Sunday, May 30, 2010
काश! ये कहानी सच हो...लेकिन
Hello Pandey,
I have tried to reach you on Skype phone, but your line was busy, so I decided to write you this message. I have been in search of someone with this last name "Pandey", so when I saw you online, I was pushed to contact you and see how best we can assist each other. I am YAQOOB Y. HASSAN, a Bank Officer here in U. A. E. I believe it is the wish of God for me to come across you now. I am having an important business discussion I wish to share with you which I believe will interest you, because it is in connection with your last name and you are going to benefit from it.
One Late Michael Pandey, a citizen of your country had a fixed deposit with my bank in 2004 for 60 calendar months, valued at US$26,700,000.00 (Twenty Six Million, Seven Hundred Thousand US Dollars) the due date for this deposit contract was last 22nd of February 2009. Sadly Michael was among the death victims in the May 26 2006 Earthquake disaster in Jawa, Indonesia that killed over 5,000 people. He was in Indonesia on a business trip and that was how he met his end. My bank management is yet to know about his death, I knew about it because he was my friend and I am his account officer. Michael did not mention any Next of Kin/ Heir when the account was opened, and he was not married and no children. Last week my Bank Management requested that Michael should give instructions on what to do about his funds, if to renew the contract. I know this will happen and that is why I have been looking for a means to handle the situation, because if my Bank Directors happens to know that Michael is dead and do not have any Heir, they will take the funds for their personal use, so I don't want such to happen. That was why when I saw your last name I was happy and I am now seeking your co-operation to present you as Next of Kin/ Heir to the account, since you have the same last name with him and my bank head quarters will release the account to you. There is no risk involved; the transaction will be executed under a legitimate arrangement that will protect you from any breach of law.
It is better that we claim the money, than allowing the Bank Directors to take it, they are rich already. I am not a greedy person, so I am suggesting we share the funds equal, 50/50% to both parties, my share will assist me to start my own company which has been my dream. Let me know your mind on this and please do treat this information as TOP SECRET. We shall go over the details once I receive your urgent response strictly through my personal email address, yygohassb8@gmail.com
We can as well discuss this on phone; let me know when you will be available to speak with me on Skype. Have a nice day and God bless. Anticipating your communication.
Yaqoob Y. Hassan.
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Monday, May 24, 2010
ब्रिटनी स्पीयर्स के Twitter Queen बनने का मतलब
इस खबर को जानने के बाद अगर आप यह मानते हैं कि ब्रिटनी स्पीयर्स वास्तव में ट्विटर क्वीन बन गई हैं,तो आप गलत हैं। दरअसल, एस्टन और ब्रिटनी के बीच ट्विटर की लड़ाई के बीच एक बात अलग है। वो यह कि एस्टन कुचर न सिर्फ ट्विटर पर सबसे पहले दस लाख प्रशंसक जुटाने वाले पहले शख्स हैं,बल्कि वो पहले सेलेब्रिटी हैं,जिन्होंने ट्विटर की ताकत को अपनी पब्लिसिटी के जरिए भुनाया। कुचर लगातार प्रशंसकों से ट्विटर पर संवाद करते हैं, और घर परिवार से लेकर अपनी फिल्मों तक की बात ट्विटर पर करते हैं। वो एक सेलेब्रिटी हैं, लिहाजा चुनिंदा लोगों को फॉलो करते हैं। ये संख्या करीब 560 है।
दूसरी तरफ, ब्रिटनी स्पीयर्स ने ट्विटर की ताकत का इस्तेमाल करने के लिए एक टीम गठित की है, जो लगातार न सिर्फ ट्वीट करती है। बल्कि, उनके ट्वीट को कैसे ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जाए-इसके तरीके खोजती है। इसी रणनीति के तरह ब्रिटनी स्पीयर्स 4 लाख से ज्यादा लोगों को फॉलो करती हैं। वो खुद ट्वीट नहीं करतीं, इसलिए ट्विटर में अपनत्व का भाव नहीं रहता।
दरअसल, ब्रिटनी की इस जीत का मतलब यह है कि रणनीतिक तरीके से अब ट्विटर का इस्तेमाल हो रहा है। निजी स्तर से लेकर कॉरपोरेट स्तर तक अब माइक्रोब्लॉगिंग साइट ट्विटर के जरिए लोगों से संवाद करने की गुंजाइश खोजी जा रही है, और इसके लिए धन खर्च किया जा रहा है। अमेरिका में यह प्रचलन बहुत अधिक है,जबकि भारत में कई सेलेब्रिटी का एकाउंट पब्लिक रिलेशन कंपनियां संभाल रही हैं,तो कॉरपोरेट स्तर पर सोशल मीडिया मैनेजरों की नियुक्ति हो रही है।
लेकिन,सवाल सिर्फ फॉलोअर्स की संख्या का नहीं है। सवाल है कि ब्रिटनी स्पीयर्स-ओबामा-कुचर सरीखे लोग अपने ट्वीट के जरिए क्या कह रहे हैं। यही सवाल भारतीय हस्तियों पर भी लागू होता है। लेकिन, भारतीय ट्विटर हस्तियां अभी आंकड़ों के गणित में उलझी हैं। और उनसे अधिक मीडिया उलझा है इस आंकड़ों के जाल में,जो रोजाना बताता है कि सचिन के कितने फॉलोअर्स हैं और अमिताभ के कितने। या शाहरुख अभी भी ट्विटर के बादशाह हैं।
वैसे, जानकारी के लिए भारत में शशि थरुर ही अभी ट्विटर के शहंशाह हैं, क्योंकि शाहरुख या सचिन अभी उनकी तुलना में आधे प्रशंसक भी नहीं जुटा पाए हैं। शशि थरुर आठ लाख फॉलोअर्स पाने जा रहे हैं।
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Monday, May 17, 2010
‘अलविदा फेसबुक’ कहना हो तो !
हाल में इंटरनेट सुरक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली कंपनी वेरीसाइन की इकाई आईडिफेंस ने खुलासा किया कि करीब 15 लाख फेसबुक एकाउंट बिक्री के लिए उपलब्ध हैं। किर्लोस नाम के एक कथित हैकर ने इन खातों को ऑनलाइन बिक्री के लिए रखा। 10 मित्रों से कम संख्या वाले फेसबुक खाते 10 डॉलर और दस से अधिक मित्रों वाले एकाउंट 45 डॉलर में बेचने की बात कही गई। हालांकि, फेसबुक ने इस खुलासे को खारिज कर दिया लेकिन आईडिफेंस ने साफ कहा कि ऑनलाइन ठगी, स्पैम भेजने और डाटा चुराने वाले प्रोग्राम भेजने के उद्देश्य से इन एकाउंट्स को बेचा जा रहा है। ‘फेसबुक’ की प्राइवेसी सैटिंग्स का विवाद तो लगातार चल ही रहा है। फेसबुक में चंद दिन पहले कुछ ऐसे बग यानी कमियां उजागर हुई थीं, जिनके जरिए आसानी से प्राइवेसी सैटिंग्स को धता बताया जा सकता है। जानकारों के मुताबिक, फेसबुक के ऑनलाइन विज्ञापनों के जरिए उपयोक्ता के कंप्यूटर में सेंध लग सकती है। यहां उपलब्ध सैकड़ों प्रोफाइल फर्जी हैं, जिनका इस्तेमाल स्पैमर्स कर रहे हैं। फेसबुक आपकी जानकारी को तीसरी कंपनी के साथ बांट सकती है। हर बार साइट री-डिजाइन के साथ आपकी प्राइवेसी सैटिंग्स को कम स्तर पर ला सकती है यानी व्यवसायिक लाभ के लिए आपकी निजता को प्रभावित किया जा सकता है।
