन धुआंधार चल ही रहा था कि उन्होंने अमेरिकी तर्ज पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को सार्वजनिक मंच पर बहस की चुनौती दे डाली।

सार्वजनिक अखाड़े में बहस की चुनौती से कांग्रेस भौचक रह गई। पार्टी प्रवक्ता आनंद शर्मा ने कहा कि भारत की संसदीय राजनीति में इस तरह की बहस की कोई जगह नहीं है, और आडवाणी लोकसभा चुनाव को भी अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव बनाना चाहते हैं।

अब,अपना न तो आडवाणी जी कोई याराना है,न कांग्रेस से कोई दुश्मनी। लेकिन,इस मुद्दे और इस मुद्दे के बाद कांग्रेसी नेताओं की तरफ से आई प्रतिक्रिया से कुछ बातें जरुर जेहन में आ गईं हैं।

पहली,सार्वजनिक मंच पर बहस में बुराई क्या है? न्यूज चैनलों से राजनीतिक समाचार खासकर ठोस राजनीतिक समाचार नदारद हो रहे हैं। सभी इसके लिए रो पीट रहे हैं। कांग्रेस सरकार भी यह दुखड़ा रो चुकी है कि न्यूज चैनल पर समाचार नहीं दिखाए जाते। ऐसे में,सार्वजनिक बहस टीआरपी बढ़ाने का हिट फॉर्मूला साबित हो सकता है। यानी सब खुश चैनल भी और नेता भी।

दूसरी,इस बहस में जो मुद्दे उठेंगे,उससे जनता को भी पता चलेगा कि वरुण गांधी से इतर भी देश में कई मसले हैं,जिन पर बात होनी चाहिए।

खैर,इस पोस्ट को लिखने का विचार मन में आया था-दिग्विजय सिंह का बयान देखकर। उन्होंने आडवाणी की बहस की चुनौती के जवाब में कहा- आडवाणी को देखिए। उन्हें लगता है कि वो भारत में ओबामा बन सकते हैं। उनकी वेबसाइट पर समर्थकों की संख्या को देखिए....जो 3100 से ज्यादा नहीं है।

अब,दिग्गी राजा का ये बयान अपने गले नहीं उतरा। दरअसल,बात आडवाणी की चुनौती या कांग्रेस के उसे स्वीकार करने की नहीं है। इस चुनौती में भी आडवाणी जी राजनीति कर रहे हैं,इसमें संदेह नहीं है। लेकिन,सवाल इस चुनौती के जवाब में दिए बचकाना बयान की है। अब,बहस की बात का आडवाणी की साइट से क्या लेना देना। और अगर लेना देना है तो दिग्विजय सिंह जी को पहले अपनी पार्टी की अधिकारिट साइट देखनी चाहिए थी।

नमूने के लिए-इंटरनेट पर ट्रैफिक मापने वाली साइट एलेक्सा के मुताबिक आडवाणी की साइट lkadvani.in की रैकिंग 9,717 के करीब है,जबकि कांग्रेस की अधिकारिक वेबसाइट aicc.org.in की रैंकिंग 1,44,000 से भी ज्यादा है। इस रैंकिंग से हिसाब लगाया जा सकता है कि किस साइट के कितने पाठक हैं।

ये अलग बात है कि आडवाणी ने साइबर कैंपेन ने करोड़ों रुपए खर्च किए हैं,जबकि कांग्रेस ने नहीं। लेकिन,ऐसा भी नहीं है कि कांग्रेस साइबर कैंपेन बिलकुल न कर रही हो। यानी दौड़ में वो पिछड़ी है।

दरअसल,बात ज़रा सी है। हमारे यहां नेताओं को हर मसले पर बोलने की आदत है। और बाइट लेने गए पत्रकारों से वो किसी भी मसले पर बात कर सकते हैं। सो दिग्विजय सिंह भी कर बैठे आडवाणी की बहस की तुलना आडवाणी की साइट से।
क्या आपको लगता है कि इन दोनों के बीच है कुछ लेना देना?

Sunday, March 29, 2009

पवार का विवादास्पद भाषण यूट्यूब पर क्यों नहीं?

