Thursday, October 29, 2009

कॉमेडी के बाजार में विशुद्ध व्यंग्य को पुनर्स्थापित करता ‘लापतागंज ’

बुधवार यानी 28 अक्टूबर को सब टीवी पर प्रसारित लापतागंज का तीसरा एपिसोड देखा तो एक छोटे से शब्द ने दिल खुश कर दिया। शब्द था-लबड़याए। धारावाहिक के मुख्य किरदार मुकंदी लाल गुप्ता की पत्नी घर के बीच में चावल की बोरी पर गिरे पति से दो टूक कहती है- तुम कहां बीच में ही लबड़याए रहे हो...सोना है तो बिस्तर पर सोओ। पूरी तरह याद नहीं है, लेकिन ये एपिसोड शरद जोशी के संभवत: डेमोक्रेसी नामक निबंध का रुपांतरण था, जिसमें वोट की ताकत से अंजान लोगों की वोट डालने में दिलचस्पी नहीं है, और जिन चंद लोगों की दिलचस्पी है भी, उन्हें वोट डालना नसीब नहीं होता, क्योंकि या तो उनके वोट पहले ही डाल दिए जाते हैं या फिर वोटर लिस्ट में उनका नाम नहीं होता।

लब्धप्रतिष्ठ व्यंग्यकार शरद जोशी के व्यंग्य पर आधारित सीरियल लापतागंज की पिछली तीन कड़ियों को देखकर शिद्दत से अहसास होता है कि टेलीविजन पर बन चुके कॉमेडी के बड़े बाजार में विशुद्ध व्यंग्य के लिए न केवल जगह है, बल्कि विज्ञापन भी हैं। अच्छी बात यह है कि इन व्यंग्यों को स्क्रिप्ट में परिवर्तित करते हुए थोड़ा बहुत परिवर्तन किया है लेकिन वो आज की परिस्थतियों आवश्यक मालूम पड़ता है। मसलन-बुधवार के एपिसोड में वोट डालने को इच्छुक एक शख्स कहता है- मेरी पत्नी ने जब से देखा है कि वोट डालने के बाद लोग अपनी निशान लगी उंगली दिखाते हैं, तब से वोट डालने को उतावली है। इसलिए उसने नेल पॉलिश भी लगाई है।

इसी सीरियल के सबसे पहले एपिसोड़ की शुरुआत शरद जोशी के उस व्यंग्य से हुई, जिसमें उन्होंने अचानक प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने वाले राजीव गांधी पर कटाक्ष किया था। उस दौर में उनका वो व्यंग्य लेख खासा चर्चित भी हुआ था। पानी की समस्या पर आधारित इस व्यंग्य में राजीव जी गांव के लोगों से पूछते हैं- गांव से नदी कितनी दूर है? गांव वाले जवाब देते हैं-दो किलोमीटर। तो राजीव फिर सवाल करते हैं-तो क्या लौटते में भी इतनी ही पड़ती है। ऐसे कई कटाक्ष इस व्यंग्य में हैं। लेकिन,लापतागंज में राजीव जी का किरदार बदलकर एक विदेश में पढ़े-लिखे मुख्यमंत्री का हो जाता है, जो अपने पिता के मरने के बाद कुर्सी संभालता है।

लेकिन,सवाल शरद जोशी के व्यंग्य के टेलीस्क्रिप्ट में बदलने का नहीं है। सवाल है इस सीरियल के बहाने विशुद्द व्यंग्य की दर्शकों के बीच पहुंच का। अचानक रजनी, ये जो है ज़िंदगी और कक्का जी कहिन जैसे दूरदर्शन मार्का लेकिन सामाजिक विसंगतियों पर कटाक्ष करते धारावाहिकों की याद दिलाता हुआ ‘लापतागंज ’ बाजारवाद के उस दौर में दर्शकों से रुबरु है, जहां इस तरह का सीरियल निर्माण की सोच भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं है।

दरअसल,लापतागंज सिर्फ एक कॉमेडी सीरियल नहीं है,ये उससे कहीं आगे का धारावाहिक है। आखिर,व्यंग्य को सामाजिक आक्रोश की परीणिति कहा गया है, और इस सीरियल के बहाने शरद जोशी की कलम से निकले कटाक्ष एक बार फिर दर्शकों को सोचने को मजबूर करेंगे कि कुछ भी तो नहीं बदला।

फिर, स्वस्थ्य मनोरंजन की दृष्टि से देखें तो हंसी-ठिठोली का बड़ा बाजार आज मौजूद है, लेकिन इसमें व्यंग्य कहां है ?या तो इस कॉमेडी में मिमिक्री है या भौंडा हास्य। कहीं द्विअर्थी चुटकुलेबाजी है, तो कहीं सिर्फ हंसाने की कोशिश करते निरर्थक चुटकले। हां, इनके बीच तारक मेहता का उल्टा चश्मा जैसे धारावाहिक सामाजिक संदेश देने की कोशिश करते जरुर दिखते हैं,लेकिन एक सीमा तक।