फेसबुक से तलाक के बढ़ते मामले, अपराधों में इस प्लेटफॉर्म की बढ़ती भूमिका और दफ्तरों में घटते उत्पादन घंटे से जुड़ी खबरें लगातार सुर्खियां बनती रही हैं। पचास करोड़ से अधिक उपयोक्ताओं वाली इस सोशल नेटवर्किंग साइट के इस्तेमाल की लत को फेसबुक एडिक्शन डिसॉर्डर के नाम से जाना जा रहा है।
लेकिन, सवाल फेसबुक की लत का नहीं, इससे दूर होने का है। फेसबुक का एक तबका निजता भंग होने से लेकर तमाम संभावित खतरों से बचने के उद्देश्य से इस प्लेटफॉर्म को अलविदा कहना चाहता है। पर क्या यह इतना आसान है? फेसबुक पर डिसेक्टिव एकाउंट और डिलीट एकाउंट का लिंक खोजना ही इतना कठिन है कि सैकड़ों लोग अपना खाता डिलीट करने का इरादा बदल देते हैं। दरअसल, नेट पर अपना आधिपत्य स्थापित करने में जुटी फेसबुक का साम्राज्य ग्राहकों की संख्या से ही निर्धारित हो रहा है, और इन्हीं के बूते फेसबुक को करोड़ों डॉलर का विज्ञापन मिल रहा है। फिर भी अगर आप फेसबुक को कभी अलविदा कहना चाहें तो एकाउंट सैटिंग्स में जाकर डिसेक्टिव एकाउंट का लिंक पा सकते हैं। हालांकि, इस लिंक पर क्लिक करते ही अचानक आपके फेसबुक मित्र इस संदेश के साथ प्रगट होंगे कि वो आपको मिस करेंगे। लेकिन, अगर आप एकाउंट को खत्म ही कर देना चाहते हैं तो आप फेसबुक के हेल्प सेंटर में जाकर सर्च बॉक्स में डिलीट एकाउंट सर्च कीजिए। याद रखिए डिलीट करने के बाद भी 14 दिनों तक आपका डाटा सुरक्षित रहेगा। इस दौरान आपने कभी भी फेसबुक में लॉगिन की कोशिश की तो एकाउंट एक्टिव हो जाएगा।
मतलब यह कि फेसबुक को अलविदा कहना आसान नहीं है। वैसे, थोड़ी सी जागरुकता के साथ सोशल नेटवर्किंग के इस सबसे लोकप्रिय माध्यम का भरपूर लाभ भी उठाया जा सकता है।
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Friday, May 7, 2010
ध्यान दें- http://موقع.وزارة-الأتصالات.مصر
इनमें से एक को आप यहां देख सकते हैं- http://موقع.وزارة-الأتصالات.مصر
हालांकि पिछले साल तीस अक्टूबर को सिओल में हुई बैठक में आईसीएएनएन ने तय किया था कि लैटिन भाषा के अक्षरों के अलावा दुनिया के कई मुल्कों की भाषाओं में भी इंटरनेट पते लिखे जाएं। इंटरनेट के 40 साल के इतिहास में आईसीएएनएन का यह फैसला ऐतिहासिक साबित हो सकता है-ये बात तो तभी साबित हो गई थी, लेकिन अरबी भाषा में पहला यूआरएल देखकर अब इस बात को महसूस किया जा सकता है।
इसका अर्थ यह है कि अब देवनागिरी लिपी में भी जल्द ही वेब पते लिखे जाएंगे।
अंग्रेजी में महारथी माने जाने वाले शुरुआती भारतीय इंटरनेट उपभोक्ताओं को इसकी आवश्यकता महसूस कभी नहीं हुई। लेकिन, इंटरनेट के फलक के विस्तार के साथ भारतीयों खासकर ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों के बीच हिन्दी व दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं में इंटरनेट की जरुरत दिखायी देने लगी है। अब हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं में वेबसाइट्स बन रही हैं। यूनिकोड ने फॉन्ट की समस्या को भी बहुत हद तक दूर किया है। हिन्दी में सर्च इंजन वेबसाइट खोजने की सुविधा दे रहे हैं। देवनागरी लिपी के की-बोर्ड बाज़ार में मिलने लगे हैं। लेकिन, वेब पतों का अंग्रेजी में होना कई लोगों के लिए व्यवहारिक परेशानी रहा है, क्योंकि उन्हें रोमन लिपी में टाइप करना नहीं आता अथवा झंझट लगता है।
लेकिन, अरबी भाषा में डोमेन नेम को मंजूरी मिलने के बाद हिन्दी समेत कई भाषाओं में वेब एड्रेस लिखे दिखेंगे।
आंकड़ों के मुताबिक दुनिया के करीब 1.6 बिलियन इंटरनेट उपयोक्ताओं में आधे से ज्यादा अपनी प्राथमिक भाषा के रुप में अंग्रेजी का इस्तेमाल नहीं करते हैं। सिर्फ इस आंकड़े के बीच ही वेब एड्रेस में अंग्रेजी के प्रभुत्व के खत्म होने की दरकार समझी जा सकती है। हालांकि, चीन इस दिशा में पहले ही कदम उठा चुका है, जहां वेब पते चीनी भाषा लिखने की शुरुआत हो चुकी है। हान्यू पिनयिन सिस्टम के जरिए वेबसाइट चीनी भाषा के अक्षरों को लैटिन में ट्रांसलेट करती है। लेकिन, अंतरराष्ट्रीय मान्यता नहीं होने और कई दूसरी तकनीकी समस्याओं के चलते चीन की कोशिश पूरी तरह कामयाब नहीं हो पाई।
बहरहाल, अरबी भाषा में बनी मिस्र के सूचना मंत्रालय की इस साइट को देखने का अपना सुख है,क्योंकि इसका डोमेन नेम अंग्रेजी से इतर भाषा में लिखा गया है।
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Tuesday, May 4, 2010
नीतीश से ह्यूगो तक सोशल मीडिया का फैलता दायरा
लेकिन, बात नीतीश के ब्लॉग अथवा ह्यूगो के ट्विटर खाते की लोकप्रियता की नहीं है। सवाल है सोशल मीडिया के उपयोग को लेकर इनके उद्देश्य का। आखिर, नीतीश कुमार ब्लॉगिंग क्यों करना चाहते हैं? या ह्यूगो को अचानक ट्विटर पर आने की आवश्यकता क्यों पड़ी? ये सवाल इसलिए क्योंकि सोशल मीडिया के मंच को इन्होंने जिस वक्त चुना है, वो चुनावी फिजां के बनने का दौर है, जब राजनेताओं को प्रचार के लिए अलग अलग माध्यमों की दरकार होती है। ब्लॉग से लेकर ट्विटर तक सोशल मीडिया के मंच की खासियत यह है कि यहां अपनी उपलब्धियों के बखान से लेकर विरोधियों को साधने का काम आसानी से किया जा सकता है। इस दौरान पत्रकारों से टेड़े सवालों से बचा जा सकता है, जबकि राज्य या राष्ट्र प्रमुख होने के नाते मुख्यधारा का मीडिया आपकी बात को जगह देता ही है। उल्लेखनीय है कि बिहार में इस साल विधानसभा चुनाव होने हैं,जबकि वेनेजुएला में संभवत: अगले साल के आखिर में राष्ट्रपति पद के चुनाव होंगे।
सवाल यही है कि क्या नीतीश कुमार या ह्यूगो का सोशल मीडिया पर आना सिर्फ चुनावी रणनीति का हिस्सा भर है अथवा इन नए मंचों से दोनों का जनता से संवाद बरकरार रहेगा? ये आशंका फिजूल नहीं है। अमेरिका में सोशल मीडिया के रथ पर सवार होकर राष्ट्रपति बने बराक ओबामा की सफलता के बाद से भारतीय राजनीति में इन नए माध्यमों को ‘चमत्कार’ के रुप में देखा जा रहा है, लिहाजा चुनाव के वक्त अचानक ब्लॉग-साइट रुपी जिन्न बोतल से बाहर निकलते हैं।पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान हम इस तमाशे को देख चुके हैं, जब उम्मीदवारों ने सिर्फ इस मकसद से ब्लॉग-वेबसाइट बनाए कि वो जादू कर देंगे। लेकिन, चुनावी हल्ला खत्म हुआ तो ब्लॉग और वेबसाइट ढह गईं। इसका अर्थ यही है कि राजनेताओं ने सोशल मीडिया की अहमियत को पहचानने के बजाय इसे ‘अलादीन का जिन्न’ समझा।