नेशलिस्ट कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार ने रविवार को किसी भाषण सभा में मालेगांव ब्लास्ट का मसला उठाया। उनका बयान 'न्यूज चैनल' आजतक ने दिखाया,तो मन में इच्छा हुई कि सुना जाए कि पूरा बयान क्या है। शरद पवार के इस बयान को सुनने के लिए यूट्यूब का दरवाजा खटखटाया,लेकिन रात 11.15 तक यह वीडियो उपलब्ध नहीं था। कम से कम मुझे नहीं दिखायी दिया।

दरअसल, शरद पवार का बयान हिला देने वाला है,और देखना ये है कि अब राजनीतिक हलको में इस पर क्या प्रतिक्रिया होती है। शरद पवार ने कहा उन्हें यकीं था कि मालेगांव मस्जिद ब्लास्ट में किसी मुसलमान का हाथ नहीं हो सकता क्योंकि कोई हिन्दू मंदिर में,कोई मुसलमान मस्जिद में,कोई सिख स्वर्ण मंदिर में और कोई क्रिश्चन गिरजाघर में बम ब्लास्ट करने की सोच ही नहीं सकता। पवार ने आगे कहा कि मालेगांव ब्लास्ट के आरोपी पकड़े गए तो साफ हो गया कि किसने हमले किए थे। गौरतलब है कि कर्नल पुरोहित,साध्वी प्रज्ञा समेत दस से ज्यादा लोगों को मालेगांव विस्फोट मामले में गिरफ्तार किया गया है। यानी पवार का इशारा साफ था कि मालेगांव विस्फोट में हिन्दू आतंकवादियों का हाथ है। लेकिन,पवार ने इससे आगे जाकर जो कहा-वो निश्चित तौर पर आपत्तिजनक है। पवार ने कहा कि मालेगांव ब्लास्ट में इन आरोपियों के पकड़े जाने के बाद देश में कहीं कोई बम ब्लास्ट नहीं हुआ।

अब,सवाल ये कि इस बयान का क्या मतलब है? पवार शायद अल्पसंख्यक वर्ग को रिझाने के चक्कर में कुछ ज्यादा बोल गए। लेकिन,वो भूल गए कि साध्वी प्रज्ञा को अक्टूबर में गिरफ्तार किया गया था। उसके चंद दिन के भीतर ही कर्नल पुरोहित समेत दस लोगों को गिरफ्तार किया गया,जिन्हें नासिक अदालत में पेश किया गया था। लेकिन,इन सभी की गिरफ्तारी के बाद मुंबई में 26 नवंबर को हमला हुआ। ऐसा हमला,जिसके बारे में हम कभी सोच नहीं सकते थे। ये साबित हो चुका है कि इस हमले में शामिल सभी आतंकवादी पाकिस्तानी थे। पकड़ा गया आतंकवादी का नाम तो मोहम्मद कसाब ही है। और इस हमले में 34 से ज्यादा मुस्लिम मारे गए। यानी मुसलमान आतंकवादियों ने मुसलमानों को निशाना बनाया। फिर,अगर कोई मुस्लिम आतंकवादी मुसलमानों को निशाना नहीं बना सकता तो पाकिस्तान में रोजाना बम विस्फोट होते ही नहीं।

दरअसल,अल्पसंख्यकों को रिझाने के चक्कर में आतंकवाद को धर्म के आवरण में लपेटा जा रहा है,जो घातक है। आतंकवादी कसाब हो या प्रज्ञा-कानूनन सजा मिलनी चाहिए और सख्त से सख्त सजा मिलनी चाहिए।

खैर,बात शुरु हुई थी कि यूट्यूब पर पवार के वीडियो की गैरमौजूदगी से। आखिर,जितना अंश चैनल ने दिखाया,उससे पवार का बयान बेहद आपत्तिजनक है। काश,खुद को प्रोग्रेसिव और मॉर्डन बताने वाली पवार की एनसीपी इस भाषण को यूट्यूब पर भी फौरन डाल देती,तो मुमकिन है कि इतनी कलम घिसनी नहीं पड़ती।

कभी कभी गुस्सा आता है जी......

Thursday, March 26, 2009

इस लड़ाई में जीतेगा कोई नहीं !

आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाइएसआर रेड्डी ब्लॉगर बन गए हैं। आंध्र प्रदेश में कांग्रेस को जीताने की मुहिम के तहत पार्टी ने वोटकॉन्गडॉटकॉम साइट लांच की है। इस साइट पर मुख्यमंत्री का ब्लॉग भी है। ब्लॉग इंग्लिश में है,और मुख्यमंत्री ने अभी तक जमकर तेलुगुदेशम पार्टी पर निशाना साधा है। लेकिन,सवाल ब्लॉग के कंटेंट का नहीं,लांचिंग के वक्त का है। रेड्डी साहब की पहली पोस्ट की तारीख बीस मार्च दर्ज है। आखिर,अचानक वाइएसआर को क्या लगा कि वो ब्लॉगर हो लिए? उन्होंने ब्लॉग लिखना उस वक्त शुरु किया है, जब विधानसभा चुनाव में एक महीने से भी कम वक्त रह गया है।

भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी यानी सीपीएम ने भी इसी 18 मार्च को चुनाव के लिए अपनी खास वेबसाइट लांच की है-वोटसीपीआईएमडॉटओआरजी। लोकसभा चुनाव के लिए मतदान के पहले चरण में एक महीने से भी कम वक्त रह गया है,तब पार्टी को साइबर कैंपेन के जरिए युवाओं को आकर्षित करने की योजना याद आई। कांग्रेस के भी अपनी पार्टी साइट का 'लुक-फील' बदलने की चर्चा है। शाहनवाज हुसैन और मुरली मनोहर जोशी जैसे कई राजनेताओं ने भी हाल में अपनी निजी वेबसाइट और ब्लॉग लांच किए हैं।

दरअसल,सवाल यही है कि साइबर कैंपेन अचानक क्यों? पार्टियां अगर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के साइबर कैंपेन से उत्साहित हैं,तो उन्हें ये भी पता होना चाहिए कि ओबामा ने अपनी साइट 2004 में रजिस्टर्ड करा ली थी। वो 2007 में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बने तो एक पखवाड़े के भीतर उनकी कैंपेन साइट 'बराकओबामाडॉटकॉम' पूरी तरह तैयार थी। लेकिन, हमारे यहां राजनेता उस वक्त साइबर कैंपेन को तरजीह दे रहे हैं,जब मतदान में चंद दिन ही बाकी रह गए हैं। जानकारों के मुताबिक,साइट अथवा ब्लॉग के प्रचार का सबसे बड़ा जरिया सर्च इंजन हैं,लेकिन सर्च इंजन में उन्हें कायदे से रजिस्टर होने में ही दो-तीन महीने लग जाते हैं। सीपीएम की नयी साइट का ही उदाहरण लें। गूगल सर्चइंजन पर की वर्ड 'सीपीएम वेबसाइट' सर्च करने पर पार्टी की नयी साइट पहले बीस नतीजों में नहीं आती।

इस जल्दबाजी में साइट या ब्लॉग पर उन जरुरी सावधानियों की तरफ भी ध्यान नहीं दिया गया,जो पाठकों को बांध सकती हैं। मसलन रेड्डी के ब्लॉग पर न पोस्ट को सब्सक्राइब करने की सुविधा नहीं है। यानी पाठक को रेड्डी साहब का ब्लॉग पढ़ना है तो हर रोज़ ब्लॉग पर आकर देखना होगा कि क्या रेड्डी साहब ने कुछ नया लिखा है। सीपीएम की साइट पर डोनेशन का लिंक है,लेकिन यहां चंदा चेक और ड्राफ्ट से मांगा जा रहा है। मुमकिन है कि ये कदम योजनागत हो लेकिन सवाल ये कि क्या वर्चुअल दुनिया के दानदाता चेक-ड्राफ्ट से भुगतान करेंगे? शाहनवाज हुसैन की साइट पर ब्लॉग का लिंक है, जो अभी तक सक्रिय नहीं हो पाया है। इस कड़ी में लालकृष्ण आडवाणी के साइबर कैंपेन को नहीं रखा जा सकता,क्योंकि इस कैंपेन का बजट करोड़ों में है। लेकिन, साइबर कैंपेन के जरिए सफलता खोज रहे बाकी नेता जल्दबाजी में उस लाभ से भी वंचित हैं,जो उन्हें मिलना चाहिए। इसका सीधा अर्थ ये है कि साइबर दुनिया में नेता लड़ाई कितनी भी लड़े-जीत किसी की नहीं होनी है।

