tag:blogger.com,1999:blog-74289179395703787892024-02-22T14:00:40.982+05:30पीयूष पाण्डेपीयूष पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/11829771563390877484noreply@blogger.comBlogger58125tag:blogger.com,1999:blog-7428917939570378789.post-10850412933554298892018-06-07T11:23:00.002+05:302018-06-07T11:23:57.860+05:30नृत्य का मनरेगातोंद को परे रख वरमाला के मंच पर कमरतोड़ डांस करने वाले अंकलजी ने जिस तरह राष्ट्र को नृत्यमोह में उलझाया है, उसके बाद उन्हें 'राष्ट्रीय महत्व की संपत्ति' का दर्जा मिल जाना चाहिए। अंकलजी ने मंच पर सुपरहिट डेमो देकर कई भ्रम तोड़े हैं। पहला, शादी में फूफाजी नामक प्राणी सिर्फ मुंह फुलाए बैठा रहता है। फूफा होने के बावजूद अंकलजी ने डिस्को से लेकर ब्रेक डांस तक कई शैलियों में जिस तरह डांस किया-उसने फूफाओं की पुरातन छवि को झटके में तोड़ दिया है। हालांकि, अंकलजी की इस हरकत से रुढ़िवादी फूफा खफा हैं। उन्हें भय है कि अगले सीजन से ही परिवार की शादियों में उनकी इज्जत का सेंसेक्स क्रैश हो जाएगा क्योंकि उनका रौब ही उनकी ताकत था। फूफा समुदाय अगर ऐसे शादी में खुलेआम मंच पर ब्रेक डांस करेगा तो फिर फूफाओं का लोड लेगा कौन?
अंकलजी के 'डांस डेमो' ने ये भ्रम भी तोड़ दिया कि नयी पीढ़ी 21 साल पुराने गाने को सुनना-देखना नहीं चाहती। 21 बरस पहले 'आपके आ जाने से' गाते हुए लड़कियों को छेड़ने वाले पुरुषों को तसल्ली है कि जिस गाने को गाते हुए उन्होंने अपना बेशकीमती वक्त बर्बाद किया, वो गाना कम से कम फालतू नहीं था।
अंकलजी ने ये भ्रम भी तोड़ दिया कि टीवी चैनल सिर्फ खूबसूरत लड़कियों को दिखाते रहना चाहते हैं, और गंजे-मोटे लोगों का स्कोप बिलकुल खत्म हो गया या सिर्फ गंजेपन और मोटापा कम करने वाली दवाइयों के मॉडल तक सीमित हो गया है। अंकलजी ने साबित किया है कि बंदे में हुनर हो तो कामयाबी और टीवी चैनल दोनों पीछे भागते हैं। आज देश के हजारों लड़के लड़कियां अंकलजी के अंदाज में आपके आ जाने से पर नृत्यरत हो रहा है। अपने वीडियो बनाकर यूट्यूब पर अपलोड कर रहा है।
कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर होते हुए नृत्य के जरिए नाम कमाने वाले अंकलजी ने फिर साबित किया है कि पढ़ने-लिखने से ज्यादा कुछ नहीं होता। सिर पर चांद भले निकल आए, तोंद वृत्ताकार होते हुए बंदे को जमीनोनमुखी करने को भले लालयित रहे लेकिन पैशन कभी नहीं छोड़ना चाहिए। वैसे भी बाबा रणछोड़दास ने कहा है कि काबिल बनो बच्चा, कामयाबी झक मारकर पीछे आएगी।
बहरहाल, अब सरकार को चाहिए कि वो तत्काल प्रभाव से दूसरी मनरेगा यानी महा नृत्य रोजगार गारंटी स्कीम ल़ॉन्च कर दे। पायलट प्रोजेक्ट के लिए राजनेताओँ को चुना जा सकता है। इससे तीन फायदे होंगे। पहला, देश का नेता फिट रहेगा। दूसरा, संसद में हो हल्ला होने के हालात में इंटरटेनमेंट की गुंजाइश रहेगी। तीसरा, रैलियों में बड़े नेता के भाषण से पहले इन दिनों नृत्यांगनाएं बुलाई जाने लगी हैं तो उन पर बेवजह धन खर्च नहीं होगा। राजनेता खुद भांति भांति के नृत्य दिखाकर दर्शकों को बांधे रखेंगे।
पायलट प्रोजेक्ट हिट होने पर बजट में नृत्य रोजगार गारंटी योजना के तहत आम जनता के लिए भी बजट आवंटित किया जा सकता है। हिन्दुस्तानी इस कदर आलसी और मुफ्तखोर हो गए हैं कि जब तक उन्हें किसी काम का पैसा नहीं मिलता-वो करना पसंद नहीं करते। ब्लड प्रेशर की दवाइयों में खर्च कर सकते हैं लेकिन सुबह की सैर नहीं कर सकते। ऐसे में नृत्य रोजगार गारंटी योजना से देश भी फिट होगा। और देश फिट हो न हो, नृत्य मनरेगा के तहत नृत्य करते हुए लोगों के वीडियो खूब यूट्यूब पर अपलोड होंगे। घर बैठे लोगों को एक काम मिल जाएगा। टीवी चैनलों के लिए भी कच्चा माल तैयार होगा।
कुल मिलाकर योजना लॉन्च होगी तो विज्ञापन चलेंगे। योजना हिट होगी। फिर सारा देश नाचेगा।
सारा देश नाच रहा है। आहा! कितना सुंदर दृश्य है !!!पीयूष पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/11829771563390877484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7428917939570378789.post-39380105006718978192018-05-10T23:02:00.004+05:302018-05-10T23:02:24.604+05:30आया-आया तूफानसाल 1989 में अमिताभ बच्चन की एक फिल्म आई थी-तूफान। इस फिल्म में एक गाना था-आया आया तूफान, भागा भागा शैतान। फिल्म में अमिताभ 'तूफान' थे। बॉक्स ऑफिस पर दर्शकों की उपेक्षा की आँधी ने इस 'तूफान' को ऐसा उड़ाया कि निर्माता मनमोहन देसाई की जिंदगी में भूचाल आ गया। लेकिन इस दिनों असल तूफान का बड़ा हल्ला रहा। कई राज्यों में छोटा-बड़ा तूफान आया। पेड़ गिरे, ओले पड़े। गाने के हिसाब से चलें तो शैतानों का नामों निशान मिट जाना चाहिए लेकिन ऐसा होगा नहीं। शैतान अब बहुत शातिर हो गए हैं। पांच बरस गायब रहते हैं लेकिन ऐन चुनाव के वक्त रुप बदल बदलकर जनता के सामने आ खड़े होते हैं। मासूम-भोली सूरत लिए। इन चुनावी 'शैतानों' के पास भेष बदलने का अद्भुत हुनर होता है। इनके पैर दिखते सीधे हैं, लेकिन होते उल्टे हैं। चुनाव खत्म होते ही ये ऐसी रहस्यमयी गुफाओं में छिप जाते हैं, जहां सिर्फ ठेकेदार, रिश्वतखोर, बिल्डर वगैरह ही पहुंच पाते हैं। चुनाव के वक्त उल्टे पैर ये फिर समाज में आ पहुंचते हैं। नोट-शराब-वादे-दावे-सपने बांटते हैं। भिखारियों की तरह झोली फैलाते हैं-एक वोट दे दे बाबा। जनता मासूम। वोट दे देती है। शैतान छूमंतर हो जाते हैं। तूफान भी अब छूमंतर हो गया है।
तूफान का इस बार बड़ा हल्ला रहा। बहुत डर लगा। टेलीविजन चैनलों ने हल्ले में गुल्ला मिलाकर तूफान को मारक बना दिया। कई बार ऐसा लगा कि तूफान घर में घुसकर मारेगा।
असल तूफान अपनी जगह है लेकिन सच यह है कि लोगों के अपने अपने तूफान हैं। नौजवान लड़कों की जिंदगी में तूफान तब आता है, जब गर्लफ्रेंड झटके में कट लेती है और ब्रेकअप से पहले ऐसा कोई संकेत नहीं देती। वरना लड़के कम शातिर नहीं, वो विकेट गिरने से पहले नयी क्रीज पर बैटिंग की तैयारियां शुरु कर दें। युवा लड़कियों की जिंदगी में तूफान तब आता है, जब फेसबुक पर उनकी खास सहेली की तस्वीर को रोजाना उनका ही बॉयफ्रेंड लाइक करना शुरु कर देता है। शादी शुदा मर्दों की जिंदगी तूफानों से भरी होती है। मसलन दावों के विपरित जब पत्नी को पति के सही वेतन का पता लगता है तो तूफान आता है। एक महीने का वादा कर घर आई सास जाने का नाम न ले तो तूफान आता है। व्हाट्सएप पर एक ही दिन में पति की महिला मित्र के गुडमॉर्निंग और गुडनाइट मैसेज पर नजर पड़ जाए तो तूफान आता है। शादी शुदा मर्दों की जिंदगी में तूफान कब कैसे किस बात पर और कितने वेग का आएगा-इसकी भविष्यवाणी दुनिया का कोई मौसम विभाग आज तक नहीं कर पाया। ऐसा नहीं है कि शादीशुदा महिलाओं की जिंदगी में भी तूफान नहीं आते लेकिन ये प्राय: मर्दों की तुलना में कम होते हैं।
राजनेताओं को घरेलू मोर्चों पर छोड़ दें तो ईश्वर प्रदत्त वरदान है कि वो सिर्फ तूफान लाने के लिए बने हैं, झेलने के लिए नहीं। अलबत्ता उनकी जिंदगी में भी दो बार तूफान आता है। एक, जब आलाकमान बेरहमी से टिकट काट देता है। दूसरा, चुनाव में हारने की घोषणा के साथ ही घर में लगने वाली कार्यकर्ताओं की भीड़ कट लेती है।
अंग्रेजी साहित्यकार की जिंदगी में तूफान तब आता है-जब रॉयल्टी का चेक बाउंस हो जाए। और हिन्दी साहित्यकार को चेक मिल जाए तो इसी खुशी में वो तूफान सिर पर उठा लेता है।
टीवी चैनलों के दफ्तर में जब टीआरपी नहीं आती तो तूफान आता है। दुनिया में कहीं तूफान आए, अगर चैनलों को टीआरपी मिल रही है तो उनके दफ्तर तक तूफान का असर नहीं होता। लेकिन टीआरपी नहीं आए तो दुनिया में भले परम शांति हो-दफ्तर में तूफान मचा रहता है। ऐसे में मनोरंजक चैनल पुनर्जन्म की किसी कहानी को नए कलेवर में ले आते हैं तो न्यूज चैनल किसी हनीप्रीत को खोज लाते हैं। कुछ नहीं मिलता तो भानगढ़ के किले पर दांव लगाते हैं।
दरअसल, भांति भांति के तूफान हैं, और सबके अपने तूफान हैं। बॉक्स ऑफिस पर हर शुक्रवार को तूफान आता है, जिसमें दो चार फिल्में टीन टप्पर के साथ उड़ जाती हैं। उनका नामलेवा नहीं बचता। किसान की जिंदगी में तूफान तब आता है-जब कर्ज लेकर बोई फसल बेमौसम बारिश या ओले से खराब हो जाती है। किसानों के परिवार में तूफान तब आता है, जब महज 40-50 रुपए कर्ज न चुका पाने की मजबूरी में किसान खुदकुशी कर लेता है।
दरअसल, तूफान भौतिक कम मानसिक ज्यादा होता है और मुद्दा मानसिक तूफान को ही काबू में करने का है। वरना सच यही है कि आम गरीब की जिंदगी में जितने तूफान एक साथ आते हैं-उसका एक फीसदी भी मध्यवर्ग की जिंदगी में आ जाता है तो लोगों को मौत के अलावा कोई चारा नहीं दिखता। गरीब तूफान झेलने का अभ्यस्त होता है। वो तूफानों से घबराता नहीं उसका सामना करता है। तूफानों को झेलने के उसके जज्बे को सलाम !! पीयूष पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/11829771563390877484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7428917939570378789.post-4462891089273504912017-09-16T13:29:00.003+05:302017-09-16T13:29:35.220+05:30नेतागीरी का कोर्सकाश ! मैं राजनेता होता। राजनेता होता तो 50-100 एकड़ जमीन, 10-15 फ्लैट, दो-तीन एजेंसी और 100-200 करोड़ के बैंक बैलेंस के साथ मोटा आसामी होता। इलाके में जलवा होता। जलवे के बीच जब कभी इलाके में बलवा होता तो मेरी ही बाइट टेलीविजन चैनलों पर चलती। मेरी एक सिफारिश पर स्कूल में एडमिशन होते, बाबुओं के ट्रांसफर होते। मैं राजनेता होता तो मेरा बेटा ऑटोमेटिकली राजनेता होता। फिर उसके पास भी 100-200 एकड़ जमीन, 40-50 फ्लैट, 10-15 एजेंसी, स्विस बैंक में एकाउंट और 500-1000 करोड़ का माल होता।
काश ! ऐसा होता। लेकिन ऐसा नहीं हो पाया तो इसकी दो बड़ी वजह रहीं। पहली, हमारे पिताजी राजनीति से दूर रहे। इस तरह उन्होंने एक भावी नेता के मन में राजनेता बनने की ललक का पैदा होने से पहले ही दम घोंट दिया। दूसरी, हमारे जमाने में राजनीति सिखाने का कोई कोर्स कहीं नहीं था। राजनीतिक दुनिया से पहला वास्ता पड़ते ही अपन कंफ्यूज हो गए। यहां अंगूठा छाप मुख्यमंत्री था तो विदेश से पढ़कर आया मुख्यमंत्री भी। यहां घोटाले का आरोप लिए बंदा भी केंद्रीय मंत्रिमंडल में था और ईमानदारी का सर्टिफिकेट बांटने वाला भी। राजनीति में एंट्री कैसे ली जाए इसका कोई अता-पता नहीं था। कुल मिलाकर मेरा राजनेता बनने का सुनहरा ख्वाब उसी तरह टूट गया, जिस तरह टार्जन जैसी सुपरहिट फिल्म देने के बाद भी हेमंत बिरजे का बॉलीवुड का किंग बनने का ख्वाब टूट गया था।
लेकिन जब से मैंने यह खबर पढ़ी है कि मुंबई में नेतागीरी सिखाने का कोर्स शुरु हो गया है, तब से मन प्रफुल्लित है। कोर्स की फीस सिर्फ ढाई लाख रुपए है। इत्ता वक्त तो बच्चे आजकल उन काउंसलिंग में खर्च कर देते हैं, जिसमें ये बताया जाता है कि भाई तू है किस लायक और कौन सा कोर्स करना चाहिए?