ऐसे उदाहरणों की लंबी फेहरिस्त है। बीजेपी के दिग्गज नेता डॉ.मुरली मनोहर जोशी ने अपना ब्लॉग पिछले साल अक्टूबर के बाद अपडेट नहीं किया। बीजेपी के शाहनवाज हुसैन ने चुनावी फिजां में अपनी वेबसाइट बनवाई, जो आज बिगड़ी हालत में है। फिल्म निर्देशक प्रकाश झा ने चंपारण से चुनाव लड़ते वक्त जोरशोर से ब्लॉगिंग शुरु की, लेकिन आज उनका ब्लॉग भी ठंडा पड़ा है। राष्ट्रीय जनता दल अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव तो साल 2008 में ही ब्लॉगिंग का शौक फरमा कर भूल गए। कांग्रेस नेता एसएमकृष्णा और मल्लिका साराभाई जैसे तमाम दिग्गजों ने लोकसभा चुनावों के दौरान ट्विटरिंग शुरु की, लेकिन चुनावों के बाद सब शांत हो गया। यहां तक कि बीजेपी ने अपना ट्विटर एकाउंट शुरु किया था, जिसे पिछले साल जुलाई के बाद अपडेट नहीं किया गया। बात सिर्फ ब्लॉग, ट्विटर एकाउंट या निजी वेबसाइट की भी नहीं है। सूचना क्रांति के दौर में साइबर हाइवे पर राजनीतिक दलों का चेहरा यानी पार्टी की वेबसाइट्स को जिस तरह चुनावी फिजां के वक्त चमकाया गया, वो चुनाव खत्म होते ही उपेक्षित हो गईं। छोटे राजनीतिक दलों की बात क्या कहनी, बड़ी पार्टियों की साइट्स में कई त्रुटियां अथवा अधूरापन है। कांग्रेस की वेबसाइट पर पार्टी के लोकसभा सांसदों की सूची से शशि थरुर का नाम गायब है, तो बीजेपी की वेबसाइट पर ‘भंडाफोड़’ आंदोलन के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती। समाजवादी पार्टी की साइट तो आज भी जनेश्वर मिश्र को जीवित रखे हुए है। बिहार के दोनों प्रमुख दलों की बात करें तो राष्ट्रीय जनता दल की कोई आधिकारिक साइट नहीं है। पार्टी के सदस्यों द्वारा निजी स्तर पर चलाई जा रही एक साइट अवश्य है। इस पर रेल बजट जैसी पुरानी सूचनाएं होमपेज पर टंगी दिखती हैं, तो लालू प्रसाद यादव से संवाद का कोई जरिया नहीं दिखता। लेकिन, जनता दल यूनाइटेड की तो इंटरनेट पर कोई उपस्थिति नहीं दिखती। बिहार में विधानसभा चुनावों की आहट के बीच यदि लोग(खासकर राज्य के बाहर के) वहां की राजनीतिक पार्टियों के ज़िला स्तर के नेताओं का ठौर-ठिकाना जानना चाहेंगे तो सबसे पहले इंटरनेट पर ‘गूगल देवता’ की शरण में जाकर संबंधित जानकारी से जुड़े कुछ ‘की वर्ड’ टाइप करेंगे और प्रतीक्षा करेंगे वांछित सूचना के मॉनीटर पर चमकने की। लेकिन, राज्य की प्रमुख पार्टियों की आधाकारिक वेबसाइट ही नहीं है तो उनके क्षेत्रीय नेताओं से जुड़ी जानकारी तो दूर की कौड़ी है।
उल्लेखनीय है कि भारत में इस वक्त करीब आठ करोड़ इंटरनेट उपभोक्ता हैं,जो करीब 30 से 40 फीसदी की दर से प्रतिवर्ष बढ़ रहे हैं। इन उपभोक्ताओं की कुल तादाद का करीब 30-40 फीसदी ‘नॉन मेट्रो’ शहरों से है। इसके अलावा, भारत में करीब 50 करोड़ लोगों के पास मोबाइल फोन है, जिसमें एक तिहाई फोन पर इंटरनेट एक्सेस किया जा सकता है।
दरअसल, भारत में इंटरनेट के तेज़ी से बढ़ते इस्तेमाल के बावजूद राजनीतिक पार्टियों को इसकी अहमियत अभी तक ठीक से समझ नहीं आयी है। राजनेता या तो इस माध्यम को बकवास मान बैठते हैं या चमत्कारी। बात सिर्फ इंटरनेट पर एक साइट बनाने की नहीं है। इंटरनेट प्रचार का सशक्त माध्यम है। इसके जरिए राजनीति से दूर युवाओं को वोटर में तब्दील किया जा सकता है। साइट-ब्लॉग द्विगामी संवाद का जरिया भी बन सकते हैं। आखिर,दिल्ली में बैठकर क्यों कोई शख्स अपनी पसंदीदा पार्टी के छपरा-मधुबनी या किसी भी छोटे शहर के राजनेताओं से संपर्क नहीं साध सकता? आधुनिक युग में भी क्यों एक वोटर को विधायक या सांसद से अपनी बात कहने में मशक्कत करनी पड़ती है? लेकिन,ऐसा है क्योंकि पार्टियां इंटरनेट की ताकत का समुचित इस्तेमाल नहीं कर रहीं।
हालांकि, कुछ राजनेता निजी स्तर पर प्रयास कर रहे हैं। नीतीश कुमार भी इस फेहरिस्त में शामिल हो गए हैं। अंग्रेजी से ब्लॉगिंग की शुरुआत करने वाले नीतीश पाठकों की शिकायत के बाद हिन्दी में पोस्ट लिख रहे हैं। वो पाठकों की प्रतिक्रियाएं पढ़ रहे हैं और लोगों से संवाद कर रहे हैं-यह सक्रिय और समझदार ब्लॉगर के लक्षण हैं। लेकिन, एक मुख्यमंत्री का ब्लॉग बेहतर डिजाइन किया हुआ और व्यवस्थित होना चाहिए-जो नीतीश का नहीं है। लेकिन, बड़ा सवाल यह है कि क्या ब्लॉगर नीतीश चुनावों के बाद भी सक्रिय रहेंगे? दूसरी तरफ, ह्यूगो समझ चुके हैं कि वेनेजुएला में अब ट्विटर का बोलबाला है। इस छोटे से देश में दो लाख से ज्यादा सक्रिय ट्विटर उपयोक्ता हैं,और पिछले एक साल में वहां इनकी संख्या में 1000 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। ह्यूगो का कहना है कि वो सोशल मीडिया पर मुख्यत: विरोधियों के दुष्प्रचार का जवाब देने के लिए आए हैं।
बहरहाल,नीतीश से ह्यूगो तक सोशल मीडिया के अलग अलग औजारों का इस्तेमाल करने वाले राजनेताओं को समझना होगा कि यह चमत्कारी माध्यम नहीं है। हां, यह नया माध्यम आम लोगों (वोटरों) से उस संवाद की गुंजाइश बनाता है, जो विश्वसनीयता पैदा करने का काम कर सकती है। और इसमें कोई दो राय नहीं कि आज राजनीतिक दलों और राजनेताओं को इस ’क्रेडेबिलिटी’ की सख्त आवश्यकता है।
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Thursday, April 22, 2010
अब इस गलती का क्या कीजै?
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Monday, April 19, 2010
'प्रो पब्लिका' को पुलित्ज़र अवॉर्ड के मायने
लेकिन, सवाल प्रो पब्लिका का नहीं, पुलित्जर का है। पुलित्जर प्राइज बोर्ड ने हाल में नियमों में कुछ ढील दी है, जिसके बाद न्यूज साइट्स को भी रिपोर्ट नामांकित करने की सुविधा मिली। इस साल 1,103 नामांकनों के बीच प्रो पब्लिका ने भी अवॉर्ड जीता है। लेकिन,प्रो पब्लिका को पुलित्जर मिलने की अहमियत सिर्फ इसलिए नहीं है क्योंकि पहली बार किसी समाचार साइट को इतना प्रतिष्ठित अवॉर्ड मिला है। अहमियत इसलिए अधिक है क्योंकि प्रो पब्लिका किसी बड़े समाचार पत्र अथवा टेलीविजन चैनल की वेबसाइट नहीं है। यह एक स्वतंत्र और गैर व्यवसायिक न्यूज साइट है, जो लगातार सामाजिक सरोकारों की रिपोर्ट देती रहती है।
ऐसा नहीं है कि प्रो पब्लिका पहली वेबसाइट है, जिसने अपने बूते कोई खोजी रिपोर्ट दी हो। 1998 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन और मोनिका लुइंसकी मामले का खुलासा ड्रजरिपोर्टडॉटकॉम ने किया था। भारत में भी तहलकाडॉटकॉम ने मैच फिक्सिंग से लेकर कई अहम मामलों का खुलासा किया। लेकिन, प्रो पब्लिका के गैर व्यवसायिक मॉडल ने अब सामाजिक मसलों या आम लोगों के हितों की पत्रकारिता करने वाली वेबसाइट्स को नयी राह दिखा दी है। प्रो पब्लिका की अर्थव्यवस्था सैंडरल फाउंडेशन के फंड और लोगों की सहयोग राशि यानी दान से संचालित होती है। पुलित्जर अवॉर्ड के बाद लोगों के बीच इसकी साख और मजबूत हुई है, जिससे साइट को आर्थिक लाभ होगा।
भारत में अभी ऑनलाइन पत्रकारिता की स्थिति इतनी बेहतर नहीं है, लेकिन न्यूज साइट्स के पाठक तेजी से बढ़े हैं। इस बीच,सामाजिक सरोकारों की बात करने वाली कई वेबसाइट्स खड़ी हुई हैं। प्रो पब्लिका की तरह अगर इन साइट्स पर बेहतरीन रिपोर्ट मिलें तो न केवल मीडिया में आम आदमी की आवाज़ मुखर होगी बल्कि मुख्यधारा का मीडिया भी इन्हें गंभीरता से लेना शुरु करेगा। फिर, मीडिया के मुनाफे से संचालित होने के आरोपों के बीच प्रो पब्लिका मुनाफारहित पत्रकारिता की संभावना का बिगुल तो बजाती ही है। प्रो पब्लिका का नारा है-जनता के हितों की पत्रकारिता और इसी उद्देश्य के साथ उसने अपनी पहचान बनायी है, जो इसी राह पर चलने वाली कई दूसरी न्यूज साइट्स के लिए उम्मीद जगाती हैं। हालांकि, हिन्दी में यह तब तक संभव नहीं दिखता, जब तक कुछ गैर सरकारी संगठन इस तरह की साइट्स को बढ़ावा न दें। क्योंकि हिन्दी में बड़ी संख्या में पाठकों को खींचना एक दिन का काम नहीं है, जिसके लिए सतत प्रयास और बेहतर रिपोर्टिंग की आवश्यकता होगी। हां, इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत जैसे देश में प्रो पब्लिका मॉडल की साइट की जरुरत बहुत है।
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Wednesday, March 24, 2010
पार्लियामेंट में सीटी(व्यंग्य)