यूट्यूब कैंपेन क्यों नहीं?वीडियो शेयरिंग साइट यूट्यूब पर 'मनमोहन सिंह' सर्च करते वक्त अचानक एक वीडियो "नाना पाटेकर-प्रधानमंत्री की फोन बातचीत" आपकी आंखों के सामने से गुजरता है,तो आप देखे बिना नहीं रह पाते। लेकिन,इस क्लिप को चलाते ही आपको समझ आता है कि ये किसी शरारती शख्स की करतूत है। फिर,जेहन में ये सवाल भी आता है कि अभी तक किसी ने(कांग्रेसियों समेत) इस क्लिप के खिलाफ शिकायत क्यों नहीं दर्ज करायी? इस क्लिप में कोई टेलीफोन बातचीत नहीं,बल्कि फर्जी मनगढंत ओछी मिमिक्री है।

इस तरह के मामलों को छोड़ दें तो यूट्यूब पर कई दिलचस्प वीडियो देखने को मिलते हैं। इनमें तेलुगु भाषा में कई राजनीतिक एनिमेशन हैं,जिनमें नरेंद्र मोदी से लेकर राहुल गांधी अपनी अपनी धुनों पर थिरकते दिखते हैं। एक वीडियो में राहुल गांधी के आईक्यू पर सवाल उठाया गया है। अब,अगर इस क्लिप के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गई है,तो राहुल का गुजरात को यूनाइटेड किंगडम और भारत को अमेरिका व यूनाइटेड किंगडम से बड़ा बताने की बाइट चौंकाती जरुर है।

यूट्यूब पर लालकृष्ण आडवाणी का अलग चैनल है,तो राहुल गांधी के एक प्रशसंक ने 'राहुलगांधीडॉटटीवी' खोल रखा है,जिस पर उनसे जुड़े कई वीडियो हैं। लेकिन,यूट्यूब पर राहुल गांधी,लाल कृष्ण आडवाणी,मनमोहन सिंह,मायावती,राजनाथ सिंह,देवगौड़ा सर्च करने पर एक बात साफ हो जाती है कि चुनावी मौसम में इस माध्यम का इस्तेमाल सिर्फ चलताऊ वीडियो अपलोड करने के लिए किया जा रहा है। युवाओं का पसंदीदा माध्यम यूट्यूब एक अलग किस्म के कैंपेन की मांग करता है,जहां रैलियों,उबाऊ भाषणों,प्रेस कॉन्फ्रेंस और न्यूज चैनलों के पैकेज से इतर दिलचस्प तरीके से बात कही गई हो,लेकिन फिलहाल यहां ऐसा नहीं दिखता।

छोटे खिलाड़ी भी मैदान में : वाइएसआर रेड्डी,मुरली मनोहर जोशी,लालकृष्ण आडवाणी और संजय निरुपम जैसे दिग्गज ब्लॉगरों की देखा-देखी ब्लॉगिंग के खेल में छोटे राजनीतिक खिलाड़ी भी उतर आए हैं। आरा से बीएसपी उम्मीदवार रीता सिंह ने 'रीतासिंहबीएपीडॉटब्लॉगस्पॉटडॉटकॉम' शुरु किया है। बहनजी की तस्वीरों से पटे पड़े इस ब्लॉग पर रीता के भाषणों को पोस्ट में डाला गया है।मतलब रीता जी के पास खुद वक्त नहीं है लिखने का। ब्लॉग पर उनकी सभाओं और रैलियों की सूचना है ताकि वहां भारी भीड़ जुट सके। ये अलग बात है कि हर पोस्ट पर 'शून्य और एक' कमेंट बताता है कि ब्लॉग पर अभी भीड़ नहीं जुट रही।

एक एसएमएस :

संटी(बंटी से)-अगर ओबामा नहीं होते तो क्या होता?
बंटी(संटी से)-क्या होता,आडवाणी जी और उनकी पार्टी के करोड़ों रुपए फूंकने से बच जाते।
(दैनिक भास्कर में प्रकाशित पोल-टेक स्तंभ, 26 मार्च को प्रकाशित )

Friday, March 20, 2009

साइट के ऑनलाइन प्रचार से शादी के विज्ञापन तक !