ऐसा लग रहा है कि बेटे को नेतागीरी का कोर्स कराकर गंगा नहायी जाए। बेटा राजनेता हो गया तो बुढ़ापे का रोग आलीशन बंगले के लॉन मे बैठकर मजे-मजे में कट जाएगा। दो चार ट्रांसफर-पोस्टिंग कराके थोड़ी परोपकारिता भी हो जाएगी। मेरे भोले पिताजी तो राजनीति को मैली गंगा मानते रहे लेकिन अपने को मालूम है कि इस मैली गंगा में डुबकी लगते ही घर के नल से अंगूर की बेटी बहने लगेगी।
इस देश में सिर्फ तीन लोगों का जलवा है। एक, फिल्मी सितारे। दूसरा क्रिकेटर। तीसरा राजनेता। बेटे की शक्ल मुझ पर गई है तो कोई प्रोड्यूसर उसे लेकर फिल्म
बनाएगा नहीं। फिल्म बनाने के लिए कम से कम दस करोड़ चाहिए, जो मेरे पास हैं नहीं तो बेटा हीरो बन नहीं सकता। क्रिकेटर बनने की संभावना उसी दिन खत्म हो गई थी, जब कोच ने कीपिंग करने के दौरान उसे सोते हुए पकड़ लिया था। राजनेता बनने की संभावना भी नहीं के बराबर थी लेकिन अब अचानक उम्मीद जग गई है कि बेटा राजनेता बनकर रहेगा।
मैंने बेटे को समझाया, मनाया और नेतागीरी के कोर्स के लिए राजी कर लिया। सब कुछ तय हो गया। ढाई लाख रुपए का ड्राफ्ट तैयार हो गया कि अचानक बेटे ने कहा- “पापा, आपने कोर्स का सिलेबस देखा? कितना शानदार है। कितना कुछ है पढ़ने को।” मैंने भी जिज्ञासावश सिलेबस हाथ में ले लिया। पूरा सिलेबस ऊपर से नीचे तक झटके में पढ़ डाला। फिर धीरे धीरे पूरे सिलेबस पर नजरें गढ़ायीं। लेकिन ये क्या !! सिलेबस पढ़ते ही मुझे चक्कर आने लगे। ये कौन सी नेतागीरी सिखाने वाला कोर्स है ? सिलेबस में न तो आलाकमान तक पहुंचने के बाबत कोई पाठ है, न आलाकमान से टिकट झटकने के बाबत। बसें फूंकने, ट्रेन रोकने, हंगामा करने, तोड़फोड़ करने जैसे प्रैक्टिकल का कोई जिक्र नहीं। ईवीएम से कैसे छेड़छाड़ की जाए और कैसे ईवीएम के वोट इधर से उधर हो-इस अहम मुद्दे पर किसी लैक्चर तक की बात नहीं। घोटाले-घपले कैसे किए जाएं। घपले में पकड़े जाने पर सीबीआई जांच से कैसे बचा जाए। बंगला खाली करने के पचास नोटिस के बावजूद बंगलापकड़ रवैया बनाया रखा जाए। पार्टी के भीतर विरोधियों को कैसे ठिकाने लगाया जाए। बिन बात के भी विरोधियों से कैसे इस्तीफा मांगा जाए और अपनी कितनी भी बड़ी गलती होने पर कोई माई का लाल इस्तीफा न लेने पाए जैसे अहम विषयों पर विजिटिंग फैकल्टी तक की व्यवस्था नहीं। तो फिर किस बात का नेतागीरी का कोर्स? किस बात के ढाई लाख रुपए ? स्वतंत्रता आंदोलन, गांधी-नेहरु-लोहिया-जेपी के विचार, अलग-अलग सरकारों की विदेश नीति, गवर्नेंस के मॉडल वगैरह सिखाने से क्या हो जाएगा जी ? मुद्दा तो असल नेतागीरी सिखाने का है, और वो कोर्स में सिखाई ही नहीं जा रही। यह तो एक तरह की ठगी है।
मैंने ढाई लाख रुपए का ड्रॉफ्ट जेब में रखकर एक लंबी गहरी सांस ली। पिछले जन्मों के पुण्यों से बंदे को राजनीति में दलाली का मौका मिलता है। मैं समझ चुका था कि राजनीति के धंधे से कमाई लायक पुण्य मैंने नहीं किए हैं। मैंने बेटे की तरफ देखा और कहा- “बेटा तुम नेता बनने लायक नहीं हो। तुम बैंक के इम्तिहान की तैयारी करो।“
पीयूष पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/11829771563390877484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7428917939570378789.post-80965923571644913292017-07-07T00:08:00.002+05:302017-07-07T00:08:34.446+05:30सिक्किम को नजरअंदाज करना ठीक नहीं !भारत को परेशान करने के लिए चीन अब 'सिक्किम कार्ड' खेल सकता है। चीन के सरकारी मीडिया ने गुरुवार का इसका जिक्र कर दिया। ग्लोबल टाइम्स ने लिखा-
"हमें सिक्किम की आजादी का समर्थन करना चाहिए। हमें इस मसले पर अपना स्टैंड बदलना चाहिए। हालांकि, 2003 में चीन ने सिक्किम पर भारत के कब्जे को मान लिया था, लेकिन वो अपने स्टैंड को फिर से बदल सकता है। सिक्किम में अभी भी ऐसे लोग हैं, जो उसके स्वतंत्र देश के इतिहास को याद करते हैं।"
जाहिर है चीन सिक्किम में राख में छिपी चिंगारी को हवा देकर माहौल बिगाड़ना चाहता है। लेकिन सवाल चीन का नहीं भारत का है, क्योंकि भारत के लिए सिक्किम का सामरिक महत्व है, और हम भी ये भी नहीं भूल सकते कि भारत ने सिक्किम को कैसे हासिल किया।
आजादी के वक्त तो सिक्किम ने भारत में विलय के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था। उस वक्त तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने सिक्किम को संरक्षित राज्य का दर्जा प्रदान किया। इसके बाद 1955 में एक राज्य परिषद की स्थापना की गई, जिसके आधीन चोग्याल को एक संवैधानिक सरकार बनाने की अनुमति दी गई अलबत्ता विदेश मामले, रक्षा, कूटनीति और संचार दिल्ली के हाथ में रहे।
1970 के शुरुआती सालों तक चोग्याल का शासन कायदे से चलता रहा लेकिन धीरे धीरे उनका कामकाज का तरीका लोगों को नापंसद आने लगा। चोग्याल की बढ़ती अलोकप्रियता के बीच 1973 में राजभवन के सामने दंगे हुए और सिक्किम ने भारत सरकार से संरक्षण के लिए औपचारिक गुजारिश की। इसके बाद भारत सरकार को समझ आने लगा कि चोग्याल का शासन बहुत लंबा चलेगा नहीं।
लेकिन, सिक्किम को भारत में शामिल होने की असल पटकथा अप्रैल 1975 में लिखी गई, जब छह अप्रैल 1975 को इंदिरा गांधी ने दांव चला। चोग्याल के राजमहल को भारतीय सेना ने घेर लिया। पांच हजार से ज्यादा भारतीय सैनिकों को मुट्ठीभर गार्डों को काबू करने में आधा घंटा भी नहीं लगा। उस दिन दोपहर पौने एक बजे तक सिक्किम का आजाद देश का दर्जा खत्म हो गया। दिल्ली के नगरपालिका आयुक्त बीएस दास को 8 अप्रैल 1975 को सिक्किम सरकार की जिम्मेदारी लेने के लिए गंगटोक भेजा गया।
राजमहल को अपने कब्जे में लेने के बाद भी सिक्किम का पूर्ण विलय आसान नहीं था। 1962 के युद्ध में जीत के बाद चीन की ताकत भारत देख चुका था, और चीन सिक्किम के भारत में विलय का विरोध कर रहा था। लेकिन इंदिरा गांधी ने चीन को तिब्बत पर हमले की याद दिलाकर उस विरोध को खारिज कर दिया। सच कहा जाए तो 1962 के युद्ध में हार के बाद ही भारत को सिक्किम की अहमियत समझ आई। सामरिक विशेषज्ञों ने महसूस किया कि चीन की चुंबी घाटी के पास भारत की सिर्फ़ 21 मील की गर्दन है, जिसे ‘सिलीगुड़ी नेक’ कहते हैं। चीन चाहे तो एक झटके में उस गर्दन को अलग कर उत्तरी भारत में घुस सकते है। चुंबी घाटी के साथ ही लगा है सिक्किम। वैसे, सिक्किम को लेकर भारत की रणनीति में बदलाव चोग्याल के अमेरिकी लड़की होप कुक से शादी के बाद भी बदली। चोग्याल के साथ होप कुक भी प्रशासनिक कामों में दखलंदाजी करने लगी थी और चोग्याल को लगता था कि अगर वो सिक्किम को आजाद कराने की मांग करेंगे तो अमेरिका उसका समर्थन करेगा। उन दिनों भारत के अमेरिका से मधुर संबंध नहीं थे। और संबंधों की लय कितनी बिगड़ी हुई थी, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1971 के युद्ध में अमेरिका ने भारत के खिलाफ अपना सातवां बेड़ा तक भेज दिया था।
चीन के साथ नेपाल भी सिक्कम के भारत में विलय के विरोध में था लेकिन सारे विरोध मिलकर कोई ऐसे हालात बना पाते कि विलय का खेल मुश्किल में पड़ जाता-उससे पहले ही चोग्याल ने 8 मई के समझौते पर अपने हस्ताक्षर कर दिए। रॉ ने इसमें अहम भूमिका निभाई। दो दिनों के भीतर पूरा सिक्किम राज्य भारत के नियंत्रण में था। सिक्किम को भारतीय गणराज्य मे सम्मिलित करने का सवाल जनमतसंग्रह के जरिए जनता के सामने रखा गया, जिसके पक्ष में सिक्किम के 97.5 फीसदी लोगों ने वोट किया यानी सिक्किम के लोग चाहते थे कि वो भारत के संग आएं। इसके बाद 16 मई 1975 में सिक्किम औपचारिक रूप से भारतीय गणराज्य का 22वां प्रदेश बना और सिक्किम में चोग्याल के शासन का अंत हुआ।
सिक्किम ने भारत के नियंत्रण में आने के बाद खासा विकास भी किया, और विकास ही सिक्किम की सरकारों की प्राथमिकता में रहा। आलम ये कि साल 2007-2012 के दौरान सिक्किम की विकास दर 22 फीसदी के करीब रही थी, जबकि इसी अवधि में भारत की औसतन ग्रोथ 8 फीसदी रही। सिक्किम में पिछले 8 साल में गरीबी 20 फीसदी कम होकर 8 फीसदी पर आ गई है और राज्य के मुख्यमंत्री का दावा है कि एक-दो साल में ही सिक्किम गरीबी मुक्त हो जाएगा। इतना ही नहीं, दो साल पहले ही सिक्किम देश का ऐसा पहला राज्य बन गया था, जहां सभी घरों में शौचालय है।
पिछले दो दशक से ज्यादा वक्त से पवन चामलिंग सिक्किम के मुख्यमंत्री हैं, लेकिन अब उन्हें लगता है कि सिक्किम चीन और पश्चिम बंगाल के बीच पिस रहा है। एक दिन पहले ही उन्होंने बिगड़े हालात के बीच बयान दिया कि
"सिक्किम के लोग चीन और बंगाल के बीच सैंडविच बनने के लिए भारत के साथ नहीं जुड़े थे"
चामलिंग का अनुमान है कि पश्चिम बंगाल से सिक्किम तक पहुंचने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग 31 को जिस तरह गोरखालैंड आंदोलन की वजह से बीते 30 साल में बंद किया गया, उससे कई बार सिक्किम की व्यवस्थाएं चौपट हुई। और इन 30 साल में सिक्किम को 60 हजार करोड़ से ज्यादा का नुकसान हुआ। अब तो सिक्किम दो तरफ से पीस रहा है। चीन सीधे सीमा पर खड़ा है तो गोरखालैंड आंदोलन जोर पकड़ रहा है।
जाहिर है सिक्किम के लोग परेशान हैं, और उनकी परेशानी को हल करना भारत सरकार की जिम्मेदारी है। क्योंकि चीन ने जिस तरह सिक्किम कार्ड खेलने की धमकी दी है, और यदि वैसा ही किया गया तो कोई बड़ी बात नहीं कि परेशान सिक्किम में एक गुट अलग सिक्किम देश के लिए आंदोलन शुरु कर दे। चीन उसे हवा देगा ही और भारत सरकार की मुश्किलें तब और बढ़ेंगी। ऐसे में जरुरी है कि सिक्किम को किसी कीमत पर नजरअंदाज नहीं किया जाए।पीयूष पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/11829771563390877484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7428917939570378789.post-48724915731951329522017-06-26T11:41:00.001+05:302017-06-26T11:41:41.541+05:30कहां है अंतरआत्मा की आवाज़ ? (व्यंग्य)मीरा कुमार जी बड़ी भोली हैं। मासूम हैं। उनकी अपील है कि राष्ट्रपति पद के चुनाव में निर्वाचक मंडल अपनी अंतरआत्मा की आवाज़ पर वोट करें। इस अपील को सुनकर कुछ युवा नेता चाहते हैं कि वो अपनी अंतरआत्मा की आवाज़ पर वोट करें। लेकिन उनकी परेशानी यह है कि उन्हें नहीं मालूम कि यह आवाज़ कैसी होती है? उन्होंने सुना ज़रुर है कि गुज़रे ज़माने में राजनेता राजनीति से ऊपर उठकर अंतरआत्मा की आवाज़ सुना करते थे। लेकिन कैसे-ये कोई बताने वाला नहीं है। संसद-विधानसभा-पंचायतों वगैरह में इस तरह का कोई कोर्स भी कभी नहीं कराया गया, जिसमें यह बताया गया हो कि अंतरआत्मा की आवाज़ सुनने के क्या तरीके हैं।
अंतरआत्मा अपनी आवाज़ किसी स्पीकर में भी नहीं कहती, जिससे उसे आसानी से सुना जा सके। बाहर की दुनिया में इतना कोलाहल है कि असल में बोली हुई बात तो कई बार सुनना मुश्किल होता है। अंतरआत्मा की आवाज़ कहां सुनी जाएगी? फिर, संसद-विधानसभा में रहकर नेताओं के कान भी धीमी आवाज़ को सुन नहीं पाते। संसद-विधानसभा वगैरह में पहले ही इतना हल्ला होता है कि कई बार सांसद-विधायक अपनी बात समझाने के लिए इशारों का इस्तेमाल करते हैं। और कई नेता तो हल्ला में गुल्ला मिलाकर ऐसा मारक किस्म का हल्ला-गुल्ला करते हैं कि कान फट जाते हैं। ऐसे नेता अंतरआत्मा की आवाज़ कैसे सुनें ?
कुछ नेताओं को कभी-कभार अंतरआत्मा की हल्की फुल्की आवाज़ सुनाई दे भी जाती है तो वो उसे नजरअंदाज करने में ही भलाई समझते हैं। वो जानते हैं कि अंतरआत्मा की आवाज़ सुनने से ज्यादा जरुरी है आलाकमान की आवाज़ सुनना। वो ही टिकट देगा। वो ही मंत्रीपद देगा। टिकट नहीं मिला तो पूरी राजनीति धरी की धरी रह जाएगी और पार्टी के सत्ता में आने के बाद मलाईदार पद नहीं मिला तो राजनेता होने का फायदा ही क्या। आत्मा का क्या है। वो अजर-अमर है। आत्मा को न तो आग जला सकती है, न शस्त्र काट सकता है। तो आत्मा तो रहनी ही है। आत्मा रहेगी तो उसकी आवाज़ भी रहेगी। इस जन्म में न सुन पाएंगे तो अगले जन्म में सुन लेंगे।
ऐसा नहीं है कि नेताओं को कभी भी अंतरआत्मा की आवाज़ सुनाई नहीं देती। जब कभी राजनेताओं के वेतन-भत्ते की बढ़ोतरी का प्रस्ताव पेश किया जाता है तो सभी राजनेता अपनी अंतरआत्मा की आवाज़ पर उसे बढ़ाने के पक्ष में वोट देते हैं। फिर-प्रस्ताव भले सबसे बड़ी दुश्मन पार्टी ने रखा हो।
वैसे, सच ये भी है कि इन दिनों राजनेताओं को क्या किसी को भी अंतरआत्मा की आवाज़ सुनाई नहीं देती। बलात्कार की घटनाओं से पटे पेज को देखकर कभी हमारी अंतरआत्मा नहीं कहती कि इस मुद्दे पर आंदोलन हो। भ्रष्टाचारी राजनेताओं को जीभर कर कोसने वाले हम लोग लाइसेंस बनवाने के लिए आज भी रिश्वत देने से नहीं हिचकते और उस वक्त हमारी अंतरआत्मा नहीं कहती कि यह गलत है। दरअसल, ऐसा लगता है कि बीते कई साल से अंतरआत्मा की आवाज़ ही छुट्टी पर चली गई है। उसकी ईद सिर्फ आज नहीं है !
पीयूष पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/11829771563390877484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7428917939570378789.post-46787724635630584032017-06-13T21:21:00.001+05:302017-06-13T21:21:54.564+05:30शर्म मगर किसी को नहीं आती...पटना के इंदिरा गांधी इस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज का एक ख़त संस्थान के बाहर न आया होता तो कभी पता ही नहीं चलता कि स्वास्थ्य मंत्री तेज प्रताप यादव ने तीन सरकारी डॉक्टरों और दो नर्स की ड्यूटी अपनी मां यानी राबड़ी देवी के घर लगा दी,जहां पिता लालू यादव भी रहते हैं। पांचों सदस्य तन-मन से लालू की सेवा करते रहे क्योंकि स्वास्थ्य मंत्री और संस्थान के चेयरमैन का यही आदेश था।
लालू यादव चाहते तो अस्पताल में भर्ती हो सकते थे लेकिन नहीं। जब बेटा स्वास्थ्य मंत्री हो डॉक्टर क्या अस्पताल भी घर आ सकता था। यानी ये तो लालू यादव की नेकनीयत रही कि उन्होंने पूरे अस्पातल को घर पर खड़ा नहीं किया वरना मुमकिन ये भी था।
IGIMS के मेडिकल सुपरिटेंडेंट पी के सिन्हा से जब इस बारे में पूछा गया तो वो तकनीकी पेंच की आड़ लेकर बचने लगे। उन्होंने बताया कि डॉक्टरों को लालू की सेवा में नहीं भेजा था बल्कि स्वास्थ्य मंत्री और अपने संस्थान के चेयरमैन तेज प्रताप यादव के घर भेजा था और चेयरमैन को तो वो ना कह ही नहीं सकते।
ख़त लीक हुआ तो हंगामा मच गया। विपक्ष इस मुद्दे पर अब लालू को घेर रहा है। लेकिन सच यही है कि सत्ता की ठसक होती ही कुछ ऐसी है,जिसमें नियम कायदे कुछ मायने नहीं रखते। वरना, जिस राज्य में मेडिकल सेवाएं देश में सबसे बद्तर राज्यों में हो, उस राज्य के स्वास्थ्य मंत्री को नींद नहीं आनी चाहिए।
तो आइए पहले बिहार में स्वास्थ्य सेवाओं का हाल ही समझ लें।
डॉक्टर-मरीज अनुपात के मामले में देश के सबसे खराब राज्यों में बिहार एक है। यहां 28,391 मरीजों पर एक डॉक्टर है,जबकि 8800 लोगों पर एक डॉक्टर है।
बिहार की सिर्फ 6 फीसदी आबादी स्वास्थ्य बीमा में कवर है,जबकि भारत में यह आंकड़ा 15 फीसदी है।
सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं चरमराई हुई हैं, और 80 फीसदी से ज्यादा आबादी निजी इलाज के लिए मजबूर है।
स्वास्थ्य मंत्रालय की एनएचआरएम पर 2015 की रिपोर्ट कहती है कि बिहार में देश में सबसे ज्यादा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र की कमी है