जापानी हैरान-परेशान हैं। आखिर, इसी संसद से लाइव टेलीकास्ट पर जो दिखता था-वो तो इस कदर खतरनाक था,मानो ओबामा का ट्रेनिंग स्कूल चल रहा हो। माइक फेंकते सांसद ऐसे लगते थे कि इस बार आसमान में सुराग करके ही दम लेंगे। अपने जन्मसिद्ध अधिकार यानी चिल्लाने के कंपटीशन में सांसद कब फेफड़ा बाहर निकालने के कंपटीशन से एकाकार हो जाते-ये गहन शोध का विषय था। स्पीकर नामक प्राणी की बेइज्जती का सट्टे से तो कोई संबंध नहीं-जापानियों की रिसर्च का सब्जेक्ट यह भी था।
लेकिन, जापान से इंडिया की फ्लाइट पकड़कर संसद पहुंचते पहुंचते ऐसा क्या हो लिया कि पूरा समां बदल गया? मामला विकट कन्फ्यूजन का था। संसद में अब अचानक सुर लहरियां गूंज रही थीं। शोर तो दूर दूर तक नहीं। हर तरफ से मधुर सीटी की आवाज। शाहरुख के फैन जापानी ताड़ रहे थे कि कोई ‘तू मेरे सामने, मैं तेरे सामने, तुझको देखूं तो प्यार करुं’ सीटिया रहा है तो कोई ‘मेरी महबूबा’ को। पार्लियामेंट में विधेयक पर चर्चा शुरु हुई तो सीटी बजाते बजाते सांसद वोटिंग कर रहे हैं। संसद का दंगल कहीं नहीं, मुहब्बत के तराने चहुं ओर।
इंडियन सिस्टम को समझने वाला जापानी दल का अगुआ समझ रहा है इंडियन कल्चर में सीटी का महत्व। प्रेशर कुकर की सीटी न बजे तो खेल हो ले। होंठ घूमा,सीटी बजा और गाड़ी बुला रही है,सीटी बजा रही है-जैसे गाने बनने से पहले दम तोड़ देते। थिएटर में अगली कतार में बैठे दर्शकों की सीटियां ही बॉलीवुड फिल्मों की सफलता की गारंटी होती हैं। लड़कियों को छेड़ने में सीटी का अहम रोल है,लेकिन रिसर्च बताती हैं कि लड़की को सिर्फ सीटी से छेड़ा छाए तो लड़कियों का मन भी मदमस्त हो जाता है। चालाक लड़कियां इस दौरान बुदबुदाती हैं-साला,मेरे बाप का क्या जाता है, बोर हो रही थी,तू सीटी बजा कर मनोरंजन कर रहा है।
खैर,इंडियन कल्चर में सीटी का नहीं,सवाल पार्लियामेंट में सीटी का था। जवाब मिला तो जापानी भौंचक। पार्लियामेंट में दो दिन पहले ही महिलाओं के लिए आरक्षण लागू हुआ था। इधर, मैं कन्फ्यूज हूं नेताजी के विराट अनुभव पर। उन्होंने पहले ही भविष्यवाणी कर दी थी कि महिलाओं को आरक्षण मिला सीटी बजेगी। खूब सीटी बज रही है,पार्लियामेंट का काम धांसू तरीके से चल रहा है।
नोट-(नेताजी की भविष्यवाणी के मद्देनजर मैं भी भविष्यवक्ता हो लिया हूं और व्यंग्य आने वाले दिन के हिसाब से लिखा गया है। तारीख आप तय कर लें)
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Sunday, February 28, 2010
होली से डरने वालों के लिए क्रेश कोर्स (व्यंग्य)
तो जनाब, होली बड़ा विकट किस्म का त्योहार है। और मुरली मनोहर की पावन धरा के इस वर्ल्ड फेम गेम से डरने वालों के लिए बाबा रंगानी का आजमाया हुआ दस सूत्रीय फॉर्मूला निम्नलिखित है-
1-होली पर सबसे पहले सुबह सुबह तेल में भिगोकर अपनी ही चप्पल कम से पचास बार खुद को जड़ डालें। इस चप्पल को बीच बीच में अपने पसंदीदा रंग में भी डुबो लें और फिर खुद को जड़े। शरीर पर हुए हर वार का दूसरे वार से एक बिलत्ते का फासला होना चाहिए। ऐसा होने से एक एथनिक लुक आ जाएगा। और आपको रंगने आने वाला भेड़िया इस एथनिक लुक में आपको लुटा पिटा देख अपना रंग बर्बाद करने के विषय में नहीं सोचेगा।
2-अपनी बॉडी पर एथनिक पेंट करने के बाद अपने वस्त्रों को मनीष मल्होत्रा टाइप डिजाइन कीजिए। इसके लिए अपना फटा कुर्ता ढूंढकर निकालिए। यदि ‘फटा होने’ के विषय में संशय हो तो घर में रखे कैकटस के पौधे अथवा दरवाजे के कड़े में दोनों जेबों को फंसाकर खींचिए। जेब फटते हुए ऊपर की ओर जहां तक जाएगी, वो आपकी डिजाइन को उतना ही लेटेस्ट लुक देगा।
3-खैर, इस लुक में काफी वक्त बर्बाद होने के बाद आपके भीतर एक सेल्फ कॉन्फिडेंस आ जाएगा। आखिर, अगर आप होली की तैयारी इस शिद्दत से कर सकते हैं तो होली खेल भी सकते हैं। डरिए मत। अब वक्त आ रहा है कि आप रंगों के त्योहार में रंग जाएंगे।
4-चलिए, आप होली खेलने के लिए आखिर तैयार तो हो गए। लुक बिलकुल हुलियारों सरीखा बन चुका है। बस,अब उमंग की कमी है। इस उमंग को भंग के साथ एक झटके में पैदा किया जा सकता है। इसलिए भंग का कोई एक्सपीरियंस हो तो फौरन ठंडाई में डालकर पी ही लीजिए। लेकिन, अगर यह महान अनुभव नहीं है,तो कोई बात नहीं। नशेबाज ही होली खेलेंगे-ऐसा किसी वेद-पुराण में नहीं लिखा। बस आप हौसला रखिए।
5-तो जनाब, नंगपन की हद तक होली खेलने की आवश्यक शर्त -भंग पीना- आप पूरी नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए, नयी डगर से आपको मंजिल तक भेजना होगा।
6-तो ऐसा है जनाब। अगर आप किसी मकान के मालिक हैं। उस मकान मालिक की औलाद हैं या उसके रिश्तेदार हैं, तो बस किराएदार को बेहिचक रंगने पहुंच जाइए। और हां, किराएदार के घर में तभी जाइए, जब ‘भैया’ न हों। इस करतब को करते हुए आपका दिल पहली पहली बार थोड़ा घबराएगा जरुर, लेकिन आप डटे रहिए। क्योंकि, अगर आपकी इमेज सज्जन टाइप के प्राणी की है तो भाभी खुद आपको रंग देंगी। भाभी आपके चिकने गालों को खुद रगड़ रगड़ कर रंगीला बना देंगी। इस केस में आपको कुछ नहीं करना है। सिर्फ आंख बंद कर भाभी को देखना है।
7-लेकिन,अगर आपकी इमेज हरामी टाइप की है,तो अव्वल तो आपको होली से डर लगता नहीं होगा। लेकिन, अगर लगता भी होगा तो आप भाभी से होली पर छेड़खानी करने में बिलकुल न डरें। ये आपका जन्मसिद्ध अधिकार है।
8-खैर, भाभियों से मौज मस्ती के बाद आपको थोड़ा कॉन्फिडेंस और आएगा। मान लीजिए कि आप अब ट्रेंड हुलियारों की कैटेगरी में पहुंच रहे हैं। बस, आपको अब करना यह है कि पड़ोस की जिस कुड़ी को आप लगातार निहार रहे हैं, और जिसके गुलाबी गालों के चक्कर में आपकी रंग भेद में अक्षम आंखों को रंग समझ आने लगे हैं-उस कुड़ी के घर पहुंच जाइए। हिम्मत रखिए.....अगर लड़की का बाप या मां से आमना-सामना हो जाए तो फौरन उनके पैर छूकर थोड़ा गुलाल मल दीजिए। हैप्पी होली कहिए और चीते की फुर्ती से आगे बढ़ जाइए। आपको यह जोखिम भरा लग सकता है, लेकिन घबराने से कुछ नहीं होगा। आप अपने कदमों को बढ़ने दीजिए। आपकी पिंकी, प्रीति, छुटकी, बिल्लो, रानी वगैरह वगैरह जो भी है, वो आपके सामने होगी। अब बस बिना देर किए उसके गुलाबी गालों पर उधार का गुलाल मल दीजिए।
9-समझ लीजिए। होली छिछोरेबाजी का त्योहार है। भारत में छिछोरेबाजों को सारी ट्रेनिंग इसी त्योहार में मिलती है। इसलिए डरिए मत। दूसरे गाल पर भी रंग मल दीजिए। और अगर आपको उसके शरीर के किसी भी कोने में हाथ लगाने का मौका मिल जाए तो बस उस मौके पर शेर के शिकार की तरह लपक लीजिए।
10-खुदा कसम...इसके बाद आपके शरीर में जो करंट दौड़ेगा, वो दुनिया के सभी किस्म के डरों का खात्मा कर देगा। अजीब सी सरसराहट शरीर को झंकृत कर देगी। और खुदा न खास्ता अगर लड़की भी आपसे कुछ इसी किस्म की छिछोरेबाजी की उम्मीद कर रही हुई, और उसने भी आपके बालों- गालों और ???? पर उंगली फेर दी तो..........। बस, समझ लीजिए कि होली इसी अहसास का नाम है। हां, इस किस्म की होली के बाद पड़ोस के घर में आपका आना जाना बंद हो सकता है, लेकिन उस आवाजाही को दोबारा खुलवाना का मौका भी तो होली ही है......।
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क्यों न मना सका गब्बर होली (व्यंग्य)
“सरदार, होली 1 तारीख को है। लेकिन, अचानक होली का ख्याल कैसे आया। बसंती तो गांव छोड़कर जा चुकी है, और ठाकुर भी अब ज़िंदा नहीं है। फिर, होली किसके साथ खेलोगे?