इन दिनों तकरीबन हर वेबसाइट पर बीजेपी नेता लाल कृष्ण आडवाणी की साइट का विज्ञापन चस्पां है। समाचार, खेल, ज्योतिष, प्रॉपर्टी जैसी तमाम अलग विषयों की साइटों से लेकर पाकिस्तानी अखबार डॉन और ब्रिटिश अखबार गार्जियन की वेबसाइट पर भी उनकी साइट का विज्ञापन दिख रहा है। बीजेपी ने इस बात का खुलासा नहीं किया है कि इस साइबर कैंपेन का बजट कितना है, लेकिन जानकारों का मानना है कि पूरे कैंपेन में 100 करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च किए गए हैं। वजह-विज्ञापन हजारों साइटों पर दिख रहा है। गूगल के जरिए दिए गए इन विज्ञापनों को उन साइटों पर भी दिया गया है,जिनका राजनीतिक खबरों से दूर दूर तक वास्ता नहीं है। जानकारों की मानें तो इस तरह विज्ञापन देने में बीजेपी को सामान्य विज्ञापनों से तिगुना खर्च करना पड़ा होगा। लेकिन, बात सिर्फ साइबर कैंपेन के तहत साइट के धुआंधार विज्ञापनों की नहीं है। ओबामा की तर्ज पर साइबर कैंपेन करने उतरे आडवाणी जी सोशल नेटवर्किंग साइट पर खास सक्रिय नहीं है। फेसबुक और ऑर्कुट जैसी साइटों पर उनके समर्थकों की संख्या महज 1000 के आसपास है,जबकि फेसबुक पर ओबामा के समर्थकों की तादाद सात लाख से ज्यादा थी। आडवाणी जी का हिन्दी ब्लॉग बिलकुल उपेक्षित है। हिन्दी में लिखी पोस्ट पर कमेंट इक्का दुक्का हैं,और इसका अलग से कोई खास प्रचार नहीं दिखता। यू ट्यूब पर ज्यादातर वीडियो रैलियों और भाषणों से जुड़े हैं। बताया गया है कि साइट के जरिए 6000 स्वयंसेवक जुड़ चुके हैं,जबकि साइट पर बने फोरम के 7000 से ज्यादा सदस्य हैं। साइट को एक लाख पेज व्यू भी रोज़ाना मिल रहे हैं। बावजूद इसके, सवाल यही है कि देश के नौजवानों को केंद्रित कर शुरु किए गए इस साइबर कैंपेन से क्या वोट हासिल किए जा सकते हैं ? देश में कुल युवा मतदाताओं की संख्या करीब 21 करोड़ है,जबकि भारत में नेट उपयोक्ता अभी आठ करोड़ के आसपास हैं। इनमें सक्रिय नेट उपयोक्ताओं की तादाद लगभग आधी है। इनमें बड़ी तादाद 18 साल से कम उम्र के बच्चों की है। सूचना तकनीक उद्योग से जुड़े युवा अमूमन अपने गृह प्रदेश से दूर रह रहे हैं। फिर,साइबर कैंपेन भर से युवाओं का वोट अपने पक्ष में करना क्या आसान है ? जानकारों की मानें तो साइबर कैंपेन के जरिए पार्टी सिर्फ आडवाणी जी की ब्रांडिंग कर रही है। 81 साल की उम्र में भी आडवाणी ऐसे युवा नेता के रुप में अपनी ब्रांडिंग कर रहे हैं, जो उनके अंदाज,उनकी भाषा और उनकी जरुरत समझता है। साइबर कैंपेन के जरिए उनकी जबरदस्त ब्रांडिंग हो रही है,इसमें दो राय नहीं। लेकिन, युवाओं को लुभाने के चक्कर में आडवाणी जी का ये दांव कहीं उल्टा न पड़ जाए क्योंकि हर साइट पर आडवाणी जी का फोटू देखकर नयी पीढ़ी कहीं बिदक न जाएं। आखिर, अति सबकी बुरी होती है जी !