स्वास्थय मंत्रालय की रिपोर्ट कहती है कि बिहार में कम से कम 3000 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र होने चाहिए, जो 2015 में महज 1883 थे।
बिहार का स्वास्थ्य बजट 2017-18 में 7002 करोड़ था,जो पिछले वित्त साल से 15.5 फीसदी कम था।
यानी बिहार में बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं लोगों को मयस्सर नहीं हैं लेकिन स्वास्थ्य मंत्री को इनकी चिंता नहीं। वैसे, सवाल यह भी है कि आखिर देश के गरीब, हाशिए पर पड़े लोगों के स्वास्थ्य की चिंता की किसने है? क्योंकि ऐसा कोई दिन नहीं जाता, जब गरीब आदमी को स्वास्थ्य सेवाएं मयस्सर न होने की खबर अखबार में न छपती हो।
कल का ही उदाहरण लें तो कौशांबी में एक शख्स साइकिल पर भतीजी का शव ले जाते दिखायी दिया क्योंकि एंबुलेंस की व्यवस्था हो नहीं पाई। राजस्थान के बांसवाड़ा में एक नवजात बच्चे को चूहे ने कुतर लिया। बांसवाड़ा के जिला अस्पताल में मंत्री-संत्री सब दौरा कर चुके हैं,लेकिन हालात नहीं सुधरे। राजस्थान के प्रतापगढ़ के जिला चिकित्सालय के मुर्दाघर में एक दंपति को उनके बेटे के शव के साथ रात भर बंद कर दिया गया।
ऐसी खबरों की भरमार है, और ये उदाहरण कल के हैं। लेकिन जिन लोगों के कंधों पर इन हालात को सुधारने की जिम्मेदारी है, उनके लिए स्वास्थ्य सेवाओं का सुधार कभी प्राथमिकता में आया ही नहीं। क्योंकि देश में स्वास्थ्य सेवाओं का सच यह है कि
देश में 27 फीसदी मौतें सिर्फ इसलिए हो जाती हैं क्योंकि लोगों को वक्त पर मेडिकल सुविधा नहीं मिलती। भारत स्वास्थ्य पर अपनी जीडीपी का सिर्फ 1.4 फीसदी खर्च करता है। अमेरिका जीडीपी का 8.3 फीसदी स्वास्थ्य पर तो चीन 3.1 फीसदी खर्च करता है। दक्षिण अफ्रीका 4.2 फीसदी तो ब्राजील 3.8 फीसदी खर्च करता है।
इस आंकड़े को थोड़ा और कायदे से समझने की कोशिश करें तो अमेरिका में प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य पर औसतन 4541 डॉलर, चीन में 407 डॉलर, दक्षिण अफ्रीका में 554 डॉलर खर्च होते हैं लेकिन भारत में एक व्यक्ति पर औसतन सिर्फ 80.3 डॉलर खर्च होते हैं।
और सरकारी चिकित्सा सेवा इस कदर दम तोड़ चुकी है कि जिसकी जेब में पैसा है, वो सरकारी अस्पताल की तरफ देखना ही नहीं चाहता। और यही वजह है कि निजी क्षेत्र स्वास्थ्य को धंधा मानकर उसमें निवेश कर रहा है। दुनिया में स्वास्थ्य सेवाओं में निजी क्षेत्र की भागीदारी औसतन 40 फीसदी होती है,लेकिन भारत में निजी क्षेत्र हेल्थ सर्विस में 70 फीसदी खर्च करता है। अमेरिका तक में निजी क्षेत्र की भागीदारी सिर्फ 51 फीसदी है।
वैसे, एक सच ये भी है कि देश की खराब मेडिकल सुविधाओं पर कभी कोई आंदोलन नहीं होता। कोई धरना-प्रदर्शन नहीं होता। क्योंकि शर्म किसी को नहीं आती।
पीयूष पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/11829771563390877484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7428917939570378789.post-84276186626813266792016-02-12T23:25:00.003+05:302016-02-12T23:25:35.732+05:30थम गई 'नेट न्यूट्रिलिटी' पर बहस?भारत में इंटरनेट तटस्थता यानी ‘नेट न्यूट्रिलिटी' के मुद्दे पर मचा घमासान फिलहाल थम गया है क्योंकि टेलीकॉम रेगुलेटरी ऑफ इंडिया यानी ट्राई ने नेट न्यूट्रिलिटी के पक्ष में अपना फैसला सुना दिया है। ट्राई ने नेट न्यूट्रैलिटी का समर्थन करते हुए कहा कि इंटरनेट कंपनियों को अलग-अलग दामों पर सेवाएं मुहैया कराने की इजाज़त नहीं होगी। कुछ कंपनियां इंटरनेट की अलग अलग सेवाओं के लिए अलग अलग दाम रखने पर अड़ी हुई थीं, लेकिन ट्राई ने अपने फैसले में कहा कि इंटरनेट सेवा प्रदाताओं को काम के हिसाब से अपना शुल्क बदलने का अधिकार नहीं होगा। सिद्धांत में ‘नेट न्यूट्रिलिटी' का मतलब है कि इंटरनेट सेवा प्रदान करने वाली कंपनियां इंटरनेट पर हर तरह के डाटा पैकेट को एक जैसा दर्जा देंगी। इंटरनेट सेवा देने वाली इन कंपनियों में टेलीकॉम ऑपरेटर्स भी शामिल हैं। नेट न्यूट्रिलिटी में विश्वास करने वाले मानते हैं नेट पर बहने वाला हर डाटा समान है-चाहे वो वीडियो हो, आवाज़ हो या सिर्फ पाठ्य सामग्री और कंटेंट, साइट या यूजर्स के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। भारत में अभी तक नेट न्यूट्रिलिटी ही है क्योंकि एक बार किसी कंपनी से इंटरनेट सेवा लेने के बाद उस बैंडविथ का इस्तेमाल ग्राहक अपनी सुविधा के अनुसार करता है। यानी ग्राहक चाहे तो यूट्यूब पर वीडियो देखे, स्काइप पर लोगों से बात करे, गूगल सर्च करे या मोबाइल पर व्हाट्सएप के जरिए संदेश भेजे, कंपनी को इससे लेना देना नहीं होता। इसे और सरल भाषा में समझें तो कह सकते हैं कि लोग घरों में बिजली के इस्तेमाल के लिए बिल देते हैं। मगर, कंपनियां यह नहीं कहती है कि टीवी चलाने पर बिजली की दर अलग होगी और फ्रिज. कंप्यूटर और वाशिंग मशीन चलाने पर अलग।
लेकिन, 2014 में जब एयरटेल ने स्काइप और वाइबर जैसे एप्लीकेशन के इस्तेमाल के लिए ग्राहकों से अतिरिक्त शुल्क वसूलने का फैसला किया तो हंगामा मच गया। एयरटेल का तर्क था कि वॉयस कॉलिंग एंड मैसेजिंग एप्स की वजह से सीधे तौर पर उसे नुकसान उठाना पड़ रहा है। यह सच भी था क्योंकि व्हाट्सएप जैसे एप्लीकेशन की लोकप्रियता ने एसएमएस को हाशिए पर डाल दिया है। नेट न्यूट्रिलिटी को लेकर बहस और तेज़ हो गई, जब ट्राई ने 118 पेज का परामर्श पत्र जारी कर दिया, जिसमें नेट नियमन से संबंधित 20 सवालों पर लोगों से राय मांगी गई थी। इनमें एक सवाल नेट न्यूट्रिलिटी से जुड़ा भी था। इस बीच, दुनिया की सबसे बड़ी सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग इंटरनेट को गांव-गांव और हर गरीब तक पहुंचाने का ऐलान करते हुए फ्री बेसिक्स योजना लेकर बाजार में उतर पड़े। फ़ेसबुक ने इंटरनेट डॉट ओआरजी नाम से 2013 में फ्री बेसिक्स परियोजना की शुरुआत की थी। इस योजना को भारत से पहले करीब 36 देशों में लागू किया जा चुका था। फ्री बेसिक्स योजना ग्राहकों को चंद वेबसाइटों तक निःशुल्क पहुंच की सुविधा देती थी।
दिसंबर में ट्राई ने नेट न्यूट्रिलिटी के मसले पर एक और परामर्श पत्र जारी किया तो फेसबुक ने "सेव फ्री बेसिक्स " नाम से अभियान छेड़ दिया और इस व्यापक प्रचार अभियान के जरिए लोगों से आग्रह किया कि वे फ्री बेसिक्स के समर्थन में ट्राई को लिखें। ट्राई ने अपने फैसले से फेसबुक के इरादे पर भी पानी फेर दिया है।
लेकिन सवाल फेसबुक, एयरटेल या किसी कंपनी का नहीं है। सवाल है देश में इंटरनेट तटस्थता के मुद्दे का, और सच यही है कि ट्राई का यह फैसला कई मायनों में न केवल अहम है बल्कि ऐतिहासिक है। दरअसल, ट्राई ने अपने फैसले से बता दिया है कि नेट तटस्थता के मुद्दे पर देश क्या चाहता है, और एक लिहाज से एक टोन सैट कर दी है कि अब फ्री बेसिक्स या कुछ सेवाओं के लिए अलग शुल्क जैसे मुद्दों पर बार-बार बहस न हो।
यह फैसला इसलिए भी बहुत अहम है क्योंकि ट्राई के ऊपर खासा दबाव था। फेसबुक जैसी कंपनी 400 करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च कर प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कैंपेन संचालित कर रही थी, और एक माहौल बनाने की कोशिश थी कि फेसबुक सामाजिक सरोकार के तहत नेट को हर गरीब तक पहुंचाना चाहती है, और नेट तटस्थता का मुद्दा खोखला है। फिर, इस प्रचार अभियान का दूसरा पक्ष यह था कि लोगों में भी यह धारणा बनने लगी थी कि अगर फ्री बेसिक्स के जरिए नेट की कुछ सुविधाएं कुछ लोगों को निशुल्क मिल सकती हैं तो इसका विरोध क्यों हो। खासकर उस स्थिति में, जब इंटरनेट अभी गांव-कस्बों तक नहीं पहुंचा है, और गांव-कस्बों में लोग इंटरनेट पर न तो ज्यादा धन खर्च करने की स्थिति में हैं, और न वे करना चाहते हैं। आम लोगों को यह समझाने वाला कोई नहीं था कि इंटरनेट क्रांति बिना नेट न्यूट्रिलिटी के मुमकिन नहीं है। कल्पना कीजिए ऑर्कुट की लोकप्रियता के दौर में फेसबुक को सेवा प्रदाता धीमी गति से डाउनलोड करवाती तो क्या फेसबुक को लोग पसंद करते? नेट न्यूट्रिलिटी न होने की स्थिति में कंपनियां मुमकिन हैं कि उस कंपनी का साथ दें, जिससे उन्हें मुनाफा हो। अभिव्यक्ति की आज़ादी को भी इसलिए पंख मिले क्योंकि नेट न्यूट्रिलिटी है, और आपके लिखे-कहे को नेट प्रदाता बिना अदालत के आदेश के प्रतिबंधित नहीं कर सकता। मुफ्त के जाल में उलझा नया ग्राहक समझ ही नहीं पाता कि इंटरनेट का आकाश कितना विस्तृत है और फ्री सेवाओं से बाहर एक बड़ी दुनिया है।
ट्राई का फैसला उन छोटे नेट कार्यकर्ताओं की भी जीत है,जिन्होंने नेट न्यूट्रिलिटी को बचाने के लिए छोटी-छोटी कोशिशें कीं। ट्राई का फैसला उन देशों के लिए मिसाल है,जहां सामाजिक आर्थिक स्थिति भारत सरीखी है, और जहां इंटरनेट तटस्थता के मुद्दे पर बहस हो रही है या होनी है,क्योंकि भारत में इस मुद्दे पर जिस तरह बहस हुई और जिस तरह इसके तमाम आयामों को समझा-परखा गया-उसके बाद यह साफ हो गया कि इंटरनेट को बचाने के लिए नेट न्यूट्रिलिटी जरुरी है।
निश्चित रुप से फेसबुक निराश है, और तमाम दूसरे टेलीकॉम ऑपरेटर भी। उनका तर्क है कि इससे डिजिटल इंडिया कैंपेन को धक्का लगेगा क्योंकि फ्री बेसिक्स या इस तरह की दूसरी सेवाओं के जरिए नेट की पहुंच तेजी से व्यापक होती। यह सच भी है। लेकिन ट्राई ने नेट की आजादी को गिरवी रखने के बजाय व्यापक पहुंच के मुद्दे को त्यागा है तो यह भी एक साहसिक कदम है। वैसे, सच यह भी कि नेट का विस्तार भले थोड़ा थमे लेकिन उन स्टार्टअप कंपनियों को राहत मिलेगी,जो अपने नए रचनात्मक आइडिया के साथ मैदान में उतरने को तैयार हैं। हो सकता है कि किसी स्टार्टअप के पास सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक सरीखा कोई और बेहतर आइडिया हो, जिसे वो अब आसानी से प्रचारित-प्रसारित कर सकते हैं।
इंटरनेट की पहुंच की समस्या को सुलटाना सरकार का काम है। यह सरकार को देखना है कि कैसे ब्रॉडबैंड की पहुंच विस्तृत हो और कैसे जल्द से जल्द देश के हर गांव में इंटरनेट पहुंचे।
दिलचस्प है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने हमेशा यही कहा कि वो नेट न्यूट्रिलिटी के पक्ष में है, लेकिन मार्क जुकरबर्ग से उनकी दो बड़ी मुलाकातों के बीच विपक्ष ने यही प्रचार किया कि सरकार नेट न्यूट्रिलिटी पर समझौता करना चाहती है। यह भी अजीब संयोग है कि जिस दिन कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने मोदी सरकार पर नेट न्यूट्रिलिटी के मुद्दे को लेकर कई गंभीर आरोप जड़े, उसी दिन ट्राई ने अपना फैसला दे दिया। यानी एक लिहाज से सरकार ने पलटवार कर साफ कर दिया कि देश में नेट न्यूट्रिलिटी है और रहेगी।
इसमें कोई दो राय नहीं कि आज़ाद इंटरनेट के बिना इंटरनेट का उद्देश्य ही खत्म हो जाता है,क्योंकि नेट न्यूट्रिलिटी की वजह से ही गरीब-रईस और शहरी-ग्रामीण के बीच कोई अंतर नहीं रह जाता। इसी वजह से तमाम नए प्रयोगों की उर्वर भूमि बनता है इंटरनेट। अमेरिका में हाल में जबरदस्त बहस के बाद तय हुआ कि नेट को जन उपयोगी सेवा का दर्जा दिया जाए और फेडरल कंम्यूनिकेशन कमिशन नेट न्यूट्रिलिटी से संबंधित कड़े नियमों के पक्ष में वोट किया। चिली में 2014 में जीरो स्कीम पर पाबंदी लगा दी गई। यूरोप में कुछ खास सेवाओं के लिए विशेष एक्सेस की सुविधा है, लेकिन अब 2013 के इस प्रस्ताव को सुधारने की दिशा में काम हो रहा है। अब भारत ने बड़ा फैसला किया है तो इसका असर दुनिया के कई दूसरे देशों की नीति पर पड़ना भी तय है। लेकिन देखना यह भी होगा कि क्या फेसबुक और तमाम दूसरी टेलीकॉम कंपनियां ट्राई के फैसले के बाद हार मान लेती हैं या फैसले को ऊपरी अदालत में चुनौती दी जाती है।
पीयूष पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/11829771563390877484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7428917939570378789.post-50652021897617566592015-09-29T12:34:00.003+05:302015-09-29T12:34:49.431+05:30न्यूज़ एंकर के लिए क्रैश कोर्स ( व्यंग्य)इन दिनों पत्रकारिता का कोर्स करने वाला हर विद्यार्थी टेलीविजन न्यूज एंकर बनना चाहता है। इन विद्यार्थियों का मानना है कि न्यूज़ एंकर ही असल पत्रकार है और बाकी लोग चैनल में घास टाइप की कोई चीज़ खोदते हैं। चूंकि, टेलीविजनी वर्ण व्यवस्था में एंकर सवर्ण है इसलिए एंकर बनना आसान नहीं है। कई जन्मों में पुण्य किए होते हैं तब एंकर बनने का सौभाग्य प्राप्त होता है। फिर भी, कर्म की थ्योरी को खारिज नहीं किया जा सकता और विद्यार्थी चाहें तो कुछ खास अभ्यास करके एंकर बन सकते हैं। 80 फीसदी छात्र निम्नलिखित क्रैश कोर्स से फायदा उठा सकते हैं। पढ़ाई-लिखाई करने वाले इस कोर्स से दूर रहें।
1-एंकर बनने के लिए जरुरी है कि बंदा रोज सुबह और शाम आधा घंटा चिल्लाने का अभ्यास करें। एक अच्छे एंकर के लिए जरुरी है कि वो चिल्लाने का रियाज उसी तरह करे, जैसे गायक गायकी का रियाज़ करता है। बहुत संभव है कि ऐसा करने से आपके माता-पिता नाराज़ हों, पड़ोसी आपको देखकर नाक-मुंह सिकोड़े लेकिन आप चिल्लाने की प्रैक्टिस बदस्तूर जारी रखें।
2-रोज़ रात गर्म पानी से नमक डालकर गरारे करें। मुलेठी चबाएं। और आइसक्रीम से थोड़ा परहेज़ करें। ऐसा करने से आपका गला नहीं बैठेगा और आप नियमित तौर पर चिल्ला सकेंगे।
3-एक बेहतर एंकर के लिए जरुरी है कि वो तमाम चीखों के बीच भी अपनी बात पूरी करके दम ले। यानी कुत्ते-बिल्लियां भौं भों, म्याऊं म्याऊं करते रहें लेकिन वो आपके ध्यान को तोड़ न पाएं। आप शोरगुल में कतई न भटकें और अपनी बात पूरी करके दम लें।
4-बाजार में सुंदर दिखने की जितनी क्रीम होंगी-यदि आप एंकर बनना चाहते हैं तो वे सब आपके पास पहले से होंगी। फिर भी ध्यान रखें कि अच्छी क्वालिटी की क्रीम लगाएं क्योंकि घटिया क्वालिटी की क्रीम आपकी मुलायम त्वचा को नुकसान पहुंचा सकती है और एक एंकर इस तरह का जोखिम नहीं ले सकता।
5-एंकर बनता नहीं पैदा होता है। मतलब-आपके सामने कोई भी महान गेस्ट बैठा हो-आप उसे मूर्ख समझिए। क्योंकि अगर अक्लमंद की अक्लमंदी को आपने अपने ऊपर हावी होने दिया तो फिर पूरा कार्यक्रम चौपट हो जाएगा।
6-नए युग में एंकर के लिए हेलमेट पहनना भी जरुरी होने वाला है। तो आप एंकरिंग का अभ्यास हेलमेट पहनकर करें तो बेहतर होगा। इससे जब आप वास्तव में एंकरिंग करेंगे तो हेलमेट से दिक्कत नहीं होगी।
7-एंकर बनने का पढ़ने लिखने से कोई वास्ता नहीं है, और यदि आप समझते हैं कि मार्क्स,गांधी,लोहिया वगैरह को पढ़ना आपके लिए फायदेमंद रहेगा तो समझ लीजिए कि इससे समय की बर्बादी के अलावा कुछ हासिल नहीं होगा। अच्छा होगा कि आप तमाम बाबाओं, बाबियों और हर फील्ड के स्कैंडल्स के बारे में जानें।
8-एंकर में एक एटीट्यूड होना चाहिए। अगर आप टीवी पर दिखते हैं तो फिर वो अहंकार चेहरे पर आना चाहिए। यानी एंकर बनने की कोशिश के दौरान ही ये प्रैक्टिस भी करें कि आप शाहरुख/कैटरीना की कैटेगरी के स्टार हैं, जिसे ऐरी गैरी जनता छू नहीं सकती।
9-आप भले हिन्दी चैनल का एंकर बनने की कोशिश करें लेकिन लोगों के बीच अंग्रेजी में बोलें। और इंग्लिश नहीं आती तो कम से कम दो काम जरुर करें। हर चौथे शब्द के बीच यू नो जरुर बोलें और हर पांचवे शब्द के बाद 'येSSS ' जरुर बोले...