“धत् तेरे की। लेकिन, वीरु-जय उनका क्या हुआ?”
“सरदार, तंबाकू चबाते चबाते तुम्हारी याददाश्त भी चली गई है। जय को तुमने ही ठिकाने लगा दिया था, और वीरु बसंती को लेकर मुंबई चला गया था।”
“जे बात...। जेल में बहुत साल गुजारने के बाद फ्लैशबैक में जाने में दिक्कत हो रही है। खैर, ये बताओ बाकी सब कहां हैं।”
“ कौन बाकी। तुम और हम बचे हैं। कालिया को जैसे तुमने मारा था, उसके बाद सारे साथी भाग लिए थे। बचे घुचे जय-वीरु ने टपका दिए थे।”
“तो रामगढ़ में हमारी कोई औकात नहीं अब ? कोई डरता नहीं हमसे? एक ज़माना था कि यहां से पचास पचास मील दूर कोई बच्चा रोता था तो मां कहती थी कि.....”
“अरे, कित्ती बार मारोगे ये डायलॉग। इन दिनों बच्चे रोते नहीं। मां-बाप रोते हैं। बच्चे हर दूसरे दिन मैक्डोनाल्ड जाने की जिद करते हैं। मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखने की मांग करते हैं। बंगी जंपिग के लिए प्रेशर डालते हैं। एक बार बच्चों को घुमाने गए मां-बाप शाम तक दो-तीन हजार का फटका खाकर लौटते हैं....।“
“सांभा,छोड़ो बच्चों को। बसंती की बहुत याद आ रही है। बसंती नहीं है धन्नो के पास ही ले चलो।”
“अरे सरदार...कौन जमाने में जी रहे हो तुम। धन्नो बसंती की याद में टहल गई थी। और धन्नो की बेटी बन्नो धन्नों की याद में निकल ली। अब, धन्नो नहीं सेट्रो, स्विफ्ट, नैनो, एसएक्स-4,सफारी वगैरह से सड़कें पटी पड़ी हैं”
“अरे, ये कौन से हथियार हैं?”
“ये हथियार नहीं। मोटर कार हैं। तुम्हारे जमाने में तो एम्बेसेडर भी बमुश्किल दिखती थी। अब नये नये ब्रांड की कारें आ गई हैं।”
“सांभा. होली आ रही है। रामगढ़ की होली देखे जमाना हो गया। होली कार में बैठकर देखेंगे। आओ कार खरीदकर लाते हैं।“
“अरे तुम्हारी औकात नहीं है कार खरीदने की।”
“जुबान संभाल सांभा। पता नहीं है सरकार कित्ते का इनाम रखे है हम पर। ”
“भटा इनाम। कोई इनाम नहीं है तुम पर अब। और जो था न पचास हजार का ! उसमें गाड़ी का एक पहिया नहीं आए। सबसे छोटी गाड़ी भी तीन-चार लाख की है। तुम तो साइकिल पर होली देख लो-यही गनीमत है।”
“सांभा,बहुत बदल गया रे रामगढ़। अब कौन सी चक्की का आटा खाते हैं ये रामगढ़ वाले?”
“अरे, काई की चक्की। चक्की बंद हो लीं सारी सालों पहले। अब तो पिज्जा-बर्गर खाते हैं। गरीब टाइप के रामगढ़ वाले कोक के साथ सैंडविच वगैरह खा लेते हैं। इन दिनों गरीबों के लिए कंपनी ने कोक के साथ सैंडविच फ्री की स्कीम निकाली है।
“सांभा, खाने की बात से भूख लग गई। होली पर गुझिया वगैरह तो अब भी बनाते होंगे ये लोग?”
“गब्बर बुढ़िया गए हो तुम। आज के बच्चों को गुझिया का नाम भी पता नहीं। बीकानेरवाला, हल्दीरामवाला,गुप्तावाला वगैरह वगैरह मिठाईवाले धांसू डिब्बों में मिठाई बेचते हैं। बस, वो ही खरीदी जाती हैं। एक-एक डिब्बा सातसौ-आठसौ का आता है। तुमाई औकात मिठाई खाने की भी नहीं है।”
“सांभा, तूने बोहत बरसों तक हमारा नमक खाया है न..? ”
“जी सरदार”
“तो अब गोली खा। गोली खाकर फिर जेल जाऊंगा। वहां अब भी होली पर रंग-गुलाल उड़ता है, दाढ़ी वाले गाल पर ही सही पर बाकी कैदी प्यार से रंग मलते हैं तो दिल खुश हो जाता है। जेल में दुश्मन पुलिसवाले भी गले लगा लेते हैं होली पर। ठंडाई छनती है खूब। और मिठाई मिलती है अलग से। सांभा, रामगढ़ हमारा नहीं रहा। तू जीकर क्या करेगा। ”
धांय............................
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Wednesday, February 24, 2010
सचिन के लम्हे को बार बार जीने का मन करता है
50 वें ओवर की तीसरी गेंद पर सचिन प्वाइंट की तरफ गेंद को कट कर एक रन के लिए दौड़े तो यह महज एक रन नहीं था। ये सचिन की ज़िंदगी की मेहनत को एक नयी उपलब्धि में गढ़ता एक रन था। क्रिकेट के इतिहास में नया मुकाम गढ़ता एक रन था। वनडे क्रिकेट में सचिन को उस शिखर पर बैठाता एक रन था, जिसके करीब तो कई खिलाड़ी पहुंचे लेकिन उस पर काबिज कभी नहीं हो पाए।
22 गज की पिच पर यह एक रन पूरा हुआ ही था कि 50-50 ओवर के खेल की परिभाषा और विस्तार ले गई। आखिर, वनडे में 200 का आंकड़ा कोई कभी नहीं छू पाया !