हमऊं करयें साइबर कैंपेन :

साइबर कैंपेन के दौर में समाजवादी पार्टी कैसे पीछे रहती। इंटरनेट पर पार्टी की अधिकारिक वेबसाइट के रुप में दर्ज है-समाजवादीपार्टीइंडियाडॉटकॉम। वेबसाइट पर पार्टी के नाम के नीचे लिखा है-वेलकम टू ऑफिशियल साइट ऑफ समाजवादी पार्टी। साइट पर लिखा है- “समय बदलता है, तकनीक बदलती है। समाजवादी पार्टी बदलती तकनीक के साथ कदमताल करने में यकीन करती है। “ अब,पार्टी ने साइट तो बना दी,लेकिन इस साइट के जरिए साइबर कैंपेन मुमकिन नहीं दिखता। साइट का लुक-फील बेहद साधारण है। साइट पर ब्लॉग का लिंक है, लेकिन इस साल इस ब्लॉग पर एक भी पोस्ट नहीं लिखी गई। फिर,ब्लॉग पर जाने के बाद मुख्य साइट पर जाने का कोई लिंक नहीं है। समाजवादी पार्टी की जड़े उत्तर प्रदेश में हैं,लेकिन साइट की भाषा हिन्दी नहीं अंग्रेजी है। पार्टी के समर्थक अंग्रेजी भाषी कब से हो गए-ये अपने आप में सवाल है। मज़ेदार बात ये कि इस वेबसाइट पर पार्टी शादी के उत्सुक नौजवानों का ध्यान भी रख रही है, और जमीन-जायदाद खरीदने के इच्छुक लोगों का भी। यानी वैवाहिक साइट का विज्ञापन भी यहां है और प्रॉपटी की खरीद-बिक्री से जुड़ा विज्ञापन भी। साइट पर ‘डोनेशन’ का कोई लिंक नहीं है,अलबत्ता इन विज्ञापनों से पार्टी को कितनी कमाई होगी-ये देखने वाली बात है।

चुनाव में गूगल की बल्ले बल्ले :

चुनाव में कोई जीते-कोई हारे,गूगल की बल्ले बल्ले है। एक रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनाव के दौरान बराक ओबामा ने अपनी ऑनलाइन एडवरटाइजिंग का 82 फीसदी गूगल विज्ञापनों पर खर्च किया। साल 2008 के पहले चार महीनों में ये रकम 30 लाख डॉलर से ज्यादा थी। इसी तरह, विपक्षी जॉन मैक्गेन ने भी गूगल विज्ञापन पर लाखों डॉलर खर्च किए। अब,भारत में चुनाव के दौरान गूगल को 100 करोड़ रुपए से ज्यादा आय होने की संभावना जताई जा रही है। आडवाणी के महा साइबर कैंपेन के अलावा छोटी छोटी तमाम पार्टियां अपने अपने स्तर पर प्रचार कर रही हैं। ऐसे में,गूगल को बैठे बैठाए करोड़ों रुपए की आय हो रही है। जानकारों के मुताबिक अगर साइबर कैंपेन का फंडा हिट रहा तो विधानसभा चुनावों और स्थानीय चुनावों के दौरान भी गूगल को विज्ञापन मिलना तय है।

एक एसएमएस:

आडवाणी के साइबर कैंपेन से परेशान दूसरी राजनीतिक पार्टियों का बीजेपी को एक छोटा एसएमएस ज्ञापन -“जनाब,आडवाणी जी की साइट का विज्ञापन डॉन,गार्जियन,वाशिंगटन पोस्ट के अलावा अब हमारी पार्टियों की साइट पर भी आने लगा है। राजनीतिक सद्भावना के तहत इन विज्ञापनों को कम से कम हमारी पार्टियों की साइट से तो हटवा लीजिए....। हम लोग आपके आभारी रहेंगे ”

(दैनिक भास्कर में प्रकाशित 'पोल टेक' स्तंभ)

Thursday, March 19, 2009

सिर्फ साइबर कैंपेन की सोच काफी नहीं

बीजेपी के दिग्गज नेता डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी को पिछले आम चुनाव में इलाहाबाद से 2,05,625 वोट मिले थे, लेकिन उनके ब्लॉग पर लिखी पिछली सात पोस्ट में उन्हें केवल पांच टिप्पणियां मिली हैं। साइबर कैंपेन के मामले में सभी भारतीय राजनेताओं को पटखनी दे चुके लाल कृष्ण आडवाणी के हिन्दी ब्लॉग का हाल भी खासा बुरा है। उनके हिन्दी ब्लॉग पर छह पोस्ट में 11 मार्च तक केवल 9 कमेंट ही दर्ज हुए। कांग्रेस के नेता संजय निरुपम का ब्लॉग इस मामले में थोड़ा बेहतर है। निरुपम के ब्लॉग पर लिखी पिछली सात पोस्ट पर करीब 40 टिप्पणियां आयी हैं। इन टिप्पणियों के आइने में झांके तो तेज तर्रार नेताओं के ये ब्लॉग फ्लाप साबित होते हैं। सवाल ये है कि क्या वास्तव में लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, संजय निरुपम और इन जैसे नामी नेताओं के ब्लॉग के पाठक नहीं है? क्या इन राजनेताओं की साइबर जगत में उपस्थिति बेमानी है?