10-दूरदर्शन के जमाने का कोई एंकर अगर आपको बता चुका है कि एंकर बनने के लिए अखबार पढ़ना जरुरी है, और आप उसका सम्मान करते हैं तो वक्त निकालकर दिन में दो चार मिनट अखबार भी पढ़ ही लीजिए। किरपा आएगी ।पीयूष पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/11829771563390877484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7428917939570378789.post-31099790040008876252015-09-18T15:06:00.002+05:302015-09-18T15:06:08.841+05:30पीएम की सिलिकॉन वैली की यात्रा का सबबप्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी आगामी अमेरिकी यात्रा के दौरान सिलिकॉन वैली जाएंगे तो इसका मतलब क्या है? फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग, गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई, एपल के सीईओ टिम कुक और एडोब के सीईओ शांतनु नारायण समेत सूचना तकनीक के तमाम दिग्गजों से उनकी मुलाकात होनी है तो क्या ये सिर्फ एक राष्ट्र प्रमुख की विदेशी निवेश की चाहत लिए कुछ तकनीकी कंपनियों के दिग्गजों से मुलाकात भर होगी या इस मुलाकात के बाद भारत में सूचना तकनीक की दुनिया को नयी दिशा मिलेगी ? दरअसल, सवाल कई है क्योंकि नरेंद्र मोदी खुद सोशल मीडिया के माहिर खिलाड़ी हैं, नयी तकनीक का महत्व समझते हैं और 'डिजिटल इंडिया' के ख्वाब को साकार करना चाहते हैं।
नरेंद्र मोदी की यात्रा से पहले अमेरिकी शिक्षाविदों ने उनके खिलाफ सूचना तकनीकी कंपनियों को खत लिखकर विरोध भी जताया और अब इस विरोध को लेकर मोदी समर्थक और विरोधी आपस में भिड़े हुए हैं। दरअसल, मोदी के डिजिटल इंडिया अभियान पर सवाल उठाते हुए अमेरिका के कुछ शिक्षाविदो सिलिकन वैली की प्रमुख कंपनियों को खत लिखकर कहा था कि डिजिटल इंडिया निजता का हनन है। खत में प्रमुख प्रौद्योगिकी कंपनियों को भारत सरकार के साथ काम करने के खतरों के प्रति आगाह करते हुए कहा गया था कि मोदी सरकार ने सांस्कृतिक एवं शैक्षिक संस्थानों की स्वायत्तता के अलावा नागरिक स्वतंत्रता और मानवाधिकारों के प्रति अपना असम्मान दिखाया है। यह खत सामने आया तो मोदी समर्थकों ने शिक्षाविदो को कठघरे में खड़ा करते हुए सवाल किया कि सबसे ज्यादा निजता का उल्लंघन तो अमेरिका में ही होता है, जहां प्रिज्म जैसा प्रोजेक्ट बाकायदा सरकार के नेतृत्व में चला। इसके अलावा विरोधी अब मोदी का विरोध नहीं बल्कि राष्ट्र विरोधी बातें कर रहे हैं, जिसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।
इस विरोध ने यह भी जता दिया कि मोदी की अमेरिकी यात्रा के दौरान सोशल मीडिया पर एक बहस बदस्तूर जारी रहेगी। लेकिन मुद्दा बेमानी बहस का नहीं है क्योंकि मोदी का अमेरिका जाना भी तय है और सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियों से मिलना भी क्योंकि वे मोदी के लिए पलक पांवड़े बिछाए बैठे हैं। फेसबुक मुख्यालय में तो नरेंद्र मोदी मार्क जुकरबर्ग के साथ उपयोक्ताओं के सवाल-जवाब सत्र में भी हिस्सा लेंगे।
दरअसल, नरेंद्र मोदी की सिलिकॉन वैली यात्रा को इस आधार पर नापा जाना चाहिए कि मोदी वहां से क्या लाते हैं? क्योंकि फेसबुक, ट्विटर, गूगल और एपल जैसी तमाम कंपनियों के लिए तो भारत सबसे बड़े बाजारों में एक है, और इन कंपनियों की भावी सफलता अब इस बात पर ही निर्भर है कि उन्हें भारत में कितनी जगह मिलती है। फेसबुक के भारत में फिलहाल 14 करोड़ यूजर्स हैं, और अगले दस साल में फेसबुक की योजना इन्हें 100 करोड़ तक पहुंचाने की है। गूगल स्ट्रीट व्यू कारों का संचालन भारत में करना चाहता है। इसके लिए बाकायदा सरकार के पास आवेदन किया गया है और मोदी संभवत: खुद गूगल मुख्यालय में इस बात की घोषणा करना चाहते हैं कि गूगल स्ट्रीट व्यू कारों के संचालन को भारत में मंजूरी दी जाती है क्योंकि 14 सितंबर को मोदी ने गृह मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय को खत लिखकर गूगल के आवेदन का स्टेटस पूछा। और दोनों से महज तीन दिनों के अंदर जवाब देने को कहा गया। बावजूद इसके कि गूगल की स्ट्रीट व्यू कारों को लेकर कई देशों में आपत्ति जताई जा चुकी है और संवेदनशील ठिकानों की तस्वीरें लेने को लेकर स्ट्रीट व्यू कार कठघरे में खड़ी की गई, मोदी स्ट्रीट व्यू कारों को लेकर उत्सुक हैं तो वजह यही है कि गूगल को एक तोहफा दिया जा सके। हालांकि, इस बारे में सरकार का आखिरी रुख साफ नहीं है लेकिन माना जा रहा है कि गूगल को भारत सरकार की तरफ से तोहफा मिल सकता है।
सिलिकॉन वैली की सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियां भारत में कितना निवेश करती हैं-ये आने वाले दिनों में पता चलेगा क्योंकि मोदी की नजर उस निवेश पर भी होगी। लेकिन बड़ा सवाल निवेश का नहीं तकनीक का है। आखिर सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियां भारत को ऐसी कौन सी तकनीक देती हैं या ऐसे कौन से एप्लीकेशन बनाने में भारतीय कंपनियों को मदद करती हैं,जिनसे आम भारतीयों को लाभ हो। सूचना तकनीक के दिग्गजों के बीच खड़े मोदी से यह सवाल तो किया ही जा सकता है कि आखिर ऐसी क्या वजह रही कि दुनिया की नामी कंपनियों के सीईओ भारतीय हैं और वहां काम करने वाला बड़ा वर्ग भारतीयों का है पर भारत कभी गूगल-फेसबुक या एपल जैसी कंपनी नहीं बना सका। बीते दो दशकों से भारत सॉफ्टवेयर निर्यात के जरिए सूचना तकनीक क्षेत्र को सींच रहा है और आज भी मूलत: वही हाल है।
सिलिकॉन वैली यात्रा से मोदी के डिजिटल इंडिया कैंपेन को कितना फायदा होता है-ये भी बड़ा सवाल है। क्योंकि अभी
डिजिटल इंडिया कैंपेन की सफलता में अमेरिकी कंपनियों की भूमिका कम दिख रही है। वजह ये कि डिजिटल इंडिया की सफलता भारत में मौजूद बुनियादी ढांचे से जुड़ी है। सरकार ने डिजिटल इंडिया को लेकर जो योजना बनाई है, सवाल उसके क्रियान्वयन की तैयारी का है? ब्रॉडबैंड हाइवे के मामले में सबसे बड़ी बाधा है कि नेशनल ऑप्टिक फ़ाइबर नेटवर्क का प्रोग्राम, जो करीब चार साल पीछे चल रहा है। क्या अचानक तार बिछाने की गति तेज की जा सकती है और ये सवाल इसलिए भी इस संबंध में यूपीए सरकार भी मानती थी कि फाइबर ऑप्टिक्ल्स तेजी से बिछाने चाहिए। सरकार का दूसरा लक्ष्य है सबके पास फोन की उपलब्धता। लेकिन, जिस देश में गरीबी की परिभाषा 28 रुपए और 33 रुपए में उलझी हो तो वहां क्या ये संभव है। सरकार हर किसी के लिए इंटरनेट चाहती है तो यह बहुत अच्छी बात है। लेकिन पीसीओ की तर्ज पर इंटरनेट एक्सेस प्वाइंट का खांका तो बहुत साल से तैयार है, जिस पर अभी तक अमल नहीं हो पाया। राष्ट्रीय डिजिटल साक्षरता मिशन अपने पहले चरण में अपने लक्ष्य से खासा पीछे चल रहा है। सरकारी दफ्तरों को डिजिटल बनाने और सेवाओं को नेट से जोड़ने के मामला इतना आसान नहीं है क्योंकि काम तो लोगों को ही करना है। कई दफ्तर जो डिजिटल हो चुके हैं, वहां काम करने वाले लोग खुद को तैयार नहीं कर पा रहे हैं। यानी एक नयी डिजिटल फौज की जरुरत होगी। ई-लॉकर जैसी तमाम योजनाएं जो आम शहरी के लिए फायदेमंद है, उसका प्रचार नहीं हो पा रहा। फिर स्टार्टअप्स के लिए कारोबारी माहौल तैयार करने और उनके लिए धन की व्यवस्था करने जैसे मुद्दे भी है।
यानी देश में सूचना तकनीक को गति देने के मामले में जो चुनौतियां हैं, उनसे सरकार को ही पार पाना है और इसमें फेसबुक-गूगल जैसी कंपनियां ज्यादा भूमिका नहीं निभा सकती। तो इंतज़ार कीजिए मोदी की सिलिकॉन वैली यात्रा से हासिल का।
पीयूष पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/11829771563390877484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7428917939570378789.post-27932785610761469942015-09-08T00:07:00.000+05:302015-09-08T00:07:11.592+05:30कॉल ड्रॉप के फायदे ( व्यंग्य)क्या आप कॉल ड्रॉप की समस्या से परेशान हैं? क्या आप कॉल ड्रॉप की वजह से झुंझलाए रहते हैं? क्या आपको लगता है कि कॉल ड्रॉप की वजह से आपकी ज़िंदगी नरक हो गई है? यदि हां, तो यह व्यंग्य आपके लिए है,क्योंकि समस्या पीड़ितों के लिए यह व्यंग्य नहीं गंभीर आलेख है। या कहें ऐसा बंगाली दवाखाना है, जो खुद आपके पास चलकर आया है।
दरअसल, कॉल ड्रॉप यानी मोबाइल पर बात करते करते कट जाने की समस्या उतनी बुरी नहीं जितनी आपको लग रही है। सच तो यह है कि कंपनियां कॉल ड्रॉप कर करके ग्राहकों को सुविधा दे रही हैं। कॉल ड्रॉप के रुप में ग्राहकों को ऐसी रहमत मिली है, जिसके लाभ के बारे में वे सोच ही नहीं रहे।
मसलन सुबह आपका बॉस फोन करता है तो आप क्या करते हैं? आप फोन उठाते हैं और सबसे पहले सुबह उस शख्स की आवाज़ सुनते हैं, जिसकी आवाज़ आप सिवाय उस दिन के नहीं सुनना चाहते, जब वो आपको बुलाकर इंक्रीमेंट लैटर देता है। लेकिन सुबह सुबह आपको वो फटी आवाज़ सुननी पड़ती है क्योंकि फोन उठाना आपकी मजबूरी है। जबकि फोन कब रखा जाएगा, यह तय करना बॉस का अधिकार। बॉस किसी भी बात के लिए आपको फोन करता है। मसलन-कई बॉस पहले एसएमएस करेंगे और फिर फोन करेंगे कहेंगे-"यार एक एसएमएस किया है, देख लेना।" अरे ! जब फोन ही करना तो एसएमएस क्यों किया। लेकिन, कॉल ड्रॉप की समस्या ने झटके में सर्वहारा वर्ग को साम्राज्यवादी शक्तियों के बराबर ला खड़ा किया है। अगर आपको बॉस की आवाज़ पसंद नहीं आ रही तो आप हैलो हैलो करते हुए फोन काट सकते हैं और इसका ठीकरा कॉल ड्रॉप पर फोड़ सकते हैं। चूंकि यह समस्या सर्वविद्यमान है तो आप की नीयत पर शक करना बॉस के लिए आसान नहीं होगा।
बॉस की छोड़िए, कॉल ड्रॉप की सुविधा का लाभ उन अनंत आशिकों को भी मिल सकता है, जिनके पास ऐसी गर्लफ्रेंड हैं, जो फेविकोल की ब्रांड एम्बेसेडर हुए बिना उसका प्रचार कर रही हैं। मसलन-कई गर्लफ्रेंड फोन पर एक ही सवाल इतनी बार पूछती हैं कि बंदा लगभग मूर्छित होने की स्थिति में आ जाता है। कई सगाई धारक और विवाह को प्रतीक्षारत भावी दुल्हे अपनी मंगेतर के सवालों से इतना परेशान हो जाते हैं कि अगर आलस्य का गुण उनमें कूट कूटकर न भरा हो तो वे रजाई से निकलकर अपना सिर कहीं पटक आएं। आलस्य नामक गुण मंगेतर के कई सवालों को एक हजार बार सुनने के बावजूद उन्हें आत्महत्या की कोशिश से बचाए रखता है। मसलन-शादी से छह महीने पहले ही मंगेतर पूछने लगती है- हम शादी के बाद कहां रहेंगे। तुम्हारी मम्मी हमारे साथ रहेंगी या देवर जी के साथ। मैं पहले ही बता रही हूं कि मुझे खाना बनाना नहीं आता। हम हनीमून पर मॉरीशस जा रहे हैं न। तुमने स्विटजरलैंड की टिकट बुक करा ली न ! वगैरह वगैरह। मंगेतर के ऐसे सवालों के विकट दौर में कॉल ड्रॉप की समस्या वरदान साबित हो सकती है।
कॉल ड्रॉप का सबसे बड़ा फायदा है कि बेईमान और अनैतिक होते हुए भी आप नैतिक और ईमानदार बने रह सकते हैं। कलयुग में यह कॉम्बो ऑफर किस्मतवालों को ही मिलता है। या कहिए कि जिस तरह दिखते सभी को हैं लेकिन प्लेन के सस्ते टिकट हर ग्राहक को नहीं मिल पाते उसी तरह अनैतिक होते हुए नैतिक दिखने का वरदान सबको नहीं मिलता।
तो अब आप समझ गए होंगे कि कॉल ड्रॉप कोई समस्या नहीं बल्कि टेलीकॉम कंपनियों द्वारा ग्राहक को दी जा रही एक अदृश्य सुविधआ है। आप भी कॉल ड्रॉप सुविधा का लाभ उठाइए और जीवन का भरपूर आनंद लीजिए।
पीयूष पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/11829771563390877484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7428917939570378789.post-25198233640244485102015-08-04T20:14:00.001+05:302015-08-04T20:14:49.012+05:30अश्लील साइट्स के मुद्दे पर बहस जरुरीकेंद्र सरकार के बीते शुक्रवार को करीब 857 पोर्न साइट्स पर पाबंदी का आदेश सार्वजनिक हुआ तो हंगामा मच गया। सोशल मीडिया पर सरकार के इस कदम की जमकर मुखालफत भी हुई। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में 2013 में दाखिल एक जनहित याचिका के संबंध में कार्यवाही करते हुए यह फैसला किया है। 'नैतिकता' और 'शालीनता' का हवाला देते हुए सरकार ने यह भी कहा कि यह प्रतिबंध उन साइट्स के खिलाफ है, जिन पर बच्चों से संबंधित अश्लील सामग्री उपलब्ध थी।
सरकार के इस फैसले और उस पर मचे हंगामे ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। मसलन क्या सरकार के फैसले का एक सिरा अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़ता है? क्योंकि 8 जुलाई को ही सुप्रीम कोर्ट ने इंटरनेट पर अश्लील साइट्स को ब्लॉक करने संबंधी मामले में सुनवाई करते हुए कहा था कि पोर्न साइट पर प्रतिबंध निजता और व्यक्तिगत आजादी के खिलाफ होगा। प्रधान न्यायाधीश एचएल दत्तू ने कहा "अगर कोई मेरी कोर्ट में आता है और कहता है कि मैं एक वयस्क हूं और आप कैसे इस बात का फैसला करेंगे कि मैं वयस्क फिल्म देखूं या नहीं। व्यक्तिगत आजादी के मौलिक अधिकार की वजह से इस पर पाबंदी नहीं लगायी जा सकती है।" हालांकि कोर्ट ने यह भी कहा कि ये एक गंभीर मसला है।
सवाल ये भी है कि क्या चंद साइट्स को ब्लॉक करने से क्या इंटरनेट पर पोर्नोग्राफी रुक सकती है? क्योंकि प्रॉक्सी सर्वर के जरिए आसानी से अश्लीस साइट्स तक पहुंचा जा सकता है और आज के तकनीकी युग में प्रॉक्सी सर्वर के बारे में नयी पीढी जानती है और जो लोग नहीं जानते वे आसानी से इंटरनेट के जरिए जान सकते हैं। इसके अलावा, जब मोबाइल फोन के जरिए आसानी से पोर्न कंटेंट इधर-उधर किया जाना संभव है तो इंटरनेट पर अश्लील साइट्स पर पाबंदी का मतलब क्या है? इतना ही नहीं, भारत में अश्लील साइट्स नहीं देखने को लेकर कोई कानून नहीं है, जिसका सहारा लेकर सरकार पूरी तरह इन वेबसाइट्स पर पाबंदी लगा सके, और इसीलिए नैतिकता और शालीनता जैसे तर्कों के आसरे पाबंदी को अमली जामा पहनाया गया।
पोर्नोग्राफी के विषय में एक कहावत भी है-‘पोर्नोग्राफी इज द बीस्ट, विच थ्राइव ऑन द रिप्रेशन'। यानी पॉर्नोग्राफी ऐसा राक्षस है, जिसे जितना ज्यादा दबाया जाएगा, वह उतना ही ज्यादा ताकतवर बन जाएगा। इसलिए इंटरनेट पर अश्लील साइटों के खिलाफ पाबंदी का एक पहलू ये भी है कि साइट्स पर जितनी पाबंदी लगाई जाएगी, उतनी ही संख्या में नयी वेबसाइट्स शुरु होंगी।
लेकिन इसके विपरित एक सवाल यह भी है कि क्या पोर्न साइट्स पर पाबंदी जरुरी नहीं है? क्योंकि जिस तरह इंटरनेट के रथ पर सवार होकर अश्लील कंटेंट नैतिक प्रदूषण फैला रहा है। खासकर बच्चों के दिमाग को प्रभावित कर रहा है और बच्चों से संबंधित पोर्नोग्राफी के बाजार को बढ़ावा दे रहा है, उसके अपने खतरे तो हैं ही।
दरअसल, अश्लील साइट्स पर पाबंदी के फैसले में कई पेंच है, जिससे इसका सकारात्मक पक्ष दब जाता है, जबकि नकारात्मक पक्ष उजागर होता है। अच्छी बात यह है कि सरकार के इस फैसले के बाद पोर्न कंटेंट को लेकर समाज में दबी बहस फिर सतह पर आ गई, क्योंकि अश्लील वेबसाइट्स के हिमायती लोगों की बड़ी संख्या है और जो बात अभी तक आंकड़ों के इर्दगिर्द कही जाती थी, अब उसे चेहरे मिल रहे हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि समाज में वयस्कों को अश्लील सामग्री पढ़ने-देखने से रोकने का कोई आधार नहीं है। अश्लील साइट्स का अपना बाजार है, जो लगातार तेजी से बढ़ भी रहा है। पॉर्नहब नाम की एक कंपनी ने 2014 में भारत में पोर्नोग्राफी के ट्रेंड पर सर्वे करवाया था और इंटरनेट पोर्नोग्राफी के लिहाज़ से भारत दुनिया में पांचवें स्थान पर पाया गया था। इस सर्वे के मुताबिक भारत के 50 फ़ीसदी लोग अपने स्मार्टफ़ोन से ऑनलाइन पोर्नोग्राफी वेबसाइट पर जाते हैं। पॉर्न साइट देखने वाला औसत भारतीय सात पेज से ज़्यादा देखता है जो कि दुनिया के औसत से तीन गुना अधिक है। और सर्वे में ये भी पता चला कि मिजोरम, दिल्ली, मेघालय और महाराष्ट्र में पोर्नोग्राफी देखने वालों का सबसे बड़ा बाज़ार है। अमेरिकी वेबसाइट 'द डेली बीस्ट' के पोर्नहब के साथ मिलकर किए अध्ययन के मुताबिक भारत में पोर्न देखने के मामले में अब भारतीय महिलाएं भी बहुत तेजी से आगे निकल रही हैं। नए आंकड़ों के मुताबिक ऑनलाइन पोर्न देखने वाली महिलाओं की कुल संख्या में भारतीय महिलाओं की संख्या 26 फीसदी से बढ़कर 30 फीसदी के स्तर पर पहुंच गई है। पिछले वर्ष यह आंकड़ा 26 फीसदी था। भारत में डिजिटल पोर्नोग्राफी का बाजार 500 करोड़ से ज्यादा का है।
लेकिन मुद्दा इंटरनेट-मोबाइल पर उपलब्ध अश्लील सामग्री से बच्चों के जुड़ाव का है और इस बहस में इस मुद्दे पर ही ज्यादा चर्चा नहीं हो रही। मैक्केफी के कुछ महीने पहले किए एक सर्वे के मुताबिक दिल्ली के किशोरों में 53 फीसदी ऑनलाइन पोर्न सामग्री देखते हैं, जबकि 29 फीसदी दिन में कई बार अश्लील सामग्री देखते हैं।
इंटरनेट पर उपलब्ध अश्लील सामग्री तक बच्चों की सहज पहुंच की चिंताजनक है। इस बाबत अब बात होनी चाहिए। दुनिया के कई देशों में बच्चों के लिए इंटरनेट को सुरक्षित बनाने की दिशा में काम हो रहा है।चीन में ‘क्लीनिंग द वेब-2014’ अभियान के तहत 5०० से ज्यादा अश्लील वेबसाइटों को बंद कर दिया गया था। जर्मनी में ऐसी साइटों को रोकने के लिए ‘किंडर सर्वर’ शुरू किया गया। लेकिन भारत में ऐसी कोई कोशिश फिलहाल नहीं हुई।
यह अजीबोगरीब है कि सड़क पर गाड़ी चलाने के लिए हमें ड्राइविंग लाइसेंस लेने की आवश्यकता होती है। लेकिन इंटरनेट के सुपर हाइवे पर गाड़ी दौड़ाने के लिए किसी को किसी तरह के लाइसेंस अथवा ट्रेनिंग की कोई आवश्यकता नहीं। इंटरनेट के इस्तेमाल के बाबत लगातार हो रहे सर्वे बता रहे हैं कि घरों में बच्चे इंटरनेट किस तरह इस्तेमाल कर रहे हैं-इसका मां-बाप को अमूमन पता नहीं होता। इंटरनेट कनेक्शन देते वक्त इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर किसी तरह का कोई क्रैश कोर्स नहीं करातीं या जानकारी देतीं कि इंटरनेट पर क्या क्या सावधानियां बरती जाएं ताकि बच्चों के हाथों में सुरक्षित कंटेंट पहुंचे।
अश्लील साइट्स पर पाबंदी के बीच सरकार की तरफ से एक बयान यह भी आया है कि यह पाबंदी अस्थायी है लेकिन सच यही है कि इंटरनेट पर पोर्न कंटेंट को तकनीकी रुप से रोकना लगभग असंभव है। एक विकसित समाज में कौन क्या देखेगा-यह तय करना सरकार का काम नहीं है। यह लोगों को खुद तय करना होगा। लेकिन इंटरनेट के जरिए बहती अश्लीलता बच्चों के कोमल मन को प्रदूषित न करे-इसकी जिम्मेदारी किसकी है?
पीयूष पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/11829771563390877484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7428917939570378789.post-70633915363693646722015-07-02T13:57:00.001+05:302015-07-02T13:57:36.783+05:30सवाल नेहरु का नहीं, हमारा हैभारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के विकीपीडिया प्रोफाइल को 27 जून को किसी ने बदल दिया और उन्हें मुस्लिम बता दिया। उनके पिता मोतीलाल नेहरु और उनके दादा के प्रोफाइल पेज पर भी इसी तरह छेड़खानी की गई। इतना ही नहीं, नेहरु के बारे में कुछ अन्य आपत्तिजनक बातें भी प्रोफाइल में जोड़ी गईं। कांग्रेस ने आरोप लगाया कि जिस आईपी एड्रेस से यह छेड़खानी की गई, वो केंद्र सरकार को सॉफ्टवेयर देने वाली संस्था नेशनल इंफोरमेटिक्स सेंटर के दफ्तर का है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक नेशनल इंफोरमेटिक्स सेंटर ने अब इस बाबत आंतरिक जांच शुरु कर दी है कि किसने यह छेड़खानी की।
दुनिया के सबसे बड़े ऑनलाइन संदर्भकोश विकीपीडिया पर नेहरु के प्रोफाइल से छेड़छाड़ कोई पहला मामला नहीं है, लेकिन इस मामले में एनआईसी का नाम आन के बाद विवाद न केवल अहम हो गया है बल्कि कई सवालों के जवाब की मांग करता है। सबसे बड़ा सवाल यही कि क्या सरकार विरोधी दलों के बड़े नेताओं की वर्चुअल पहचान को धूमिल करने की कोशिश कर रही है?