वैसे, ग्वालियर के मैदान में सचिन ने अपनी इस पारी की झलक पहली गेंद से ही दे दी थी, जब उन्होंने मुकाबले की पहली और दूसरी गेंद को सीमा रेखा के बाहर पहुंचा दिया। इसके बाद तो मैदान के हर हिस्से से उन्होंने रन बटोरे और पहली से आखिरी गेंद तक खेलते हुए वो न केवल नॉट आउट रहे बल्कि क्रिकेट की किताब में एक नया रिकॉर्ड भी दर्ज करा गए। सचिन इससे पहले न्यूजीलैंड के खिलाफ 186 और आस्ट्रेलिया के खिलाफ 175 रन ठोंककर लोगों में इस रिकॉर्ड तक पहुंचने की उम्मीद तो पहले भी जगा चुके थे,लेकिन कामयाबी मिली दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ। सचिन ने 147 गेंदों में तीन छक्कों और 25 चौकों के साथ यह कामयाबी पाई।
सचिन की इस अनूठी उपलब्धि के बीच कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी की आतिशी पारी गुम हो गई,जिसने 35 गेंदों में चार छक्कों और सात चौकों के साथ 68 रन बनाए। लेकिन, इसका ग़म न धोनी को था, और न दर्शकों को। क्योंकि, सचिन का लम्हा सिर्फ सचिन का था, जिसे हर क्रिकेट प्रेमी बार बार जीना चाहता है। सचिन की इस उपलब्धि के क्या मायने हैं, इसे सुनील गावस्कर के एक बयान से समझा जा सकता है। गावस्कर ने सचिन के इस रिकॉर्ड के बाद कहा-मैं इस जीनियस के पैर छूना चाहता हूं....।
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Tuesday, February 9, 2010
इंटरनेट को शांति का नोबेल दिलाने की कवायद का मतलब
इंटरनेट को नामांकित करने वाले ‘वायर्ड इटली’ के मेनीफेस्टो के मुताबिक-“डिजीटल संस्कृति ने एक नए समाज की नींव रखी है। और ये समाज संचार के जरिए संवाद,बहस और सहमति को बढ़ावा दे रहा है। लोकतंत्र हमेशा वहीं फलता-फूलता है,जहां खुलापन,स्वीकार्यता,बहस और भागीदारी की गुंजाइश होती है। मेल-मिलाप हमेशा घृणा और झगड़े के ‘एंटीडॉट’ के रुप में काम करता है,लिहाजा इंटरनेट शांति का एक महत्वपूर्ण औजार है और इसीलिए शांति का नोबेल पुरस्कार इंटरनेट को दिया जाना चाहिए।"
निसंदेह इंटरनेट ने दुनिया के सोचने-समझने का ढंग बदला है। इसकी उपयोगिता का फलक बेहद विस्तृत है। दुनियाभर में लोगों के क्षण भर में आपस में जुड़ने से लेकर सूचना और ज्ञान के विशाल खजाने तक एक क्लिक के जरिए पहुंचने जैसे हज़ारों उदाहरण हैं। इरान में राष्ट्रपति चुनावों के दौरान हुई कथित धांधली से लेकर मुंबई में हुए आतंकवादी हमलों और हैती में आए विनाशकारी भूकंप समेत कई मौकों पर लाखों लोगों ने फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉग का इस्तेमाल कर दुनिया तक अपनी बात पहुंचाई। बावजूद इसके क्या इंटरनेट शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए योग्य है?
इंटरनेट का शांति के नोबेल पुरस्कारों के लिए नामांकन एक बहस की मांग करता है। भारत से भी इस बहस का एक सिरा इस मायने में जुड़ता है कि यहां नेट उपयोक्ताओं की संख्या 8 करोड़ पार हो चुकी है। इंटरनेट के सैकड़ों लाभ लेता भारतीय उपयोक्ता भी ‘इंटरनेट फॉर पीस’ कैंपेन का हिस्सा बन सकता है,जिसे अब बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नेतृत्व में परवान चढ़ना है। लेकिन, सवाल सिर्फ इस कैंपेन का हिस्सा बनने का नहीं है। सवाल इंटरनेट के इस लब्धप्रतिष्ठित पुरस्कार के नामांकन के पीछे की कहानी का है।
इंटरनेट की उपयोगिता अगर असीमित है,तो इसके खतरे भी कम नहीं हैं। पोर्नोग्राफी को नेट ने खासा बढ़ावा दिया। निजी सूचनाएं सार्वजनिक होने का बड़ा खतरा मंडरा रहा है। फिर, साइबर आतंकवाद को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है? साल 2007 में अमेरिका के पेंटागन की ई-मेल प्रणाली और वर्ल्ड बैंक की वित्तीय सूचना प्रणाली में साइबर घुसपैठ अगर पूरी तरह सफल रहती तो भयंकर नुकसान हो सकता था। सीईआरटी के मुताबिक साल 2009 में भारत में ही 6000 वेबसाइट्स पर साइबर हमला हुआ। दिलचस्प यह कि अगर इंटरनेट की वजह से शांति को बढ़ावा मिल रहा होता तो गूगल के चीन छोड़ने की धमकी के बाद अमेरिका-चीन आमने-सामने न खड़े होते। चीन समेत कई मुल्कों में सेंसरशिप इस फिलोसफी पर भी बट्टा लगाती है कि इंटरनेट समाज में खुलापन, स्वीकार्यता और बहस की गुंजाइश पैदा करता है।
ऐसा नहीं है कि नोबेल शांति पुरस्कार हमेशा किसी व्यक्ति को ही दिया गया हो। 2007 में अल गोर और इंटरगोवर्नमेंट ऑन क्लामेट चेंज(आईपीसीसी), 2006 में मोहम्मद युनूस और ग्रामीण बैंक, 2001 में संयुक्तर राष्ट्र और कोफी अन्नान और 1999 में डॉक्टर्स विदआउट बॉर्डर्स को दिया जा चुका है। यानी संस्थाओं को उल्लेखनीय कार्य के लिए नोबेल पुरस्कार मिलता रहा है, लेकिन इंटरनेट तो संस्था भी नहीं है। पारिभाषिक शब्दावली में इंटरनेट महज छोटे-छोटे कंप्यूटर नेटवर्क्स को मिलाकर बना एक बड़ा नेटवर्क है। वर्ल्ड वाइड वेब(डब्लूडब्लूडब्लू) भी कई सेवाओं को प्लेटफॉर्म देने वाली एक सर्विस है। इस प्लेटफॉर्म पर ई-मेल,सोशल नेटवर्किंग साइट्स, ई-बैकिंग आदि तमाम सुविधाएं संचालित होती हैं।
इन किंतु-परंतु के बावजूद इंटरनेट शांति के नोबेल पुरस्कारों के मजबूत दावेदारों में उभर सकता है। वजह-इसके पक्ष में होने वाला कैंपेन। नोबेल पुरस्कारों की घोषणा अक्टूबर 2010 में होगी, और वायर्ड पत्रिका की तरफ से सितंबर तक मुहिम चलायी जाएगी। इंटरनेट को नोबेल पुरस्कार मिले अथवा न मिले-वायर्ड पत्रिका के लिए यह दोनों हाथ में लड्डू सरीखा है। वायर्ड पत्रिका का मकसद महज कैंपेन का सफल बनाना है और इसमें वो सफल भी होगी।
दरअसल, दुनिया की मशहूर पत्रिकाओं में शुमार वायर्ड मंदी के दौर में खासी प्रभावित हुई है। पिछले साल इस पत्रिका के विज्ञापन राजस्व में लगातार कमी हुई। पब्लिशर्स इनफोरमेशन ब्यूरो के आंकड़े के मुताबिक 2009 की पहली तिमाही में तो पत्रिका के विज्ञापन राजस्व में 50.4 फीसदी की गिरावट आई। यह हाल पूरे साल रहा। क्रिस एंडरसन के संपादन में निकलने वाली इस पत्रिका को लेकर मशहूर स्तंभकार स्टीफेनी क्लीफोर्ड ने न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा भी- ‘तीन नेशनल मैग्जीन अवॉर्ड जीतने वाली वायर्ड का करिश्मा विज्ञापन जुटाने में नाकाम रहा और 2009 में विज्ञापन राजस्व 50 फीसदी तक गिर गया।‘ मंदी से जूझते हुए पत्रिका ने बड़ी संख्या में अपने कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखाया। इसी वक्त, कंपनी के सामने इटली और ब्रिटेन में पत्रिका शुरु करने का दबाव था,जहां काफी निवेश किया जा चुका था। इस कड़ी में 18 फरवरी 2009 को वायर्ड के इतावली संस्करण की शुरुआत हुई। फिर अप्रैल में ब्रिटिश संस्करण की। वायर्ड पत्रिका इन दोनों देशों में अमेरिकी संस्करण का रुपांतरित संस्करण नहीं निकालना चाहती थी, लिहाजा कंटेंट को पूरी तरह अलग रखा गया। बावजूद इसके, वायर्ड के इतावली और ब्रिटिश संस्करण को कोई करिश्माई कामयाबी नहीं मिली है।
वायर्ड ने इंटरनेट को शांति के नोबल पुरस्कारों के लिए नामांकित कर एक तीर से कई निशाने साधे हैं। दुनियाभर में इस खबर के बाद अचानक सुर्खियों में आई पत्रिका ने खासी पब्लिसिटी बटोरी। इंटरनेट को अवॉर्ड दिलाने की मुहिम अब अगले छह-सात महीनों तक जारी रहेगी। यानी बिक्री में बढ़ोतरी होने की संभावना बढ़ेगी और बड़ी संख्या में लोग पत्रिका के नेट संस्करण तक पहुंचेंगे। वायर्ड उन चुनिंदा पत्रिकाओं में है,जिसका नेट संस्करण खासा कमाऊ रहा है। अमेरिका में वायर्डडॉटकॉम टॉप 200 वेबसाइट्स में एक है। इतावली संस्करण को इस कैंपेन का अगुआ बनाकर पत्रिका ने कई कंपनियों से ‘टाइ-अप’ करने में कामयाबी पाई है,जो उसके लिए विज्ञापनों का बड़ा स्रोत बनेंगे। सिर्फ इटली में ही नहीं, अमेरिका और ब्रिटेन में भी।
जानकारों का मानना है कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को जिस तरह अवॉर्ड कमिटी ने शांति के नोबेल पुरस्कारों के लिए चुना, उसके बाद इंटरनेट का चुनाव नामुमकिन नहीं है। क्योंकि,कमिटी के लिए अब ‘परसेप्शन’ महत्वपूर्ण हो गया है। दिलचस्प है कि जुलाई 2009 में इरान में राष्ट्रपति चुनाव के दौरान माइक्रोब्लॉगिंग साइट ट्विटर के योगदान के बीच अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मार्क पफेल ने ट्विटर के संस्थापकों को नोबेल शांति पुरस्कार देने की मांग की थी। सरकार में बैठे कुछ आला अधिकारियों ने उनकी मांग का समर्थन भी किया था। लेकिन इस बार तो वायर्ड ने बाकायदा रणनीति के तहत कैंपेन शुरु किया है।
दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित नोबेल शांति अवॉर्ड के लिए इंटरनेट के पक्ष में कैंपेन एक व्यवसायिक कवायद है। हालांकि, अवॉर्ड के लिए इंटरनेट की राह आसान नहीं हैं,लेकिन वायर्ड को तो सिर्फ कैंपेन की सफलता से मतलब है। फिर, इंटरनेट पर ही इन दिनों एक चुटकुला चल निकला है, नेट को नोबेल का शांति पुरस्कार मिल भी गया तो लेने आएगा कौन?