सवाल अहम हैं क्योंकि रैलियों में हज़ारों की भीड़ जुटाने वाले राजनेताओं को ब्लॉग पर यदि चार-छह टिप्पणियां भी नसीब नहीं हो रही हैं, तो साइबर कैंपेन का क्या अर्थ है ? हालांकि, ये मानना भी बेहद मुश्किल है कि कद्दावर नेताओं को इंटरनेट पर मुठ्ठी भर लोग भी पढ़ना-देखना नहीं चाहते। दरअसल, इंटरनेट पर इन दिग्गज नेताओं की बेहद सीमित लोकप्रियता का मामला कुछ हद तक अल्प तकनीकी समझ का परिणाम दिखती है। राजनीतिक ज़मीन से वर्चुअल दुनिया में प्रवेश करते ही एक गड़बड़झाला यह होता है कि यहां सिर्फ नाम से काम नहीं चलता। यहां सभी को अपनी उपस्थिति के बारे में प्रचार करना पड़ता है। इस प्रचार के लिए तमाम तकनीकी हथकंड़े अपनाने पड़ते हैं। इनमें दूसरी साइट अथवा ब्लॉग पर लिंक देने से लेकर एग्रीगेटर में ब्लॉग दर्ज कराने और मास ई-मेलिंग तक कई उपाय शामिल हैं।

वैसे भी ब्लॉग या साइट बना लेना मुश्किल काम नहीं है। मुश्किल है उसे प्रचारित करना। हिन्दी में ब्लॉग की शुरुआती लोकप्रियता एग्रीगेटर के जरिए हासिल की जा सकती है। लेकिन, अव्वल तो ज्यादातर राजनेताओं के ब्लॉग अंग्रेजी में हैं। आडवाणी जैसे नेताओं के ब्लॉग हिन्दी में भी हैं,तो वो एग्रीगेटर पर दर्ज नहीं हैं। आडवाणी का हिन्दी ब्लॉग उपेक्षित इतना कि हिन्दी साइट पर दिए ब्लॉग के लिंक पर क्लिक करने पर पहले अंग्रेजी ब्लॉग खुलता है। दूसरी तरफ, इंग्लिश ब्लॉग को भी शुरुआती पहचान दिलाने के लिए ब्लॉग डायरेक्टरी, डिग और स्टंबल अपोन जैसी सेवाओं की मदद ली जा सकती है। लेकिन, तमाम राजनीतिक हस्तियां ऐसा कर रही हैं-ऐसा लगता नहीं है।

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की तर्ज पर इंटरनेट के रथ पर सवार होकर जीत का एक सिरा पकड़ने की कोशिश में जुटे भारतीय पार्टियों और नेताओं को तकनीक के व्यवहारिक इस्तेमाल में काफी कवायद करने की आवश्यकता है। ओबामा ने सोशल नेटवर्किंग साइट्स के जरिए बड़ी तादाद में युवाओं को साथ जोड़ा। अमेरिकी चुनाव से पहले अक्टूबर में उनके फेसबुक समर्थकों की संख्या बीस लाख से ज्यादा थी। भारत में सभी नेताओं के सोशल नेटवर्किंग साइट्स समर्थकों की तादाद मिला भी दें तो भी दस हजार से ज्यादा नहीं होगी। ओबामा की समर्थकों की भारी फौज उनके संवाद स्थापित करने की निजी कोशिशों का परिणाम थीं।