दुनिया की तमाम बड़ी कंपनियां अपने ब्रांड या प्रोडक्ट का विकीपीडिया पेज लगातार न केवल अपडेट करती हैं बल्कि उनमें उत्पाद की खूबियां बढ़ा चढ़ाकर पेश करनी की कोशिश करती हैं। इसके लिए पेशेवर लोगों की मदद ली जाती है। इंटरनेट पर सूचना प्राप्ति का विकीपीडिया प्राथमिक और महत्वूर्ण स्रोतों में एक है तो इस चलन को कंपनियों से आगे बढ़कर कुछ सरकारों ने भी अपनाया और बड़ी शख्सियतों ने भी। बावजूद इसके सच यही है कि विकीपीडिया 'ओपन सोर्स' है, और इसमें संपादन (कुछ मामलों को छोड़कर) कोई भी कर सकता है।
विकीपीडिया के बारे में कई भ्रांतियां है। सबसे पहली तो यही कि कई लोग इसे प्रामाणिक संदर्भकोश की तरह देखते हैं। जबकि विकीपीडिया में गलतियों की भरमार है। कुछ साल पहले अमेरिका के पेन स्टेट विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर मारिका डब्लू डिसटासो ने अपने अध्ययन में पाया था कि विकीपीडिया पर मौजूद हर दस में से छह लेखों में अशुद्धियां हैं। अध्ययन के दौरान किए एक सर्वे के मुताबिक जब विकीपीडिया के टॉक पेज के जरिए अशुद्धियां दुरुस्त करने की कोशिश हुई तो नतीजा बहुत उत्साहजनक नहीं रहा। 40 फीसदी लोगों को विकीपीडिया के संपादकों की तरफ से प्रतिक्रिया मिलने में एक दिन से ज्यादा का समय लगा, जबकि 12 फीसदी को एक हफ्ते से ज्यादा का वक्त लगा। खास बात यह कि 25 फीसदी शिकायतों के संदर्भ में तो कोई प्रतिक्रिया ही नहीं मिली। इस अध्ययन के मुताबिक 60 फीसदी कंपनियों के पेजों पर उनके अथवा उनसे जुड़े ग्राहकों के बारे में तथ्यात्मक रुप से गलत जानकारी है। गौरतलब है कि विकीपीडिया ने करीब तीन साल पहले स्वयं अपने अपने संदर्भ कोष के बारे में कराए एक अध्ययन में पाया था कि 13 फ़ीसदी लेखों में ग़लतियाँ हैं।
साल 2012 में विकिपीडिया की विश्वसनीयता को बड़ा सवाल उस वक्त खड़ा हो गया था, जब एक काल्पनिक युद्ध से संबंधित लेख को पाँच साल बाद साइट से हटाने की बात सार्वजनिक हुई। यह लेख ‘बिकोलिम संघर्ष’ नाम के एक काल्पनिक युद्ध के बारे में था। इसमें 17वी शताब्दी में पुर्तगालियों और मराठा साम्राज्य के बीच काल्पनिक युद्ध का जिक्र था। बाद में वेबसाइट को जानकारी मिली कि ऐसा युद्ध कभी हुआ ही नहीं और लेख में शामिल जानकारियां और संदर्भ पूरी तरह काल्पनिक हैं। यह लेख जुलाई 2007 में विकिपीडिया पर डाला गया था और सिर्फ दो महीने बाद वेबसाइट के संपादकों ने इसे अच्छे लेखों की श्रेणी में डाल दिया था। उल्लेखनीय है कि विकिपीडिया पर उपलब्ध अंग्रेजी के कुल लेखों में सिर्फ एक फीसदी लेखों को इस श्रेणी में रखा गया है। विकीपीडिया पर सामग्री से छेड़छाड़ का एक मामला 2011 जुलाई में मुंबई बम धमाकों के वक्त सामने आया था, जब अजमल कसाब के जन्म तारीख को एक दिन में ही 8 से ज्यादा बार बदला गया।
विकीपीडिया की विश्वसनीयता 100 फीसदी कभी नहीं रही। हां ये तमाम विषयों पर जानकारी का प्रथम स्रोत अवश्य है। दिक्कत यही है कि विकीपीडिया प्रथम स्रोत के बजाय मुख्य स्रोत की जगह लेता जा रहा है। इसकी लोकप्रियता का आलम यह है कि 244 साल पहले शुरु हुए सबसे प्रामाणिक संदर्भकोश ब्रिटेनिका को भी अपना प्रिंट संस्करण बंद करना पड़ा है। इसमें भी ध्यान रखने वाली बात यह है कि विकीपीडिया के पेजों को विकीपीडिया के स्वयंसेवक अपडेट करते हैं। अंग्रेजी विकीपीडिया के स्वयंसेवकों की संख्या लाखों में है, इसलिए अंग्रेजी विकीपीडिया तेजी से अपडेट होता है, जबकि हिन्दी समेत तमाम क्षेत्रीय भाषाओं के पेजों में सैकड़ों त्रुटियां कई-कई दिनों तक सुधारी नहीं जातीं। दिक्कत यह है कि अकादमिक, पत्रकारीय और अन्य महत्वपूर्ण मंचों पर भी विकीपीडिया से ली सामग्री बिना 'क्रॉस चैक' के इस्तेमाल की जा रही है।
लेकिन अब सवाल विकीपीडिया की विश्वसनीयता भर का भी नहीं है। सवाल है वर्चुअल दुनिया में अपनी पहचान के विषय में पता होने और उसे बचाने का। क्या हमने कभी देखा है कि वर्चुअल दुनिया में हमारी पहचान कैसी है? बहुत मुमकिन है कि किसी अंजान ब्लॉग पर आपके बारे में ऐसी भ्रामक और गलत बातें लिखी हों-जिनके बारे में आपको पता ही नहीं हो और सर्च इंजन में आपके बारे में खोजने पर वही पेज सबसे पहले आता हो। हो सकता है कि आपके नाम से कोई टि्वटर या फेसबुक खाता संचालित हो रहा है, जिस पर आपने कभी ध्यान ही नहीं दिया हो।
विकीपीडिया पर जवाहरलाल नेहरु के पेज से छेड़छाड़ ने फिर इस मुद्दे को प्रमुखता से उठा दिया है। क्योंकि सवाल सिर्फ जवाहरलाल नेहरु, महात्मा गांधी या किसी बड़े राजनेता का नहीं, हमारा भी है। सवाल हमारी 'वर्चुअल आइडेंटिटी' का भी है। नए डिजिटल समाज में हर सामाजिक व्यक्ति की वर्चुअल दुनिया में भी एक पहचान है, और यह जिम्मेदारी उसे खुद उठानी होगी कि उसकी आभासी पहचान सही सलामत और प्रामाणिक रहे। यह बड़ी चुनौती है कि क्योंकि अभी भी देश में डिजिटल साक्षरता बहुत अधिक नहीं है, और लोग वर्चुअल पहचान को लेकर ज्यादा सजग नहीं है। सच यही है कि इंटरनेट के विस्तार के साथ इस नई समस्या के बड़े खतरों से रुबरु होना हमें अभी बाकी है।
(लेखक सोशल मीडिया जानकार है)पीयूष पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/11829771563390877484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7428917939570378789.post-60143252294715811492015-06-04T10:00:00.000+05:302015-06-04T10:01:32.363+05:30कम नंबर लाने के भी फायदे हैं ! (व्यंग्य)सीबीएसई बोर्ड के दसवीं-बारहवीं के नतीजे आ गए हैं। कुछ बच्चों को 100 फीसदी नंबर मिले हैं। 97-98-99 फीसदी नंबर लाने वाले तो कई हैं। ऐसा लग रहा है कि मानो नंबरों की लूट मची और बच्चों ने पैन की नोंक पर सब लूट डाले। इत्ते नंबर मिले हैं कि कई बार शक होता है कि जांचने वाले अध्यापक ने वास्तव में ठीक तरह से जांच की भी या नहीं ? एमपी बोर्ड और यूपी बोर्ड से दसवीं-बारहवीं कर चुके लोग तो नंबरों के इस खेल की जांच की मांग कर सकते हैं। यूपी-एमपी बोर्ड में दसवीं-बारहवीं में मिलाकर जितने अंक नहीं आते थे, सीबीएसई में एक बार में ही आ जाते हैं। ऐसे में नंबरों के घोटाले की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता।
इस देश में आज तक किसी घोटाले की जांच कायदे से निष्कर्ष पर नहीं पहुंची, लिहाजा नंबरों के घोटाले की जांच का निष्कर्ष तक पहुंचना असंभव है। लेकिन सवाल नंबरों का नहीं, उन बच्चों का है, जिनके नंबर नहीं आए। वे उदास हैं। इस कदर उदास हैं कि कुछ पटरी तक हो आए और ट्रेन को दो मिनट विलंब से आता देख अपने खुदकुशी के कार्यक्रम को स्थगित कर लौट आए। कुछ ने घर से भागने का प्रोग्राम इसलिए स्थगित कर रखा है कि बाहर गर्मी बहुत है। उन्हें सिर्फ अच्छे मौसम का इंतज़ार है।
इस देश में नंबरों का बड़ा महत्व है। बैंक एकाउंट से लेकर संसद तक अंकों के आसरे सफलता का आँका जा रहा है। लेकिन बोर्ड के इम्तिहान में कम नंबर वाले इस चक्कर में न फंसें। कम नंबर का अपना महत्व है। उसके अपने लाभ हैं और उस फायदे को समझें। इससे बड़ी किरपा आएगी।
कम नंबर का आर्थिक लाभ यह है कि आपको पार्टी नहीं देनी पड़ेगी। आपके मां-बाप को भी नहीं। आप सिर्फ पार्टी उड़ाएंगे, देंगे नहीं। यानी महंगाई के इस दौर में जबरदस्त बचत। कम नंबर का दूसरा लाभ यह है कि आप यह बता सकते हैं कि आप जिस बात को शिद्दत से महसूस करते हैं, उसी राह पर चलते हैं। और आप इस बात को शिद्दत से महसूस कीजिए कि अंकों का कोई मतलब नहीं है।
कम नंबरों का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इससे आप पर कोई दबाव नहीं रहता। घर के सारे सदस्य समझ जाते हैं कि आप निठल्ले हैं या आपसे कुछ नहीं होगा। और जब तक दबाव नहीं होता तो इंसान मस्ती की धुन में रहता है। इसके अलावा जब दबाव न हो और फिर बंदा छक्के जड़ दे तो झटके में खिलाड़ी महान हो जाता है। पीयूष पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/11829771563390877484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7428917939570378789.post-85346443760193371702013-07-02T12:52:00.000+05:302013-07-02T12:52:04.341+05:30सवाल स्नोडेन से आगे का अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के पूर्व कर्मचारी एडवर्ड स्नोडेन के खुलासों से तिलमिलाए अमेरिका की मुसीबत कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। एक तरफ, स्नोडेन अमेरिका की गिरफ्त से लगातार बाहर बना हुआ है, तो दूसरी तरफ स्नोडेन द्वारा लीक जानकारियों से नए नए राज़ सामने आ रहे हैं। जर्मनी की पत्रिका डेयर स्पिगल के मुताबिक स्नोडेन के दस्तावेजों से खुलासा हुआ है कि अमेरिका ने वाशिंगटन, न्यूयॉर्क और ब्रूसेल्स में ईयू के दफ्तरों पर इलेक्ट्रॉनिक निगरानी और कंप्यूटर नेटवर्क हैक किए। इस खुलासे से नाराज यूरोपियन यूनियन ने अमेरिका से सफाई माँगी है। द गार्जियन ने इस खुलासे को नया आयाम दे दिया है। गार्जियन के मुताबिक राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी के जासूसी के लिए लक्ष्य 38 ठिकानों में भारतीय दूतावास भी शामिल था। अमेरिकी सरकार इन आरोपों पर अब चुप्पी साधे है।
अमेरिका के लिए बड़ी परेशानी स्नोडेन को वापस देश लाना है, जिस पर जासूसी, सरकारी डाटा चुराने और अनाधिकृत लोगों तक खुफिया सूचना पहुंचाने का आरोप है। बीती 13 मई को अमेरिकी जासूसी के बाबत खुलासों के साथ स्नोडेन हॉगकांग पहुंच गया था, जहां से वह रूस पहुंच गया। स्नोडेन अब इक्वाडोर में राजनीतिक शरण चाहता है।
एडवर्ड स्नोडेन का प्रत्यर्पण अब एक कूटनीतिक मसला बन गया है। अमेरिका की हांगकांग से प्रत्यपर्ण संधि होने के बावजूद स्नोडेन वहां से रूस जाने में कामयाब हुआ, जिसे लेकर अमेरिका खफा है। लेकिन, इसे हॉंगकॉंग पर चीन के प्रभाव के नतीजे के रुप में देखा जा रहा है, जो अमेरिकी जासूसी की कारगुजारी के खुलासे को अपनी कूटनीतिक बढ़त रुप में देख रहा है। अमेरिका द्वारा दुनिया भर के देशों में साइबर जासूसी को अंजाम देने के खुलासे के बाद चीन को पलटवार का मौका मिल गया है, जिसे साइबर जासूसी के लिए कुख्यात माना जाता है। एडवर्ड स्नोडेन 23 जून से कथित तौर पर रूस में हैं, लेकिन रूस अमेरिकी दादागिरी के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने वाली ताकत की प्रतिष्ठा के साए में स्नोडेन रूपी हड्डी को न सहजता से उगल सकता है, न निगल सकता है।
स्नोडेन की कहानी को रोज़ पुष्ट-अपुष्ट सूचनाएं और बयान नया रंग दे रहे हैं। फिलहाल, स्नोडेन मसले पर गेंद रूस और इक्वाडोर के पाले में है, क्योंकि उन्हें अब फैसला लेना है। इक्वाडोर के राष्ट्रपति राफेल कोर्रिया कह चुके हैं कि राजनीतिक शरण के लिए आवेदन देने की प्रक्रिया इक्वाडोर के इलाके में रहकर ही की जा सकती है, जो अभी तक नहीं की गई है।
निश्चित रुप से एडवर्ड स्नोडेन एक कूटनीतिक मसला बन गए हैं और उनके संदिग्ध भविष्य पर क्या फैसला होता है, ये देखना दिलचस्प होगा। लेकिन, सवाल स्नोडेन के प्रत्यर्पण से आगे का है। सवाल अमेरिका के उस जासूसी कार्यक्रम का है, जिस पर बहस स्नोडेन के साये में दब गई है?
गौरतलब है कि ब्रिटिश अखबार गार्जियन को दिए एक साक्षात्कार में स्नोडेन ने अमरीका के दो कार्यक्रमों के बारे में बताया था। एक कार्यक्रम के जरिए एनएसए लाखों करोड़ों फोन कॉल के ब्यौरे जमा करता है। एनएसए इसके जरिए यह जानने की इच्छा रखता है कि संदिग्ध आतंकवादी अमेरिका में किन लोगों के संपर्क में हैं। दूसरा कार्यक्रम प्रिज्म था, जिसमें नौ बड़ी इंटरनेट कंपनियों के सर्वरों पर खुफिया एजेंसी की सीधी पहुंच थी। प्रिज्म के जरिए अमेरिका विदेशों में बैठे इंटरनेट उपयोक्ताओं तक नजर रखे हुए था। इस खुलासे के बाद दुनिया के कई मुल्क साइबर दुनिया में अपनी निजता को लेकर आशंकित और चिंतित हैं। लेकिन, स्नोडेन के मसले पर वह गंभीर बहस सिरे से नदारद दिख रही है।
ऐसा नहीं है कि अमेरिकी खुफिया एजेंसी और संघीय जाँच एजेंसी ने साइबर दुनिया में जासूसी का काम अभी शुरु किया है, लेकिन अति गोपनीय ‘प्रिज्म’ के बाबत खुलासे ने साफ कर दिया कि साइबर दुनिया की नौ बड़ी कंपनियां बाकायदा जाँच एजेंसियों की साझेदार हैं। ब्रिटिश समाचार पत्र ‘गार्जियन और अमेरिकी समाचार पत्र ‘वाशिंगटन पोस्ट’ ने स्नोडेन से प्राप्त दस्तावेजों के आधार पर इस सनसनीखेज खुलासे को सार्वजनिक किया था।
प्रिज़्म की शुरुआत पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के वारंटमुक्त घरेलू निगरानी कार्यक्रम की राख से हुआ, जिसे 2007 में मीडिया ने सार्वजनिक कर दिया था। इसके बाद 2007 के प्रोटेक्ट अमेरिका एक्ट और फीसा (फॉरेन एंटेलीजेंस सरविलेंस एक्ट) अमेंडमेंट एक्ट 2008 के साए में प्रिज़्म का जन्म हुआ। गार्जियन की रिपोर्ट के मुताबिक बिल गेट्स की माइक्रोसॉफ्ट सबसे पहले 11 सितंबर 2007 को इस कार्यक्रम का हिस्सा बनी। इसके बाद याहू, गूगल, फेसबुक आदि। सबसे आखिर में यानी अक्टूबर 2012 में एपल इस कार्यक्रम में शामिल हुई।
रिपोर्ट के मुताबिक प्रिज्म के तहत एनएसए माइक्रोसॉफ्ट, याहू, गूगल, फेसबुक, पालटॉक, एओएल,स्काइप,यूट्यूब और एपल के सर्वरों से सीधे सूचनाएं हासिल कर रही है। इस कार्यक्रम पर अमेरिकी सरकार बीस लाख डॉलर से ज्यादा सालाना खर्च कर रही है। गार्जियन ने यह भी खुलासा किया था कि ब्रिटेन की खुफिया एजेंसी जीसीएचक्यू भी अमेरिकी ऑपरेशन का हिस्सा है।
अमेरिका ने आतंकवादी गतिविधियों पर रोक के लिए प्रिज्म को आवश्यक बताया है। हाल में भारत दौर पर आए अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी ने इस कार्यक्रम को आवश्यक करार दिया था। लेकिन, सवाल है कि क्या निजता के अधिकार का कोई मतलब है या नहीं।
प्रिज्म के खुलासे के बाद साख का संकट अमेरिका सरकार के साथ इंटरनेट कंपनियों के सामने भी है। दिलचस्प है कि ‘विकिलिक्स’ के संस्थापक जूलियन असांजे ने रशियन टुडे को दिए एक साक्षात्कार में कहा था कि फेसबुकअमेरिकी खुफिया एजेंसियों के लिए दुनिया की सबसे बेहतरीन जासूसी मशीन है। असांजे ने कहा था, “सिर्फ फेसबुक ही नहीं, बल्कि गूगल और याहू जैसी तमाम बड़ी कंपनियों ने अमेरिकी खुफिया एजेंसियों के लिए ‘बिल्ट-इन इंटरफेस’ निर्मित कर दिए हैं।” साल 2011 में अमेरिकी कंज्यूमर वाचडॉग ने लॉस्ट इन द क्लाउड : गूगल एंड द यूएस गवर्नमेंट नाम से एक रिपोर्ट जारी कर कहा था कि गूगल एनएसए के साथ “अनुचित खुफिया रिश्ते” निभा रहा है और इसका लाभ उसे मिल रहा है।
फिलहाल, प्रिज्म के बाबत खुलासे के कुछ निहितार्थ अवश्य हैं। पहला, अमेरिका को अब कई मुल्कों को इस बाबत जवाब देना पड़ेगा और अपनी कूटनीतिक चतुराई को स्पष्ट करना होगा। चीन साइबर जासूसी के मसले पर अब अमेरिकी आरोपों को आसानी से नहीं सुनेगा। सिलिकॉन घाटी की कई इंटरनेट कंपनियां अब दूसरा ठिकाना खोज सकती हैं, जो इस आशंका से भयभीत हैं कि उनका व्यवसाय इस बात से प्रभावित हो सकता है कि वे सरकार के निकट हैं। प्रिज्म कार्यक्रम कुछ दिनों के लिए प्रभावित हो सकता है। इसके अलावा फेसबुक और गूगल जैसी कंपनियों के क्षेत्रीय स्तर पर कुछ विकल्प उभर सकते हैं।
इंटरनेट पर बहुत हद तक अभी भी अमेरिकी नियंत्रण है और अधिकांश बड़ी इंटरनेट कंपनियां अमेरिकी हैं। वे मूलत: वहां के कानूनों से संचालित होती हैं,लिहाजा सवाल भारत व अन्य देशों का है कि वे साइबर दुनिया में अपनी निजता को कैसे बचाते हैं। चिंतानजक बात यही है कि हमने भी बिना गंभीर विचार-विमर्श अमेरिका के साइबर जासूसी कार्यक्रम को समर्थन दे डाला है।पीयूष पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/11829771563390877484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7428917939570378789.post-67702532054922825292013-05-27T12:15:00.002+05:302013-05-27T12:15:43.266+05:30आठ साल की ‘यूट्यूब’ के बीच वीडियो शेयरिंग साइट यूट्यूब ने बीते सोमवार को आठ साल पूरे कर लिए। आठ साल पहले महज एक वीडियो से शुरु हुई इस साइट पर आज प्रति मिनट 100 घंटे का वीडियो अपलोड हो रहा है। कॉमस्कोर की रिपोर्ट के मुताबिक यूट्यूब पर साल 2011 में हर मिनट करीब 48 घंटे का वीडियो अपलोड हो रहा था, जबकि साल 2007 में यह आंकड़ा महज 8 घंटे का था। यूट्यूब का दावा है कि हर महीने एक अरब लोग इस साइट पर वीडियो देखते हैं। लेकिन, सवाल आंकड़े का नहीं उपयोगिता का है। क्या यूट्यूब की उपयोगिता के विस्तार लेते संसार में आम लोग वास्तव में पूरा लाभ उठा पा रहे हैं ?