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Tuesday, February 2, 2010
सोशल मीडिया में नौकरी भी है.....
सोशल मीडिया पर अपने ब्रांड को मजबूत करने से लेकर, अपनी इमेज सुधारने और नया बाज़ार बनाने के मकसद से कंपनियों को सोशल मीडिया के तमाम पहलुओं की जानकारी रखने वाले लोगों की आवश्यकता हो रही है। इस तरह सोशल मीडिया की समझ रखने वाले लोगों के लिए रोजगार की एक नयी राह खुल चुकी है। दिलचस्प यह कि सोशल मीडिया के क्षेत्र में उन युवाओं के लिए भी खास मौके हैं,जिनके पास किसी कंपनी में काम का कोई अनुभव नहीं है। अनिल धीरुबाई अंबानी ग्रुप ने हाल में मुंबई में ‘ऑनलाइन/सोशल मीडिया मैनेजमेंट’ नाम से भर्ती का विज्ञापन निकाला तो उसमें अनुभव कैटेगरी में लिखा गया-शून्य। चेन्नई के अखबारों या वेबसाइट्स पर सोशल मीडिया इंटर्न से एक्सपर्ट तक के तमाम विज्ञापन दिखायी दे रहे हैं,जहां अभ्यर्थियों से अनुभव नहीं मांगा जा रहा अलबत्ता इस क्षेत्र में समझ की दरकार जरुर है।
इस मामले में न्यूयॉर्क की एक नयी ई-कॉमर्स कंपनी का क्रेगलिस्ट में प्रकाशित विज्ञापन शानदार है। कंपनी ने महज 195 शब्दों के अपने विज्ञापन में अभ्यर्थियों से कहा-‘आप हमें दो ट्वीट ई-मेल कीजिए। पहला अपने अनुभव के बारे में। दूसरा,क्यों आप इस जॉब के लिए उपयुक्त हैं। अगर आपने ट्विटर की शब्द संख्या में अपना जवाब दे दिया तो आप अपना काम कर गए। इसके अलावा हमें अपना ट्विटर एकाउंट मेल कीजिए। बताइए आपके कितने फॉलोअर्स हैं। और कितने लोगों को आप फॉलो करते हैं। ज्यादा फॉलोअर्स बनाने के क्या तरीके हैं। और आपकी वेतन अपेक्षा क्या है।‘ इस विज्ञापन से स्पष्ट है कि सोशल मीडिया की समझ लगातार कंपनियों के लिए कितनी अहम हो रही है।
दरअसल, फेसबुक,आर्कुट,माइस्पेस जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स से लेकर माइक्रोब्लॉगिंग साइट ट्विटर तक सोशल मीडिया पर एक नया संसार बस चुका है, जहां लोग जाति-धर्म और आर्थिक भेदभाव के बिना आपस में जुड़े हैं। इस नए संसार की समझ नयी पीढ़ी के युवाओं को बहुत है, और अगर वो इस क्षेत्र में रोजगार की संभावना को तलाशें तो यह एक करियर विकल्प भी हो सकता है। दूसरे शब्दों में, सोशल मीडिया लफ्फाजी और मनोरंजन से कहीं आगे जिंदगी जीने का जरिया बन सकता है। वैसे, एक दिलचस्प बात यह भी है कि कंपनियां अगर सोशल मीडिया एक्सपर्ट तलाश रही हैं,तो इसी सोशल मीडिया के जरिए अभ्यर्थियों को खारिज भी कर रही हैं। ऑनलाइन जॉब साइट करियरबिल्डर द्वारा 1000 कंपनियों के बीच किए एक सर्वे के मुताबिक 73 फीसदी कंपनियां अभ्यर्थियों के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए सोशल मीडिया खासकर सोशल नेटवर्किंग साइट्स खंगाल रही हैं। रिपोर्ट की मानें तो 42 फीसदी कंपनियों को अभ्यर्थियों के बारे में सोशल मीडिया पर ऐसी जानकारी मिली, जिसके चलते उन्हें जॉब नहीं दी गई। 48 फीसदी कंपनियों ने कहा कि सोशल नेटवर्किंग साइट पर अपनी अकादमिक योग्यता के बारे में झूठ बोलने की वजह से कई कैंडिडेट्स को नौकरी नहीं दी गई। सोशल नेटवर्किंग साइट्स समेत सोशल मीडिया के तमाम माध्यमों पर दी गईं सूचनाएं कंपनियों के लिए अभ्यर्थियों को जानने समझने का जरिया बन रही हैं। इस प्लेटफॉर्म पर कुछ झूठ भविष्य में बड़े मौके की राह का कांटा बन सकते हैं-ये भी युवाओं को समझना होगा।
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Monday, January 25, 2010
न्यूयॉर्क टाइम्स ऑनलाइन की पहल का मतलब
न्यूजकॉर्प के प्रमुख रुपर्ट मर्डोक ने हाल में गूगल पर अपने अखबारों के कंटेंट चोरी करने का आरोप लगाते हुए ऑनलाइन कंटेंट के लिए शुल्क वसूलने की बात कहकर एक जोरदार बहस छेड़ दी थी। मर्डोक का तर्क था कि सर्च इंजन ऑनलाइन कंटेंट की विशिष्टता खत्म कर देते हैं,लिहाजा वहां से लिंक हटाए जाएं और पाठकों को बेहतरीन कंटेंट देने के लिए शुल्क लिया जाए। लेकिन,सवाल यही है कि क्या पाठक ऑनलाइन कंटेंट खासकर सामान्य न्यूज कंटेंट के लिए शुल्क देने को तैयार हैं? एक तर्क है कि फाइनेंशियल टाइम्स, वॉल स्ट्रीट जर्नल और कुछ दूसरे अखबार अपने ऑनलाइन संस्करण के लिए फीस वसूल सकते हैं तो न्यूयॉर्क टाइम्स क्यों नहीं? दूसरा तर्क है कि शुल्क वसूलने वाले सभी अखबार-पत्रिकाएं बिजनेस अथवा किसी खास विषय पर केंद्रित हैं,जबकि न्यूयॉर्क टाइम्स के कई विकल्प बाजार में मौजूद हैं।
दोनों तर्क अपनी जगह सही हैं, लेकिन सचाई यह है कि न्यूयॉर्क टाइम्स ऑनलाइन इस पहल के जरिए भविष्य की रणनीति तैयार कर रहा है। साइट के ट्रैफिक पर नजर रखने वाली कंपनी कॉमस्कोर के मुताबिक न्यूयॉर्क टाइम्स डॉट कॉम के सितंबर 2009 में 15.4 मिलियन पाठक थे, जो दिसंबर में घटकर 12.4 मिलियन रह गए। ट्रैफिक घटने की और आशंका के बावजूद न्यूयॉर्क टाइम्स इस दिशा में आगे बढ़ा है,तो सोच-समझकर। हालांकि, 2005-07 में भी साइट टाइम्ससिलेक्ट नाम से शुल्क वसूलने का एक विफल प्रयोग कर चुकी है। लेकिन, इस दौर में भी साइट ने 2,10,000 ग्राहक बटोरने में कामयाबी पाई थी,जिनसे 50 डॉलर सालाना शुल्क लिया गया था। इसके जरिए न्यूयॉर्क टाइम्स ने 10.5 मिलियन डॉलर की कमाई की थी।
दरअसल, शुल्क वसूलने का ‘मीटर सिस्टम’ न्यूयॉर्क टाइम्स के लिए कामयाब साबित हो सकता है। रिसर्च बताती हैं कि अमेरिका में एक औसत पाठक 3.7 बार न्यूयॉर्क टाइम्स की साइट पर आता है, यानी ऐसे पाठकों को नये फॉर्मूले में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। जबकि,गंभीर पाठक 10-15 डॉलर तक आसानी से खर्च कर सकता है। यानी नया फॉर्मूला विज्ञापनों की घटती आय को कुछ हद तक पाट सकता है।
लेकिन, बात सिर्फ न्यूयॉर्क टाइम्स के ऑनलाइन संस्करण की नहीं, पूरे ऑनलाइन न्यूज कंटेंट की है। एक्सक्लूसिव कंटेंट के बिना शुल्क वसूलना मुमकिन नहीं है। न्यूयॉर्क टाइम्स को भरोसा है कि प्रामाणिक खबरें और विश्लेषात्मक रिपोर्ट उसे दौड़ में आगे रखेंगी। वैसे, कई दूसरे अंतरराष्ट्रीय अखबार अब इस दिशा में सोचने पर मजबूर होंगे। लेकिन, भारत में अभी यह दूर की कौड़ी है। ऑनलाइन संस्करणों के रुप में अखबारी संस्करणों की नकल, एक्सक्लूसिव कंटेंट की जबरदस्त कमी, इंटरनेट की सीमित उपलब्धता और खबरों के लिए ज्यादा जेब ढीली न करने की भारतीय मानसिकता जैसे कई इसके कारण हैं। हालांकि, ‘द हिन्दू’ ने ई-पेपर के लिए शुल्क वसूलने की शुरुआत की है, लेकिन असल सवाल तो अखबारों के वेब एडिशन का है।