इधर,भारत में साइबर कैंपेन की धुन तो राजनेताओं और पार्टियों पर सवार है,लेकिन तकनीकी त्रुटियों को लेकर वो ज्यादा गंभीर नहीं दिखते। मसलन,कांग्रेस पार्टी की आधिकारिक वेबसाइट का हिन्दी सेक्शन यूनिकोड में नहीं है। यानी हिन्दी साइट खुलते ही फॉन्ट डाउनलोड करने का विकल्प सामने आता है,और बिना फॉन्ट डाउनलोड किए साइट खोलने पर सारा पाठ्य गड़बड़ दिखायी देता है। कांग्रेस ने साइबर कैंपेन के लिए ‘वोटफॉरकांग्रेसडॉटइन’ साइट लांच की है,लेकिन 11 मार्च तक यह साइट एक्टिव नहीं थी। इसी तरह, शाहनवाज हुसैन की साइट पर ब्लॉग का लिंक है,लेकिन एक्टिव नहीं है। सवाल है कि क्या कोई पाठक इतनी जेहमत के बाद साइट देखने की कोशिश करेगा ?

हिन्दी तो शायद राजनेताओं की प्राथमिकता में ही नहीं है। सचिन पायलट,मिलिंद देवड़ा,ज्योतिरादित्य सिंधिया, मुरली मनोहर जोशी,शाहनवाज हुसैन समेत तमाम नेताओं की साइट इंग्लिश में है। समाजवादी पार्टी वेबसाइट के जरिए आम लोगों से जुड़ने की बात अपनी अधिकारिक साइट पर करती है,लेकिन साइट अंग्रेजी में है। देश के नौ करोड़ इंटरनेट उपयोक्ताओं में करीब 40 फीसदी उत्तर भारत में हैं,लेकिन हिन्दी भाषियों तक संदेश पहुंचाना इन राजनेताओं को जरुरी नहीं दिखता। अगर आपका वोटर हिन्दी प्रदेश का है,और उससे संवाद दूसरी भाषा में हो तो उसका असर कहां होगा ? मुमकिन है ज्यादातर नेताओं ने इंटरनेट पर अपनी उपस्थिति सिर्फ ब्रांडिंग के लिए दर्ज की हो। ऐसा है तो वो ‘टू वे मीडियम’ की ताकत को नजरअंदाज कर रहे हैं।

चुनावी मौसम में इंटरनेट समेत तमाम हाईटेक माध्यमों से प्रचार की धूम है। लेकिन,इन माध्यमों के वास्तविक लाभ के लिए आवश्यक रणनीति नदारद है। इंटरनेट पर वीडियो शेयरिंग साइटों पर सभी पार्टियों के वीडियों धड़ाधड़ अपलोड़ किए जा रहे हैं। लेकिन, ज्यादातर वीडियो रैलियों और नेताओं के भाषणों के हैं। क्या इंटरनेट उपयोक्ता रैलियों के वीडियो यूट्यूब पर देखना चाहते हैं? यूट्यूब वीडियो के लिए एक अलग कैंपेन डिजाइन किया जाना चाहिए था,जिसमें हल्के फुल्के अंदाज में पार्टियां अपनी बात कहतीं। इसी तरह, मोबाइल एसएमएस के लिए अलग कैंपेन डिजाइन किया जाना चाहिए।

इसमें कोई शक नहीं है कि हाईटेक प्रचार के मामले में बीजेपी कांग्रेस से दो कदम आगे हैं। यूट्यूब पर लालकृष्ण आडवाणी के वीडियो अपलोड करने के लिए एक अलग चैनल है। आडवाणी जी की साइट के प्रचार में भी करोड़ों रुपए खर्च किए गए। साइट का गूगल विज्ञापन पाकिस्तानी अखबार डॉन की साइट पर दिखने पर हंगामा भी मचा। इतना ही नहीं,अश्लील सामग्री वाली कुछ साइटों पर भी आडवाणी जी की साइट का विज्ञापन दिखने की बात कही गई। लेकिन,धुआंधार विज्ञापन के बावजूद क्या लक्ष्य उपयोक्ताओं से सीधा संवाद स्थापित हुआ है? आडवाणी जी के ब्लॉग पर जिन विषयों और जिस भाषा में लोगों से संवाद साधा गया है, वो नयी पीढ़ी को शायद ही आकर्षित कर पाए। साइबर कैंपेन की सफलता भी मीडियम से ज्यादा मैसेज में छिपी है। संदेश का असरदार होना जरुरी है। लेकिन,हाईटेक होने को बेताब राजनेता फिलहाल मीडियम के आकर्षण में ज्यादा बंधे दिखते हैं।

(ये लेख अमर उजाला में 19 मार्च को संपादकीय पेज पर प्रकाशित हो चुका है)