बीते आठ साल में यूट्यूब ने खुद को वीडियो शेयर करने वाली साइटों में लगातार नंबर एक बना कर रखा। इसकी बड़ी वजह गूगल के पास इसका मालिकाना हक होना है तो दूसरी प्रमुख वजह उपयोगिता का दायरा बढ़ना भी है। यूट्यूब पर कोई भी शख्स वीडियो अपलोड कर सकता है, लिहाजा आज यहां चार अरब से ज्यादा वीडियो उपलब्ध हैं। आप सिर्फ कल्पना कीजिए और वह वीडियो यूट्यूब पर मौजूद है। यूट्यूब पर शादी-मुंडन और होली-दीवाली जैसे त्योहारों की तस्वीरों से लेकर राजनेताओं की प्रेस कॉन्फ्रेंस, फिल्में, पुराने मैच और तमाम हैरतअंगेज वीडियो उपलब्ध हैं। कई दिलचस्प प्रयोग यूट्यूब के जरिए परवान चढ़ रहे हैं। मसलन डब्लूडब्लूडब्लूखानएकैडमीडॉटऑर्ग नाम के वेब पते पर अपना खास स्कूल संचालित करने वाले अमेरिकी सलमान खान वर्चुअल दुनिया में ऐसा स्कूल चला रहे हैं, जहां करीब तीन लाख छात्र निशुल्क शिक्षा ले रहे हैं। कई देशी-विदेशी राजनेताओं और दूसरे सेलेब्रिटी के यूट्यूब चैनल हैं, जिन पर वो अपने वीडियो उपलब्ध कराते हैं। हॉलीवुड में यूट्यूब पर फिल्मों का प्रदर्शन शुरु हो चुका है। बॉलीवुड में भी ‘स्ट्राइकर’ समेत कुछ फिल्मों का प्रदर्शन भी यूट्यूब पर हुआ है। दो साल पहले विवाद में फँसे इंडियन प्रीमियर लीग के पूर्व कमिश्नर ललित मोदी ने खुद पर लगे आरोपों का जवाब देते हुए अपना इंटरव्यू सबसे पहले यूट्यूब पर अपलोड किया था। यूट्यूब पर आईपीएल मैचों के लाइव प्रसारण हो ही चुका है। नागरिक पत्रकारों को तो यूट्यूब ने नए पंख दिए ही हैं।
यूट्यूब को 2005 में पेपाल नामक कंपनी के तीन पूर्व कर्मचारियों ने मिलकर बनाया था लेकिन एक साल के भीतर इसकी अहमियत इंटरनेट की दुनिया की बेताज बादशाह गूगल को समझ आ गई। गूगल ने 2006 के आखिरी दिनों में इसे 1.65 अरब अमेरिकी डॉलर में खरीद लिया। गूगल की तमाम महात्वाकांक्षाओं के बीच यूट्यूब को लेकर भी एक महात्वाकांक्षा है। इसी कड़ी में साइट अब कुछ प्रमुख यूट्यूब चैनल को देखने का शुल्क वसूलने की योजना बना रही है। लेकिन निसंदेह इस महात्वाकांक्षा के बीच आम लोगों को इंटरनेट की दुनिया के कई जुदा आयामों से परिचित होने का मौका मिला है।
यूट्यूब पर लाखों किस्म के वीडियों हैं, जिनके अपने दर्शक हैं। हाल में हुए एक सर्वे के मुताबिक यूट्यूब समाचार पाने का प्रमुख माध्यम बनती जा रही है। यूट्यूब के कई वीडियो की न्यूज वैल्यू अहम साबित हुई है। ईरान में नेदा आगा ही हत्या से लेकर मिस्र के आंदोलन के दौरान तैयार कई वीडियो इसकी तस्दीक करते हैं। लेकिन यूट्यूब ने अहम शुरुआत की यूट्यूब चैनलों के साथ साझेदारी कर। आज कोई भी व्यक्ति या संस्था, जो वीडियो तैयार करती है, वो यूट्यूब के साथ करार कर सकती है, जिसके बाद दर्शकों की संख्या के आधार पर उसे राजस्व की प्राप्ति होती है।
यूट्यूब के साथ जुड़े विवाद भी कम नहीं है। कॉपीराइट सामग्री से लेकर विवादास्पद वीडियो का झंझट साइट के साथ हमेशा से रहा है, लेकिन इसकी उपयोगिता सब पर भारी है। हां, सवाल अब भविष्य के यूट्यूब का है। आखिर यूट्यूब सिर्फ वीडियो का भंडारण करता रहेगा या इसके मार्फत वर्चुअल दुनिया में किसी और नयी क्रांति का आगाज़ होगा। इतना तय है कि फिल्मों के थिएटर के साथ यूट्यूब पर रिलीज होने, बड़े खेल आयोजनों-प्रेस कॉन्फ्रेंस से लेकर अन्य महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के यूट्यूब पर लाइव टेलीकास्ट होने और यूट्यूब के आसरे अलग अलग विषयों के वर्चुअल क्लासरुम लगने जैसी घटनाएं अब सामान्य होंगी। यूट्यूब पर क्षेत्रीय भाषाओं के कंटेंट दिखने की शुरुआत हो चुकी है, जो भविष्य में खूब दिखायी देगा। इसके अलावा स्टिंग ऑपरेशन यूट्यूब के जरिए बड़े धमाके कर सकते हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि यूट्यूब ने निशुल्क वीडियो भंडारण की सुविधा देकर भी आम लोगों को बहुत बड़ी सहूलियत दी है। लेकिन, आम लोगों को यूट्यूब की गलियों से निकलते नए रास्तों को पढ़ना सीखना होगा। इन नयी राहों पर आर्थिक संभावनाओं से लेकर पहचान बनाने की संभावनाओं तक बहुत कुछ शामिल है। हां, ग्रामीण आबादी अभी इंटरनेट की पहुंच में नहीं है, लिहाजा उसे इस महत्वपूर्ण माध्यम के इस्तेमाल न कर पाने से होने वाला नुकसान तय है। यूट्यूब के आठवें जन्मदिन पर आम लोगों को यूट्यूब से होने वाले निजी फायदों के बाबत सोचना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि यहां भी कॉरपोरेट जगत इस कदर हावी हो जाए कि निजी प्रयास हाशिए पर चले जाएं।पीयूष पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/11829771563390877484noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7428917939570378789.post-23582256169041951072011-02-09T08:00:00.001+05:302011-02-09T08:01:26.742+05:30मिस्र में सोशल मीडिया पर लड़ी जंग के सबबफेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब और सोशल मीडिया के दूसरे औजारों की ताकत का इल्म पूरी दुनिया को है। मिस्र में प्रदर्शनकारियों ने इसकी ताकत का अहसास एक बार फिर कराया है। ईरान में 2009 में आंदोलनकारियों ने ट्विटर और यूट्यूब का इस्तेमाल कर सत्ताधीशों की चूलें हिला दी थीं और यही कहानी मिस्र में दोहरायी गई। मिस्र के राष्ट्रपति होस्नी मुबारक के खिलाफ आंदोलनकारियों का गुस्सा इंटरनेट पर बहते हुए भौगोलिक सीमाएं लांघने लगा तो सरकार ने इंटरनेट पर ही प्रतिबंध लगा दिया। हालांकि, 30 साल से सत्ता संभाल रहे होस्नी मुबारक के खिलाफ लोगों के दिलों में सुलग रही चिंगारी सोशल मीडिया के जरिए पहले ही एक भयंकर आग के रुप में तब्दील हो चुकी थी।<br /><br />ट्यूनीशिया में तानाशाह जाइन अल आबीदीन बेन अली की सरकार के खिलाफ जनमत तैयार करने में सोशल मीडिया के औजार पहले ही बड़ी भूमिका निभा चुके थे। विकीलीक्स ने सरकार की करतूतों का खुलासा किया तो फेसबुक,ट्विटर और यूट्यूब ने लोगों को आंदोलन का हिस्सा बना डाला। उन्हें एकजुट किया। ट्यूनीशिया की आग मिस्र में कब पहुंच गई, ये होस्नी मुबारक को ठीक से पता भी नहीं चल पाया। यहां भी लोग सोशल साइट्स के जरिए आपस में एक जुड़ते चले गए। आबीदीन बेन अली ने कई साइटों पर रोक लगाई थी, लेकिन घबराए मुबारक ने तो देश में इंटरनेट पर ही पूर्ण पाबंदी लगा डाली। 2007 में म्यांमार की सरकार ने इंटरनेट पर पूरी तरह पाबंदी लगायी थी और मिस्र में इंटरनेट पर रोक इतिहास में दूसरा मौका है। <br /><br />लेकिन, सवाल सिर्फ राजनीतिक विद्रोह के बीच सोशल मीडिया के इस्तेमाल का नहीं है। सवाल है निरंकुश शासन के दमनकारी हथकंडों के बीच अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का। अपनी बात न केवल कहने बल्कि दुनिया तक पहुंचाने का। खास बात है कि मिस्र में इंटरनेट पर रोक के कदम ने वर्चुअल दुनिया में घटती क्रांति को नयी दिशा दे डाली। दरअसल, गूगल और ट्विटर ने लोगों को मौखिक ट्वीट की सुविधा देकर इस क्रांति में एक नया अध्याय जोड़ दिया। गूगल ने ट्विटर से समझौता किया और मिस्र के लोगों की आवाज़ दुनिया तक पहुंचाने का बीड़ा उठाया। मिस्र में मोबाइल से एसएमएस करने पर भी रोक लग चुकी थी, लिहाजा इस सेवा के लिए लोगों को तीन अंतरराष्ट्रीय नंबरों पर फोन कर अपनी बात कहनी थी। उनके संदेश ऑडियो ट्वीट की शक्ल में ट्विटर व कुछ अन्य साइट पर उपलब्ध कराए गए। महज दो-तीन दिनों में ट्विटर की इस सेवा से हजारों लोग जुड़ गए और ट्वीट करने वालों में मिस्र के अलावा कई दूसरे अरब और पश्चिमी देश के लोग शामिल हो गए। इस सेवा का बड़ा फायदा अंतरराष्ट्रीय मीडिया संस्थानों को मिला, जिन्हें आम लोगों की आवाज़ में उनकी बात सुनने को मिली।<br /><br />मिस्र में इंटरनेट सेवा अब बहाल हो गई हैं, लेकिन सवाल बरकरार है कि भविष्य में इंटरनेट पर पाबंदी के बीच क्या नए विकल्प हैं। दूसरी तरफ, मिस्र के विद्रोह में सोशल मीडिया की भूमिका ने सरकारों को भी डरा दिया है कि वो इनसे कैसे निपटें। चीन इस बाबत सबसे अधिक सतर्क है, जहां हजारों विश्लेषकों को सत्ता के पक्ष में सोशल मीडिया के तमाम मंचों पर कमेंट करने के लिए तैयार किया गया है। कई मुल्कों में सरकारें अब फेसबुक-ट्विटर आदि पर नियमित नजर रखने लगी हैं। ‘द गार्जियन’ में प्रकाशित हाल में एक रिपोर्ट में कहा कहा कि मिस्र में आंदोलनकारियों के बीच ‘विद्रोह के दौरान व्यवहारिक सतर्कता’ को लेकर कुछ पर्चे बांटे गए और इसमें लिखा गया कि वो इन पर्चों को ई-मेल और फोटोकॉपी के जरिए आपस में बांटे, लेकिन फेसबुक का इस्तेमाल न करें क्योंकि सरकारी अधिकारी उस पर नजर रखे हैं। भविष्य में निरंकुश सरकारें सोशल मीडिया के भीतर तांकझांक बढ़ाएंगी, इसमें संदेह नहीं। लेकिन, बुलंद इरादे हर हाल में जाहिर होते हैं। तकनीकी युग में तो उन्हें दबाना नामुमकिन है। मिस्र में इसकी बानगी हमनें देख ली है।पीयूष पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/11829771563390877484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7428917939570378789.post-88171791520240883522010-05-30T13:11:00.000+05:302010-05-30T13:12:29.172+05:30काश! ये कहानी सच हो...लेकिनस्काइपे पर मुझे अभी अभी एक महाशय ने ये संदेश भेजा है। काश!वास्तव में ऐसा होता। तो मैं एक झटके में करो़ड़पति बन जाता। लेकिन, नेट जालसाजी पर लिखते लिखते जान चुका हूं कि ये सच नहीं हो सकता। हालांकि, वक्त हुआ तो एक बार फिर पड़ताल करुंगा ताकि लेख को और तथ्यों के साथ लिख सकूं। अभी इस संदेश को ट्रांसलेट करने का न मन है, न वक्त। सो यूं ही दिए दे रहा हूं ताकि लोग सचेत हो सकें। क्योंकि पांच हजार मारे गए लोगों में आपके सरनेम का भी कोई न कोई होगा ही :-)<br /><br /> <br />Hello Pandey,<br /> <br />I have tried to reach you on Skype phone, but your line was busy, so I decided to write you this message. I have been in search of someone with this last name "Pandey", so when I saw you online, I was pushed to contact you and see how best we can assist each other. I am YAQOOB Y. HASSAN, a Bank Officer here in U. A. E. I believe it is the wish of God for me to come across you now. I am having an important business discussion I wish to share with you which I believe will interest you, because it is in connection with your last name and you are going to benefit from it. <br /> <br />One Late Michael Pandey, a citizen of your country had a fixed deposit with my bank in 2004 for 60 calendar months, valued at US$26,700,000.00 (Twenty Six Million, Seven Hundred Thousand US Dollars) the due date for this deposit contract was last 22nd of February 2009. Sadly Michael was among the death victims in the May 26 2006 Earthquake disaster in Jawa, Indonesia that killed over 5,000 people. He was in Indonesia on a business trip and that was how he met his end. My bank management is yet to know about his death, I knew about it because he was my friend and I am his account officer. Michael did not mention any Next of Kin/ Heir when the account was opened, and he was not married and no children. Last week my Bank Management requested that Michael should give instructions on what to do about his funds, if to renew the contract. I know this will happen and that is why I have been looking for a means to handle the situation, because if my Bank Directors happens to know that Michael is dead and do not have any Heir, they will take the funds for their personal use, so I don't want such to happen. That was why when I saw your last name I was happy and I am now seeking your co-operation to present you as Next of Kin/ Heir to the account, since you have the same last name with him and my bank head quarters will release the account to you. There is no risk involved; the transaction will be executed under a legitimate arrangement that will protect you from any breach of law.<br /><br />It is better that we claim the money, than allowing the Bank Directors to take it, they are rich already. I am not a greedy person, so I am suggesting we share the funds equal, 50/50% to both parties, my share will assist me to start my own company which has been my dream. Let me know your mind on this and please do treat this information as TOP SECRET. We shall go over the details once I receive your urgent response strictly through my personal email address, yygohassb8@gmail.com<br /> <br />We can as well discuss this on phone; let me know when you will be available to speak with me on Skype. Have a nice day and God bless. Anticipating your communication.<br /> <br />Yaqoob Y. Hassan.पीयूष पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/11829771563390877484noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7428917939570378789.post-80904186516168481122010-05-24T18:34:00.001+05:302010-05-24T18:35:29.421+05:30ब्रिटनी स्पीयर्स के Twitter Queen बनने का मतलबपॉप गायिका ब्रिटनी स्पीयर्स आखिरकार माइक्रोब्लॉगिंग साइट टविटर की रानी बन गईं। उन्होंने आज हॉलीवुड अभिनेता एस्टन कुचर को प्रशंसकों यानी फॉलोअर्स की संख्या के मामले में पीट दिया। ब्रिटनी स्पीयर्स अब संभवत: 50 लाख प्रशंसकों का आंकड़ा छूने वाली पहली महिला होंगी। क्योंकि, 49 लाख के बाद शुरु हुई जंग में ब्रिटनी स्पीयर्स कुचर से काफी आगे निकल गई हैं।<br /><br />इस खबर को जानने के बाद अगर आप यह मानते हैं कि ब्रिटनी स्पीयर्स वास्तव में ट्विटर क्वीन बन गई हैं,तो आप गलत हैं। दरअसल, एस्टन और ब्रिटनी के बीच ट्विटर की लड़ाई के बीच एक बात अलग है। वो यह कि एस्टन कुचर न सिर्फ ट्विटर पर सबसे पहले दस लाख प्रशंसक जुटाने वाले पहले शख्स हैं,बल्कि वो पहले सेलेब्रिटी हैं,जिन्होंने ट्विटर की ताकत को अपनी पब्लिसिटी के जरिए भुनाया। कुचर लगातार प्रशंसकों से ट्विटर पर संवाद करते हैं, और घर परिवार से लेकर अपनी फिल्मों तक की बात ट्विटर पर करते हैं। वो एक सेलेब्रिटी हैं, लिहाजा चुनिंदा लोगों को फॉलो करते हैं। ये संख्या करीब 560 है।<br /><br />दूसरी तरफ, ब्रिटनी स्पीयर्स ने ट्विटर की ताकत का इस्तेमाल करने के लिए एक टीम गठित की है, जो लगातार न सिर्फ ट्वीट करती है। बल्कि, उनके ट्वीट को कैसे ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जाए-इसके तरीके खोजती है। इसी रणनीति के तरह ब्रिटनी स्पीयर्स 4 लाख से ज्यादा लोगों को फॉलो करती हैं। वो खुद ट्वीट नहीं करतीं, इसलिए ट्विटर में अपनत्व का भाव नहीं रहता।<br /><br />दरअसल, ब्रिटनी की इस जीत का मतलब यह है कि रणनीतिक तरीके से अब ट्विटर का इस्तेमाल हो रहा है। निजी स्तर से लेकर कॉरपोरेट स्तर तक अब माइक्रोब्लॉगिंग साइट ट्विटर के जरिए लोगों से संवाद करने की गुंजाइश खोजी जा रही है, और इसके लिए धन खर्च किया जा रहा है। अमेरिका में यह प्रचलन बहुत अधिक है,जबकि भारत में कई सेलेब्रिटी का एकाउंट पब्लिक रिलेशन कंपनियां संभाल रही हैं,तो कॉरपोरेट स्तर पर सोशल मीडिया मैनेजरों की नियुक्ति हो रही है।