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Saturday, January 16, 2010
चीन को गूगल की धमकी के मायने
हालांकि,गूगल ने चीन को अलविदा कहा तो उसका भी कम नुकसान नहीं होगा। कंपनी के चीन में 700 से ज्यादा कर्मचारी हैं। गूगल चीन से सालाना 300 मिलियन डॉलर कमा रहा है। कंपनी के सर्च इंजन की लोकप्रियता चीन में तेजी से बढ़ रही है। बीजिंग की संस्था एनलासिस इंटरनेशनल के आंकड़ों के मुताबिक 2009 की चौथी तिमाई में सर्च इंजन बाजार के 35.6 फीसदी हिस्से पर गूगल का कब्जा हो चुका है,जो तीन साल पहले 15 फीसदी भी नहीं था। हालांकि, चीनी सर्च इंजन बाइडू का अभी भी 58.4 फीसदी हिस्से पर कब्जा है, लेकिन गूगल की चुनौती लगातार बढ़ रही है। इसके अलावा गूगल का चीन की कई कंपनियों से अलग अलग स्तर पर समझौता है। इनमें चाइना मोबाइल लिमिटेड से लेकर देश के सबसे बड़े इंटरनेट पोर्टल सिना कॉर्प जैसी कंपनियां शामिल हैं।
इसका मतलब यह कि चीन से बोरिया-बिस्तर समेटना कंपनी के लिए काफी नुकसानदायक है। लेकिन, गूगल ऐसा कर सकता है क्योंकि अब चीन के नियम-कायदे उसकी साख पर बट्टा लगा रहे हैं। दरअसल, अमेरिकी कंपनी गूगल ने 2005 में सबसे अधिक इंटरनेट उपयोक्ताओं वाले देश चीन में कदम रखा तो उसकी नज़र बड़े बाजार पर थी। लिहाजा,चीनी सरकार के सीमित लोकतंत्र के फलसफे को उसे अपने सर्च इंजन पर भी लागू करने में हिचक नहीं हुई। गूगलडॉटसीएन यानी चीन में संचालित होने वाला कंपनी का सर्च इंजन एक सेंसरशिप के तहत काम कर रहा है,जहां दलाई लामा से लेकर तेनमेन चौक नरसंहार समेत करीब पांच हजार राजनीतिक और गैरराजनीतिक शब्दों पर इस कदर सेंसरशिप है कि इन्हें सर्च करने पर नतीजा खाली पेज के रुप में दिखायी देता है। सेंसरशिप पर गूगल चीनी सरकार के नियमों से बंधी हुई है,जबकि उसका अंतरराष्ट्रीय सर्च इंजन गूगलडॉटकॉम इन नियमों से नहीं बंधा है। ऐसे में गूगल के मुख्य सर्च इंजन और उसकी तमाम सेवाओं (जीमेल-ब्लॉगर-यूट्यूब,विकीपीडिया) पर चीन विरोधी नारे अकसर गूंजते रहते हैं। असल दिक्तत तब शुरु हुई,जब हैकर्स ने गूगल की अन्य सेवाओं पर धावा बोलना शुरु किया। चीन में मानवाधिकार हनन अथवा चीन सरकार के राजनीतिक कदमों के खिलाफ सामग्री हैकर्स के निशाने पर रही। चीन सरकार ने भी कभी यूट्यूब को प्रतिबंधि किया तो कभी माइक्रोब्लॉगिंग साइट ट्विटर पर पाबंदी लगाई। यानी नेट पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सवाल लगातार चीन में उठता रहा। लेकिन, गूगल ने अब आरोप लगाया है कि दिसंबर में हैकर्स ने जी-मेल के दुनियाभर के उन एकाउंट को निशाना बनाया,जो चीन में मानवाधिकार की वकालत करते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बांधने के तहत किए इन हमलों को संगठित चीनी हैकर्स ने संचालित किया, और यह सरकारी मदद के मुमकिन नहीं है। हालांकि, गूगल ने सीधे सीधे चीनी सरकार पर हैकिंग का आरोप नहीं लगाया लेकिन उसने कह दिया कि सेंसरशिप के साए में उसका काम करना मुश्किल है। वो चीन की सरकार से बात करेगी, लेकिन सरकार के सख्त कानूनों के तहत समझौते का रास्ता निकलना मुश्किल है,लिहाजा गूगल चीन से बाहर निकलने को तैयार है। जानकारों का कहना है कि गूगल एक तरफ तो चीन के विशाल नेट बाजार से फायदा कमाना चाहती है,लेकिन दूसरी तरफ उन्हें उन लोकल कानूनों और परंपराओं से जूझना है,जो पश्चिम से भिन्न हैं। खासकर मीडिया कंपनियों के परिप्रेक्ष्य में। चीन में निजता और मानवाधिकार की अपनी परिभाषा है,जिससे गूगल दो चार है। वैसे, इंटरनेट शुरुआत से चीन में सेंसरशिप के साए में है। अब, हैकिंग से साख पर लगते बट्टे और लगातार सेंसरशिप की परेशानियों से त्रस्त गूगल आर-पार की लड़ाई में है।
गूगल के जाने से बाइडू और दूसरी लोकल सर्च कंपनियों को जरुर फायदा होगा। इसकी पुष्टि गूगल की धमकी के बाद नैसडेक में बाइडू के शेयरों की बढ़त से हो गई, जहां बाइडू के शेयर 16.1 फीसदी उछल गए। लेकिन चीन को भी भारी नुकसान हो सकता है। गूगल जैसी हाईटेक कंपनी के बाहर होने के बाद विदेशी निवेशकों को चिंता हो सकती हैं कि सरकारी समर्थन वाली हैकिंग के चलते उनके कारोबारी राज और बौद्धिक संपदा सुरक्षित नहीं है। इसके अलावा अमेरिकी डमोक्रेटिक प्रशासन में बैठे उन लोगों को भी यह मसला सक्रिय कर सकता है,जो मानवाधिकार के प्रति संवेदनशील हैं। गूगल का जाना अमेरिका का चीन के प्रति बढ़ती मुहब्बत पर विराम लगा सकता है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने हाल में चीन की अपनी यात्रा के दौरान मानवाधिकार के हनन और मुद्रा में जोड़तोड़ जैसे मसलों पर चीन की आलोचनाओं को दरकिनार कर दिया था लेकिन इस वाकये के बाद अमेरिका सख्ती से चीन से स्पष्टीकरण मांग रहा है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि चीन में सीमित लोकतंत्र है,लेकिन गूगल भी अपने पांव पसारने को बेताब हर देश में घुसपैठ कर रहा है। अलग अलग देशों की अपनी सोच है,जिसे गूगल अपने मुताबिक नहीं ढाल सकता। दिलचस्प है कि जिस वक्त गूगल ने चीन से बाहर जाने की धमकी दी, लगभग उसी वक्त फ्रांस सरकार ने गूगल के किताबों को डिजीटल करने के प्रोजेक्ट को बाहर फेंकने की धमकी दे डाली। फ्रांस सरकार इस मसले को कॉपीराइट के अलावा अपनी सांस्कृतिक धरोहर को एक अमेरिकी कंपनी की गिरफ्त के रुप में देख रही है। फिलहाल, गूगल के लिए भी चुनौती है कि वो कैसे इन संकटों से उबरती है। खासकर विश्वसनीयता के संकट से, क्योंकि जी-मेल एकाउंट हैक होने की बात तो आम आदमी को भी डराती है कि क्या जी-मेल का ई-मेल एकाउंट हैक होना इतना आसान है?
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