<br /><br />लेकिन,सवाल सिर्फ फॉलोअर्स की संख्या का नहीं है। सवाल है कि ब्रिटनी स्पीयर्स-ओबामा-कुचर सरीखे लोग अपने ट्वीट के जरिए क्या कह रहे हैं। यही सवाल भारतीय हस्तियों पर भी लागू होता है। लेकिन, भारतीय ट्विटर हस्तियां अभी आंकड़ों के गणित में उलझी हैं। और उनसे अधिक मीडिया उलझा है इस आंकड़ों के जाल में,जो रोजाना बताता है कि सचिन के कितने फॉलोअर्स हैं और अमिताभ के कितने। या शाहरुख अभी भी ट्विटर के बादशाह हैं।<br /><br />वैसे, जानकारी के लिए भारत में शशि थरुर ही अभी ट्विटर के शहंशाह हैं, क्योंकि शाहरुख या सचिन अभी उनकी तुलना में आधे प्रशंसक भी नहीं जुटा पाए हैं। शशि थरुर आठ लाख फॉलोअर्स पाने जा रहे हैं।पीयूष पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/11829771563390877484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7428917939570378789.post-80146617455662009162010-05-17T13:03:00.000+05:302010-05-17T13:04:08.421+05:30‘अलविदा फेसबुक’ कहना हो तो !सोशल नेटवर्किंग साइट ‘फेसबुक’ के उपयोक्ताओं का एक देश बन जाए तो जनसंख्या के लिहाज से यह चीन और भारत के बाद दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा मुल्क होगा। आशय यह कि दुनिया भर में फेसबुक के उपयोक्ताओं की संख्या दिन दोगुनी गति से बढ़ रही है, और नेटवर्किंग-न्यूज-गेम्स समेत तमाम सुविधाओं वाले इस पैकेज को पूरी दुनिया अपना चुकी है। लेकिन, फेसबुक की बढ़ती लोकप्रियता के बीच नए खतरों की आशंकाओं ने एक बड़े तबके को इस प्लेटफॉर्म की उपयोगिता के बारे में सोचने को मजबूर कर दिया है।<br /><br />हाल में इंटरनेट सुरक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली कंपनी वेरीसाइन की इकाई आईडिफेंस ने खुलासा किया कि करीब 15 लाख फेसबुक एकाउंट बिक्री के लिए उपलब्ध हैं। किर्लोस नाम के एक कथित हैकर ने इन खातों को ऑनलाइन बिक्री के लिए रखा। 10 मित्रों से कम संख्या वाले फेसबुक खाते 10 डॉलर और दस से अधिक मित्रों वाले एकाउंट 45 डॉलर में बेचने की बात कही गई। हालांकि, फेसबुक ने इस खुलासे को खारिज कर दिया लेकिन आईडिफेंस ने साफ कहा कि ऑनलाइन ठगी, स्पैम भेजने और डाटा चुराने वाले प्रोग्राम भेजने के उद्देश्य से इन एकाउंट्स को बेचा जा रहा है। ‘फेसबुक’ की प्राइवेसी सैटिंग्स का विवाद तो लगातार चल ही रहा है। फेसबुक में चंद दिन पहले कुछ ऐसे बग यानी कमियां उजागर हुई थीं, जिनके जरिए आसानी से प्राइवेसी सैटिंग्स को धता बताया जा सकता है। जानकारों के मुताबिक, फेसबुक के ऑनलाइन विज्ञापनों के जरिए उपयोक्ता के कंप्यूटर में सेंध लग सकती है। यहां उपलब्ध सैकड़ों प्रोफाइल फर्जी हैं, जिनका इस्तेमाल स्पैमर्स कर रहे हैं। फेसबुक आपकी जानकारी को तीसरी कंपनी के साथ बांट सकती है। हर बार साइट री-डिजाइन के साथ आपकी प्राइवेसी सैटिंग्स को कम स्तर पर ला सकती है यानी व्यवसायिक लाभ के लिए आपकी निजता को प्रभावित किया जा सकता है।<br /><br />फेसबुक से तलाक के बढ़ते मामले, अपराधों में इस प्लेटफॉर्म की बढ़ती भूमिका और दफ्तरों में घटते उत्पादन घंटे से जुड़ी खबरें लगातार सुर्खियां बनती रही हैं। पचास करोड़ से अधिक उपयोक्ताओं वाली इस सोशल नेटवर्किंग साइट के इस्तेमाल की लत को फेसबुक एडिक्शन डिसॉर्डर के नाम से जाना जा रहा है। <br /><br />लेकिन, सवाल फेसबुक की लत का नहीं, इससे दूर होने का है। फेसबुक का एक तबका निजता भंग होने से लेकर तमाम संभावित खतरों से बचने के उद्देश्य से इस प्लेटफॉर्म को अलविदा कहना चाहता है। पर क्या यह इतना आसान है? फेसबुक पर डिसेक्टिव एकाउंट और डिलीट एकाउंट का लिंक खोजना ही इतना कठिन है कि सैकड़ों लोग अपना खाता डिलीट करने का इरादा बदल देते हैं। दरअसल, नेट पर अपना आधिपत्य स्थापित करने में जुटी फेसबुक का साम्राज्य ग्राहकों की संख्या से ही निर्धारित हो रहा है, और इन्हीं के बूते फेसबुक को करोड़ों डॉलर का विज्ञापन मिल रहा है। फिर भी अगर आप फेसबुक को कभी अलविदा कहना चाहें तो एकाउंट सैटिंग्स में जाकर डिसेक्टिव एकाउंट का लिंक पा सकते हैं। हालांकि, इस लिंक पर क्लिक करते ही अचानक आपके फेसबुक मित्र इस संदेश के साथ प्रगट होंगे कि वो आपको मिस करेंगे। लेकिन, अगर आप एकाउंट को खत्म ही कर देना चाहते हैं तो आप फेसबुक के हेल्प सेंटर में जाकर सर्च बॉक्स में डिलीट एकाउंट सर्च कीजिए। याद रखिए डिलीट करने के बाद भी 14 दिनों तक आपका डाटा सुरक्षित रहेगा। इस दौरान आपने कभी भी फेसबुक में लॉगिन की कोशिश की तो एकाउंट एक्टिव हो जाएगा।<br /><br />मतलब यह कि फेसबुक को अलविदा कहना आसान नहीं है। वैसे, थोड़ी सी जागरुकता के साथ सोशल नेटवर्किंग के इस सबसे लोकप्रिय माध्यम का भरपूर लाभ भी उठाया जा सकता है।पीयूष पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/11829771563390877484noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7428917939570378789.post-61791065465495692282010-05-07T13:46:00.002+05:302010-05-07T13:50:58.172+05:30ध्यान दें- http://موقع.وزارة-الأتصالات.مصرछह मई का दिन इंटरनेट के 40 साल के इतिहास में एक अहम दिन बनकर उभरा, लेकिन संभवत: उस ऐतिहासिक घटना को ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई। इंटरनेट कॉरपोरेशन फॉर असाइन्ड नेम्स एंड नंबर (आईसीएएनएन) ने आखिरकार अंग्रेजी से इतर यानी नॉन लैटिन भाषा में तीन डोमेन नामों को मंजूरी दे दी।<br /><br />इनमें से एक को आप यहां देख सकते हैं- http://موقع.وزارة-الأتصالات.مصر<br /><br />हालांकि पिछले साल तीस अक्टूबर को सिओल में हुई बैठक में आईसीएएनएन ने तय किया था कि लैटिन भाषा के अक्षरों के अलावा दुनिया के कई मुल्कों की भाषाओं में भी इंटरनेट पते लिखे जाएं। इंटरनेट के 40 साल के इतिहास में आईसीएएनएन का यह फैसला ऐतिहासिक साबित हो सकता है-ये बात तो तभी साबित हो गई थी, लेकिन अरबी भाषा में पहला यूआरएल देखकर अब इस बात को महसूस किया जा सकता है।<br /><br />इसका अर्थ यह है कि अब देवनागिरी लिपी में भी जल्द ही वेब पते लिखे जाएंगे।<br /><br />अंग्रेजी में महारथी माने जाने वाले शुरुआती भारतीय इंटरनेट उपभोक्ताओं को इसकी आवश्यकता महसूस कभी नहीं हुई। लेकिन, इंटरनेट के फलक के विस्तार के साथ भारतीयों खासकर ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों के बीच हिन्दी व दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं में इंटरनेट की जरुरत दिखायी देने लगी है। अब हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं में वेबसाइट्स बन रही हैं। यूनिकोड ने फॉन्ट की समस्या को भी बहुत हद तक दूर किया है। हिन्दी में सर्च इंजन वेबसाइट खोजने की सुविधा दे रहे हैं। देवनागरी लिपी के की-बोर्ड बाज़ार में मिलने लगे हैं। लेकिन, वेब पतों का अंग्रेजी में होना कई लोगों के लिए व्यवहारिक परेशानी रहा है, क्योंकि उन्हें रोमन लिपी में टाइप करना नहीं आता अथवा झंझट लगता है।<br /><br />लेकिन, अरबी भाषा में डोमेन नेम को मंजूरी मिलने के बाद हिन्दी समेत कई भाषाओं में वेब एड्रेस लिखे दिखेंगे। <br />आंकड़ों के मुताबिक दुनिया के करीब 1.6 बिलियन इंटरनेट उपयोक्ताओं में आधे से ज्यादा अपनी प्राथमिक भाषा के रुप में अंग्रेजी का इस्तेमाल नहीं करते हैं। सिर्फ इस आंकड़े के बीच ही वेब एड्रेस में अंग्रेजी के प्रभुत्व के खत्म होने की दरकार समझी जा सकती है। हालांकि, चीन इस दिशा में पहले ही कदम उठा चुका है, जहां वेब पते चीनी भाषा लिखने की शुरुआत हो चुकी है। हान्यू पिनयिन सिस्टम के जरिए वेबसाइट चीनी भाषा के अक्षरों को लैटिन में ट्रांसलेट करती है। लेकिन, अंतरराष्ट्रीय मान्यता नहीं होने और कई दूसरी तकनीकी समस्याओं के चलते चीन की कोशिश पूरी तरह कामयाब नहीं हो पाई।<br /><br />बहरहाल, अरबी भाषा में बनी मिस्र के सूचना मंत्रालय की इस साइट को देखने का अपना सुख है,क्योंकि इसका डोमेन नेम अंग्रेजी से इतर भाषा में लिखा गया है।पीयूष पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/11829771563390877484noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7428917939570378789.post-91432712235545899352010-05-04T10:31:00.000+05:302010-05-04T10:32:12.066+05:30नीतीश से ह्यूगो तक सोशल मीडिया का फैलता दायराबिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो चावेज़ में क्या कोई समानता है? बिलकुल नहीं। सिवाय इसके कि दोनों राजनेता सत्तासीन हैं और लगभग एक वक्त में सोशल मीडिया की अहमियत से रुबरु हुए हैं। नीतीश कुमार ने आम लोगों से संवाद करने के लिए ब्लॉग का मंच चुना है, तो ह्यूगो ने माइक्रोब्लॉगिंग साइट ट्विटर का। आरंभिक दौर में इन दोनों का शानदार स्वागत हुआ है। नीतीश कुमार के ब्लॉग पर पाठकों की टिप्पणियां और ह्यूगो के ट्विटर खाते के ‘फॉलोअर्स’ इस बात की तस्दीक करते हैं। नीतीश की मुख्यमंत्री बालिका योजना पर लिखी पोस्ट पर तो करीब 700 टिप्पणियां आईं और मुख्यधारा के मीडिया में उनके ब्लॉग ने खासी सुर्खियां बटोरी। जबकि ह्यूगो ट्विटर पर अभी तक करीब पौने दो लाख प्रशंसक जोड़ चुके हैं।<br /><br />लेकिन, बात नीतीश के ब्लॉग अथवा ह्यूगो के ट्विटर खाते की लोकप्रियता की नहीं है। सवाल है सोशल मीडिया के उपयोग को लेकर इनके उद्देश्य का। आखिर, नीतीश कुमार ब्लॉगिंग क्यों करना चाहते हैं? या ह्यूगो को अचानक ट्विटर पर आने की आवश्यकता क्यों पड़ी? ये सवाल इसलिए क्योंकि सोशल मीडिया के मंच को इन्होंने जिस वक्त चुना है, वो चुनावी फिजां के बनने का दौर है, जब राजनेताओं को प्रचार के लिए अलग अलग माध्यमों की दरकार होती है। ब्लॉग से लेकर ट्विटर तक सोशल मीडिया के मंच की खासियत यह है कि यहां अपनी उपलब्धियों के बखान से लेकर विरोधियों को साधने का काम आसानी से किया जा सकता है। इस दौरान पत्रकारों से टेड़े सवालों से बचा जा सकता है, जबकि राज्य या राष्ट्र प्रमुख होने के नाते मुख्यधारा का मीडिया आपकी बात को जगह देता ही है। उल्लेखनीय है कि बिहार में इस साल विधानसभा चुनाव होने हैं,जबकि वेनेजुएला में संभवत: अगले साल के आखिर में राष्ट्रपति पद के चुनाव होंगे।<br /><br />सवाल यही है कि क्या नीतीश कुमार या ह्यूगो का सोशल मीडिया पर आना सिर्फ चुनावी रणनीति का हिस्सा भर है अथवा इन नए मंचों से दोनों का जनता से संवाद बरकरार रहेगा? ये आशंका फिजूल नहीं है। अमेरिका में सोशल मीडिया के रथ पर सवार होकर राष्ट्रपति बने बराक ओबामा की सफलता के बाद से भारतीय राजनीति में इन नए माध्यमों को ‘चमत्कार’ के रुप में देखा जा रहा है, लिहाजा चुनाव के वक्त अचानक ब्लॉग-साइट रुपी जिन्न बोतल से बाहर निकलते हैं।पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान हम इस तमाशे को देख चुके हैं, जब उम्मीदवारों ने सिर्फ इस मकसद से ब्लॉग-वेबसाइट बनाए कि वो जादू कर देंगे। लेकिन, चुनावी हल्ला खत्म हुआ तो ब्लॉग और वेबसाइट ढह गईं। इसका अर्थ यही है कि राजनेताओं ने सोशल मीडिया की अहमियत को पहचानने के बजाय इसे ‘अलादीन का जिन्न’ समझा।<br /><br />ऐसे उदाहरणों की लंबी फेहरिस्त है। बीजेपी के दिग्गज नेता डॉ.मुरली मनोहर जोशी ने अपना ब्लॉग पिछले साल अक्टूबर के बाद अपडेट नहीं किया। बीजेपी के शाहनवाज हुसैन ने चुनावी फिजां में अपनी वेबसाइट बनवाई, जो आज बिगड़ी हालत में है। फिल्म निर्देशक प्रकाश झा ने चंपारण से चुनाव लड़ते वक्त जोरशोर से ब्लॉगिंग शुरु की, लेकिन आज उनका ब्लॉग भी ठंडा पड़ा है। राष्ट्रीय जनता दल अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव तो साल 2008 में ही ब्लॉगिंग का शौक फरमा कर भूल गए। कांग्रेस नेता एसएमकृष्णा और मल्लिका साराभाई जैसे तमाम दिग्गजों ने लोकसभा चुनावों के दौरान ट्विटरिंग शुरु की, लेकिन चुनावों के बाद सब शांत हो गया। यहां तक कि बीजेपी ने अपना ट्विटर एकाउंट शुरु किया था, जिसे पिछले साल जुलाई के बाद अपडेट नहीं किया गया। बात सिर्फ ब्लॉग, ट्विटर एकाउंट या निजी वेबसाइट की भी नहीं है। सूचना क्रांति के दौर में साइबर हाइवे पर राजनीतिक दलों का चेहरा यानी पार्टी की वेबसाइट्स को जिस तरह चुनावी फिजां के वक्त चमकाया गया, वो चुनाव खत्म होते ही उपेक्षित हो गईं। छोटे राजनीतिक दलों की बात क्या कहनी, बड़ी पार्टियों की साइट्स में कई त्रुटियां अथवा अधूरापन है। कांग्रेस की वेबसाइट पर पार्टी के लोकसभा सांसदों की सूची से शशि थरुर का नाम गायब है, तो बीजेपी की वेबसाइट पर ‘भंडाफोड़’ आंदोलन के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती। समाजवादी पार्टी की साइट तो आज भी जनेश्वर मिश्र को जीवित रखे हुए है। बिहार के दोनों प्रमुख दलों की बात करें तो राष्ट्रीय जनता दल की कोई आधिकारिक साइट नहीं है। पार्टी के सदस्यों द्वारा निजी स्तर पर चलाई जा रही एक साइट अवश्य है। इस पर रेल बजट जैसी पुरानी सूचनाएं होमपेज पर टंगी दिखती हैं, तो लालू प्रसाद यादव से संवाद का कोई जरिया नहीं दिखता। लेकिन, जनता दल यूनाइटेड की तो इंटरनेट पर कोई उपस्थिति नहीं दिखती। बिहार में विधानसभा चुनावों की आहट के बीच यदि लोग(खासकर राज्य के बाहर के) वहां की राजनीतिक पार्टियों के ज़िला स्तर के नेताओं का ठौर-ठिकाना जानना चाहेंगे तो सबसे पहले इंटरनेट पर ‘गूगल देवता’ की शरण में जाकर संबंधित जानकारी से जुड़े कुछ ‘की वर्ड’ टाइप करेंगे और प्रतीक्षा करेंगे वांछित सूचना के मॉनीटर पर चमकने की। लेकिन, राज्य की प्रमुख पार्टियों की आधाकारिक वेबसाइट ही नहीं है तो उनके क्षेत्रीय नेताओं से जुड़ी जानकारी तो दूर की कौड़ी है। <br /><br />उल्लेखनीय है कि भारत में इस वक्त करीब आठ करोड़ इंटरनेट उपभोक्ता हैं,जो करीब 30 से 40 फीसदी की दर से प्रतिवर्ष बढ़ रहे हैं। इन उपभोक्ताओं की कुल तादाद का करीब 30-40 फीसदी ‘नॉन मेट्रो’ शहरों से है। इसके अलावा, भारत में करीब 50 करोड़ लोगों के पास मोबाइल फोन है, जिसमें एक तिहाई फोन पर इंटरनेट एक्सेस किया जा सकता है। <br /><br />दरअसल, भारत में इंटरनेट के तेज़ी से बढ़ते इस्तेमाल के बावजूद राजनीतिक पार्टियों को इसकी अहमियत अभी तक ठीक से समझ नहीं आयी है। राजनेता या तो इस माध्यम को बकवास मान बैठते हैं या चमत्कारी। बात सिर्फ इंटरनेट पर एक साइट बनाने की नहीं है। इंटरनेट प्रचार का सशक्त माध्यम है। इसके जरिए राजनीति से दूर युवाओं को वोटर में तब्दील किया जा सकता है। साइट-ब्लॉग द्विगामी संवाद का जरिया भी बन सकते हैं। आखिर,दिल्ली में बैठकर क्यों कोई शख्स अपनी पसंदीदा पार्टी के छपरा-मधुबनी या किसी भी छोटे शहर के राजनेताओं से संपर्क नहीं साध सकता? आधुनिक युग में भी क्यों एक वोटर को विधायक या सांसद से अपनी बात कहने में मशक्कत करनी पड़ती है? लेकिन,ऐसा है क्योंकि पार्टियां इंटरनेट की ताकत का समुचित इस्तेमाल नहीं कर रहीं। <br /><br />हालांकि, कुछ राजनेता निजी स्तर पर प्रयास कर रहे हैं। नीतीश कुमार भी इस फेहरिस्त में शामिल हो गए हैं। अंग्रेजी से ब्लॉगिंग की शुरुआत करने वाले नीतीश पाठकों की शिकायत के बाद हिन्दी में पोस्ट लिख रहे हैं। वो पाठकों की प्रतिक्रियाएं पढ़ रहे हैं और लोगों से संवाद कर रहे हैं-यह सक्रिय और समझदार ब्लॉगर के लक्षण हैं। लेकिन, एक मुख्यमंत्री का ब्लॉग बेहतर डिजाइन किया हुआ और व्यवस्थित होना चाहिए-जो नीतीश का नहीं है। लेकिन, बड़ा सवाल यह है कि क्या ब्लॉगर नीतीश चुनावों के बाद भी सक्रिय रहेंगे? दूसरी तरफ, ह्यूगो समझ चुके हैं कि वेनेजुएला में अब ट्विटर का बोलबाला है। इस छोटे से देश में दो लाख से ज्यादा सक्रिय ट्विटर उपयोक्ता हैं,और पिछले एक साल में वहां इनकी संख्या में 1000 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। ह्यूगो का कहना है कि वो सोशल मीडिया पर मुख्यत: विरोधियों के दुष्प्रचार का जवाब देने के लिए आए हैं। <br /><br />बहरहाल,नीतीश से ह्यूगो तक सोशल मीडिया के अलग अलग औजारों का इस्तेमाल करने वाले राजनेताओं को समझना होगा कि यह चमत्कारी माध्यम नहीं है। हां, यह नया माध्यम आम लोगों (वोटरों) से उस संवाद की गुंजाइश बनाता है, जो विश्वसनीयता पैदा करने का काम कर सकती है। और इसमें कोई दो राय नहीं कि आज राजनीतिक दलों और राजनेताओं को इस ’क्रेडेबिलिटी’ की सख्त आवश्यकता है।पीयूष पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/11829771563390877484noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7428917939570378789.post-61615706580833014302010-04-22T00:44:00.004+05:302010-04-22T10:51:44.009+05:30अब इस गलती का क्या कीजै?कभी कभी जल्दबाजी में बड़ी दिलचस्प गलतियां मीडिया संस्थान करते हैं। सहारा समय की वेबसाइट में हाल में बहुत बदलाव हुए हैं और साइट बहुत तेजी से अपडेट संभवत: हो रही है। लेकिन, इस जल्दबाजी में मित्रों ने मुंबई इंडियंस को सेमीफाइनल जीतने के बावजूद सेमीफाइनल में पहुंचा हुआ ही माना। होमपेज पर तो देखने पर लगता है कि साइट अपडेट नहीं हुई क्योंकि शीर्षक दिखता है-शान से सेमीफाइनल में पहुंचा मुंबई इंडियंस। लेकिन, भीतर जाने पर पता चलता है कि मुंबई इंडियंस के फाइनल में पहुंचने की खबर को ही इस शीर्षक से डाला गया है।<br /><br /><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjQWimJ5jT4l4nTKbnctHuWtfpanrQxqWmdRDtFm2EsDoxNWBEJnUIBbdt5lsJ6VGp73Sk1t5VqT22BFho4RMKk6iAENwdFnwfjGxhOEGHZT_uKl5hdbWmed2bM7OTsdmpvg7wL_vvxs8vd/s1600/sahara-imp.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 200px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjQWimJ5jT4l4nTKbnctHuWtfpanrQxqWmdRDtFm2EsDoxNWBEJnUIBbdt5lsJ6VGp73Sk1t5VqT22BFho4RMKk6iAENwdFnwfjGxhOEGHZT_uKl5hdbWmed2bM7OTsdmpvg7wL_vvxs8vd/s320/sahara-imp.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5462671429070114194" /></a>पीयूष पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/11829771563390877484noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-7428917939570378789.post-10871065660498795582010-04-19T13:36:00.001+05:302010-04-19T13:38:03.216+05:30'प्रो पब्लिका' को पुलित्ज़र अवॉर्ड के मायनेअमेरिका के कोलंबिया स्कूल ऑफ जर्नलिज़्म ने 12 अप्रैल को 94वें पुलित्जर पुरस्कारों का ऐलान किया तो पहली बार ऑनलाइन समाचार साइट के महत्व पर खास मुहर लग गई। खोजी पत्रकारिता की श्रेणी में एक अवॉर्ड “प्रो पब्लिका डॉट ऑर्ग” को दिया गया है। पेशे से डॉक्टर और न्यूरोसाइंस में पीएचडी कर चुकीं शेरी फिंक ने प्रो पब्लिका के लिए एक खोजी रिपोर्ट तैयार की थी। इस रिपोर्ट में उन्होंने खुलासा किया था कि किस तरह कैलिफोर्निया में कैटरीना तूफान के वक्त न्यू ऑर्लिन्स नर्सिंग होम में मौजूद डॉक्टरों ने अफरातफरी के बीच बुजुर्ग मरीजों को प्राणघातक दवा दे दी। नर्सिंग होम में बिजली नहीं थी। जेननेटर बंद हो चुका था। अस्पताल का बाहरी दुनिया से संपर्क कट गया था। जीवन रक्षक उपकरणों की कमी पड़ने लगी तो डॉक्टरों ने यह तरीका आजमाया। सबसे पहले प्रो पब्लिका पर आई इस रिपोर्ट को कुछ रेडियो स्टेशनों ने प्रसारित किया और कैटरीना तूफान से मची तबाही की चौथी बरसी पर न्यूयॉर्क टाइम्स ने पूरी रिपोर्ट को फिर प्रकाशित किया, जिसने सारी दुनिया का ध्यान खींचा। इस मामले में नए सिरे से जांच शुरु हुई।<br /><br />लेकिन, सवाल प्रो पब्लिका का नहीं, पुलित्जर का है। पुलित्जर प्राइज बोर्ड ने हाल में नियमों में कुछ ढील दी है, जिसके बाद न्यूज साइट्स को भी रिपोर्ट नामांकित करने की सुविधा मिली। इस साल 1,103 नामांकनों के बीच प्रो पब्लिका ने भी अवॉर्ड जीता है। लेकिन,प्रो पब्लिका को पुलित्जर मिलने की अहमियत सिर्फ इसलिए नहीं है क्योंकि पहली बार किसी समाचार साइट को इतना प्रतिष्ठित अवॉर्ड मिला है। अहमियत इसलिए अधिक है क्योंकि प्रो पब्लिका किसी बड़े समाचार पत्र अथवा टेलीविजन चैनल की वेबसाइट नहीं है। यह एक स्वतंत्र और गैर व्यवसायिक न्यूज साइट है, जो लगातार सामाजिक सरोकारों की रिपोर्ट देती रहती है।<br /><br />ऐसा नहीं है कि प्रो पब्लिका पहली वेबसाइट है, जिसने अपने बूते कोई खोजी रिपोर्ट दी हो। 1998 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन और मोनिका लुइंसकी मामले का खुलासा ड्रजरिपोर्टडॉटकॉम ने किया था। भारत में भी तहलकाडॉटकॉम ने मैच फिक्सिंग से लेकर कई अहम मामलों का खुलासा किया। लेकिन, प्रो पब्लिका के गैर व्यवसायिक मॉडल ने अब सामाजिक मसलों या आम लोगों के हितों की पत्रकारिता करने वाली वेबसाइट्स को नयी राह दिखा दी है। प्रो पब्लिका की अर्थव्यवस्था सैंडरल फाउंडेशन के फंड और लोगों की सहयोग राशि यानी दान से संचालित होती है। पुलित्जर अवॉर्ड के बाद लोगों के बीच इसकी साख और मजबूत हुई है, जिससे साइट को आर्थिक लाभ होगा।<br /><br />भारत में अभी ऑनलाइन पत्रकारिता की स्थिति इतनी बेहतर नहीं है, लेकिन न्यूज साइट्स के पाठक तेजी से बढ़े हैं। इस बीच,सामाजिक सरोकारों की बात करने वाली कई वेबसाइट्स खड़ी हुई हैं। प्रो पब्लिका की तरह अगर इन साइट्स पर बेहतरीन रिपोर्ट मिलें तो न केवल मीडिया में आम आदमी की आवाज़ मुखर होगी बल्कि मुख्यधारा का मीडिया भी इन्हें गंभीरता से लेना शुरु करेगा। फिर, मीडिया के मुनाफे से संचालित होने के आरोपों के बीच प्रो पब्लिका मुनाफारहित पत्रकारिता की संभावना का बिगुल तो बजाती ही है। प्रो पब्लिका का नारा है-जनता के हितों की पत्रकारिता और इसी उद्देश्य के साथ उसने अपनी पहचान बनायी है, जो इसी राह पर चलने वाली कई दूसरी न्यूज साइट्स के लिए उम्मीद जगाती हैं। हालांकि, हिन्दी में यह तब तक संभव नहीं दिखता, जब तक कुछ गैर सरकारी संगठन इस तरह की साइट्स को बढ़ावा न दें। क्योंकि हिन्दी में बड़ी संख्या में पाठकों को खींचना एक दिन का काम नहीं है, जिसके लिए सतत प्रयास और बेहतर रिपोर्टिंग की आवश्यकता होगी। हां, इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत जैसे देश में प्रो पब्लिका मॉडल की साइट की जरुरत बहुत है।पीयूष पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/11829771563390877484noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7428917939570378789.post-83527435502040030222010-03-24T19:37:00.001+05:302010-03-24T19:38:55.538+05:30पार्लियामेंट में सीटी(व्यंग्य)जापान की टोकूमोकूरोकू यूनिवर्सिटी के प्रोफेसरों का दल संसद में बैठा भारतीय सांसदों की तरफ कातर निगाहों से ताक रहा है। कोई माई का लाल नहीं है क्या चिल्लाने वाला ! किसी ने इतना दूध नहीं पीया कि स्पीकर की कुर्सी के पास पहुंचकर विधेयक की चिंदी-चिंदी कर फूल सा उड़ा दे ! कोई पहलवान नहीं, जो विपक्षी की ऐसी तैसी करते हुए अपने नए शब्दों से हिन्दी-उर्दू को समृद्ध कर दे! <br /><br />जापानी हैरान-परेशान हैं। आखिर, इसी संसद से लाइव टेलीकास्ट पर जो दिखता था-वो तो इस कदर खतरनाक था,मानो ओबामा का ट्रेनिंग स्कूल चल रहा हो। माइक फेंकते सांसद ऐसे लगते थे कि इस बार आसमान में सुराग करके ही दम लेंगे। अपने जन्मसिद्ध अधिकार यानी चिल्लाने के कंपटीशन में सांसद कब फेफड़ा बाहर निकालने के कंपटीशन से एकाकार हो जाते-ये गहन शोध का विषय था। स्पीकर नामक प्राणी की बेइज्जती का सट्टे से तो कोई संबंध नहीं-जापानियों की रिसर्च का सब्जेक्ट यह भी था। <br /><br />लेकिन, जापान से इंडिया की फ्लाइट पकड़कर संसद पहुंचते पहुंचते ऐसा क्या हो लिया कि पूरा समां बदल गया? मामला विकट कन्फ्यूजन का था। संसद में अब अचानक सुर लहरियां गूंज रही थीं। शोर तो दूर दूर तक नहीं। हर तरफ से मधुर सीटी की आवाज। शाहरुख के फैन जापानी ताड़ रहे थे कि कोई ‘तू मेरे सामने, मैं तेरे सामने, तुझको देखूं तो प्यार करुं’ सीटिया रहा है तो कोई ‘मेरी महबूबा’ को। पार्लियामेंट में विधेयक पर चर्चा शुरु हुई तो सीटी बजाते बजाते सांसद वोटिंग कर रहे हैं। संसद का दंगल कहीं नहीं, मुहब्बत के तराने चहुं ओर।<br /><br />इंडियन सिस्टम को समझने वाला जापानी दल का अगुआ समझ रहा है इंडियन कल्चर में सीटी का महत्व। प्रेशर कुकर की सीटी न बजे तो खेल हो ले। होंठ घूमा,सीटी बजा और गाड़ी बुला रही है,सीटी बजा रही है-जैसे गाने बनने से पहले दम तोड़ देते। थिएटर में अगली कतार में बैठे दर्शकों की सीटियां ही बॉलीवुड फिल्मों की सफलता की गारंटी होती हैं। लड़कियों को छेड़ने में सीटी का अहम रोल है,लेकिन रिसर्च बताती हैं कि लड़की को सिर्फ सीटी से छेड़ा छाए तो लड़कियों का मन भी मदमस्त हो जाता है। चालाक लड़कियां इस दौरान बुदबुदाती हैं-साला,मेरे बाप का क्या जाता है, बोर हो रही थी,तू सीटी बजा कर मनोरंजन कर रहा है।<br /><br />खैर,इंडियन कल्चर में सीटी का नहीं,सवाल पार्लियामेंट में सीटी का था। जवाब मिला तो जापानी भौंचक। पार्लियामेंट में दो दिन पहले ही महिलाओं के लिए आरक्षण लागू हुआ था। इधर, मैं कन्फ्यूज हूं नेताजी के विराट अनुभव पर। उन्होंने पहले ही भविष्यवाणी कर दी थी कि महिलाओं को आरक्षण मिला सीटी बजेगी। खूब सीटी बज रही है,पार्लियामेंट का काम धांसू तरीके से चल रहा है।<br /><br /><br /><strong>नोट-(नेताजी की भविष्यवाणी के मद्देनजर मैं भी भविष्यवक्ता हो लिया हूं और व्यंग्य आने वाले दिन के हिसाब से लिखा गया है। तारीख आप तय कर लें)</strong>पीयूष पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/11829771563390877484noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7428917939570378789.post-19727217080394205962010-02-28T20:37:00.001+05:302010-02-28T20:38:44.251+05:30होली से डरने वालों के लिए क्रेश कोर्स (व्यंग्य)अगर आपको होली से डर लगता है। होली नामक त्योहार के लिए खुद को फिट न समझते हुए आप इस भद्दा मजाक करार देते हैं। लुटे-पिटे-काले-कलूटे चेहरों को देख आप सहम जाते हैं। कोई रंग लगाने आए तो आप खुद को बाथरूम में बंद कर घरवालों को गांधी के सत्य के नियम के खिलाफ जाने के लिए लगभग बाध्य करते हैं। होली की सुबह 7 से शाम पांच बजे तक अपनी ऐसी-तैसी सिर्फ और सिर्फ टेलीविजन के सामने कराते हैं, और घर से बाहर निकलने के ख्वाब मात्र से आपको घर में बने ‘होनालूलू’ जाना पड़ता है तो यह क्रेश कोर्स आपके लिए है।<br /><br />तो जनाब, होली बड़ा विकट किस्म का त्योहार है। और मुरली मनोहर की पावन धरा के इस वर्ल्ड फेम गेम से डरने वालों के लिए बाबा रंगानी का आजमाया हुआ दस सूत्रीय फॉर्मूला निम्नलिखित है-<br /><br />1-होली पर सबसे पहले सुबह सुबह तेल में भिगोकर अपनी ही चप्पल कम से पचास बार खुद को जड़ डालें। इस चप्पल को बीच बीच में अपने पसंदीदा रंग में भी डुबो लें और फिर खुद को जड़े। शरीर पर हुए हर वार का दूसरे वार से एक बिलत्ते का फासला होना चाहिए। ऐसा होने से एक एथनिक लुक आ जाएगा। और आपको रंगने आने वाला भेड़िया इस एथनिक लुक में आपको लुटा पिटा देख अपना रंग बर्बाद करने के विषय में नहीं सोचेगा।<br /><br />2-अपनी बॉडी पर एथनिक पेंट करने के बाद अपने वस्त्रों को मनीष मल्होत्रा टाइप डिजाइन कीजिए। इसके लिए अपना फटा कुर्ता ढूंढकर निकालिए। यदि ‘फटा होने’ के विषय में संशय हो तो घर में रखे कैकटस के पौधे अथवा दरवाजे के कड़े में दोनों जेबों को फंसाकर खींचिए। जेब फटते हुए ऊपर की ओर जहां तक जाएगी, वो आपकी डिजाइन को उतना ही लेटेस्ट लुक देगा।<br />3-खैर, इस लुक में काफी वक्त बर्बाद होने के बाद आपके भीतर एक सेल्फ कॉन्फिडेंस आ जाएगा। आखिर, अगर आप होली की तैयारी इस शिद्दत से कर सकते हैं तो होली खेल भी सकते हैं। डरिए मत। अब वक्त आ रहा है कि आप रंगों के त्योहार में रंग जाएंगे।<br /><br />4-चलिए, आप होली खेलने के लिए आखिर तैयार तो हो गए। लुक बिलकुल हुलियारों सरीखा बन चुका है। बस,अब उमंग की कमी है। इस उमंग को भंग के साथ एक झटके में पैदा किया जा सकता है। इसलिए भंग का कोई एक्सपीरियंस हो तो फौरन ठंडाई में डालकर पी ही लीजिए। लेकिन, अगर यह महान अनुभव नहीं है,तो कोई बात नहीं। नशेबाज ही होली खेलेंगे-ऐसा किसी वेद-पुराण में नहीं लिखा। बस आप हौसला रखिए।<br /><br />5-तो जनाब, नंगपन की हद तक होली खेलने की आवश्यक शर्त -भंग पीना- आप पूरी नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए, नयी डगर से आपको मंजिल तक भेजना होगा।<br /><br />6-तो ऐसा है जनाब। अगर आप किसी मकान के मालिक हैं। उस मकान मालिक की औलाद हैं या उसके रिश्तेदार हैं, तो बस किराएदार को बेहिचक रंगने पहुंच जाइए। और हां, किराएदार के घर में तभी जाइए, जब ‘भैया’ न हों। इस करतब को करते हुए आपका दिल पहली पहली बार थोड़ा घबराएगा जरुर, लेकिन आप डटे रहिए। क्योंकि, अगर आपकी इमेज सज्जन टाइप के प्राणी की है तो भाभी खुद आपको रंग देंगी। भाभी आपके चिकने गालों को खुद रगड़ रगड़ कर रंगीला बना देंगी। इस केस में आपको कुछ नहीं करना है। सिर्फ आंख बंद कर भाभी को देखना है।<br /><br />7-लेकिन,अगर आपकी इमेज हरामी टाइप की है,तो अव्वल तो आपको होली से डर लगता नहीं होगा। लेकिन, अगर लगता भी होगा तो आप भाभी से होली पर छेड़खानी करने में बिलकुल न डरें। ये आपका जन्मसिद्ध अधिकार है।<br /><br />8-खैर, भाभियों से मौज मस्ती के बाद आपको थोड़ा कॉन्फिडेंस और आएगा। मान लीजिए कि आप अब ट्रेंड हुलियारों की कैटेगरी में पहुंच रहे हैं। बस, आपको अब करना यह है कि पड़ोस की जिस कुड़ी को आप लगातार निहार रहे हैं, और जिसके गुलाबी गालों के चक्कर में आपकी रंग भेद में अक्षम आंखों को रंग समझ आने लगे हैं-उस कुड़ी के घर पहुंच जाइए। हिम्मत रखिए.....अगर लड़की का बाप या मां से आमना-सामना हो जाए तो फौरन उनके पैर छूकर थोड़ा गुलाल मल दीजिए। हैप्पी होली कहिए और चीते की फुर्ती से आगे बढ़ जाइए। आपको यह जोखिम भरा लग सकता है, लेकिन घबराने से कुछ नहीं होगा। आप अपने कदमों को बढ़ने दीजिए। आपकी पिंकी, प्रीति, छुटकी, बिल्लो, रानी वगैरह वगैरह जो भी है, वो आपके सामने होगी। अब बस बिना देर किए उसके गुलाबी गालों पर उधार का गुलाल मल दीजिए।<br /><br />9-समझ लीजिए। होली छिछोरेबाजी का त्योहार है। भारत में छिछोरेबाजों को सारी ट्रेनिंग इसी त्योहार में मिलती है। इसलिए डरिए मत। दूसरे गाल पर भी रंग मल दीजिए। और अगर आपको उसके शरीर के किसी भी कोने में हाथ लगाने का मौका मिल जाए तो बस उस मौके पर शेर के शिकार की तरह लपक लीजिए।<br /><br />10-खुदा कसम...इसके बाद आपके शरीर में जो करंट दौड़ेगा, वो दुनिया के सभी किस्म के डरों का खात्मा कर देगा। अजीब सी सरसराहट शरीर को झंकृत कर देगी। और खुदा न खास्ता अगर लड़की भी आपसे कुछ इसी किस्म की छिछोरेबाजी की उम्मीद कर रही हुई, और उसने भी आपके बालों- गालों और ???? पर उंगली फेर दी तो..........। बस, समझ लीजिए कि होली इसी अहसास का नाम है। हां, इस किस्म की होली के बाद पड़ोस के घर में आपका आना जाना बंद हो सकता है, लेकिन उस आवाजाही को दोबारा खुलवाना का मौका भी तो होली ही है......।पीयूष पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/11829771563390877484noreply@blogger.com2