दिलचस्प यह है कि ‘लापतागंज ’ के दौरान विज्ञापनों की खासी तादाद पहली नज़र में यह भरोसा जगाती है कि विज्ञापनदाताओं को भी शरद जोशी के व्यंग्य की ताकत मालूम है, और उन्हें इसके हिट होने का भरोसा है। सब टीवी का भारतीय टेलीविजन की दुनिया में यह योगदान तो है ही, कि वो उन सीरियल्स के जरिए स्वस्थ्य मनोरंजन की अलख जगाए हुए है,जिनके लिए टीआरपी की होड़ में जुटे चैनलों पर जगह नहीं है।

Monday, October 26, 2009

'नई दुनिया' की गलतियों के बहाने एक सवाल


क्या हिन्दी के समाचार पत्र भाषा-वर्तनी की गलतियां बहुत ज्यादा करते हैं? ये सवाल इसलिए क्योंकि यह गलतियां लगातार अख़बारों में दिखायी देती हैं, और आप इनसे चाहकर भी नज़र नहीं चुरा सकते। राष्ट्रीय समाचार पत्रों में तमाम सावधानियों के बावजूद गलतियां दिखायी देती हैं तो अफसोस अधिक होता है।

ये बात आज इसलिए क्योंकि राष्ट्रीय समाचार पत्र ‘नई दुनिया’ के 26 अक्टूबर के अंक को रोज की तरह देखा तो अचानक हेडलाइन्स में एक के बाद एक कई गलतियां दिखायी दे गईं। कहीं बदमाश को बादमाश लिखा गया, तो कहीं शिकंजा को शिंकजा। सवाल, छोटी-बड़ी गलती का नहीं है, सवाल है अशुद्धि का।

क्योंकि, जब शब्द हेडलाइन में ही गलत लिखे दिखायी देते हैं,तो पढ़ना अचानक भारी लगने लगता है। खास बात यह कि आपके सामने प्रस्तुत तीन कतरनें सरसरी निगाह से अखबार पढ़ने के दौरान ही दिखायी दे गईं। और इन समाचारों की पूरी कॉपी नहीं पढ़ी गई है। अब आप इन तीन कतरनों पर नज़र डालिए और अपने विचार बताइए.........

Monday, October 5, 2009

जनाब राज ठाकरे साहब से अहम दरख्वास्त

आदरणीय राज भैया,

फिल्मों में आने का शौक है, इसलिए आपके लागू तमाम सिद्धांतों को अभी से घोंट घोंट कर पीने की कोशिश कर रहे हैं। ना..ना...भाई साहब, एक्टिंग का कोई इरादा नहीं है...अपन तो डायरेक्शन में हाथ आजमाने आएंगे मुंबई। तुमची मुंबई। फ़क्त तुमची मुंबई। करण जौहर के आपके सापने हाथ जोड़कर खड़े रहने के बाद समझ आ गया है कि डायरेक्शन बिना आपकी इजाजत नहीं होगा। अपन को कोई दिक्कत नहीं है। स्क्रिप्ट,डायलॉग वगैरह की एक कॉपी शूटिंग शुरु करने से पहले ही आपके शुभ हाथों से ‘अटैस्टेड’ करा ले जाएंगे।

लेकिन भैया, बड़ा कन्फ्यूजन है। इधर हम लगातार मुंबई मुंबई कहने की आदत डाल रहे हैं, उधर टेलीविजन पर एक विज्ञापन लगातार हमारे कानों में बंबई नाम का ज़हर डाल रहा है। क्या कहा ? आपको पता ही नहीं है कि आपके राज में आपके आंखों के नीचे बने इस विज्ञापन के बारे में ?

भैया,वोडाफोन वालों का विज्ञापन है। इरफान खान इस विज्ञापन में अपने भाई की शादी का जिक्र करता है। फिर कहता है, अब लगाओ फोन- दिल्ली,बंबई,कलकत्ता,चेन्नई। मुझे तो इस पर भी घनघोर आपत्ति है कि इरफान खान ने मुंबई को बंबई और कोलकाता को कलकत्ता कहने की हिमाकत की। लेकिन, उत्तर भारतीय होने के बावजूद चेन्नई को मद्रास नहीं कहा। वैसे,इरफान के हाथों में अभी काफी हिन्दी फिल्में हैं,पर हो सकता है कि वो साऊथ की फिल्मों के लिए अभी से सैटिंग कर रहा हो।

लेकिन,अपन को उसकी सैटिंग से क्या? हमें तो अपनी भावी फिल्म से मतलब है। राज साहब, इधऱ दिल्ली में बैठकर मुंबई वंदना की आदत डाल रहे हैं,लेकिन इस विज्ञापन की वजह से सब गुड़गोबर हो रहा है। उस पर, एक कन्फ्यूजन यह भी होता है कि आपकी औकात कुछ नहीं है। आप वोडाफोन का एक विज्ञापन, जो दिन भर तमाम टेलीविजन चैनलों पर भौंपू की तरह बजता रहता है, उसे नहीं रुकवा पाए तो हमारा क्या उखाड़ लोगे ?

अरे ना ना....बुरा ना मानना भइया....ये कन्फ्यूजन होता है। इसलिए कृपया कर ‘वेक अप सिड’ के खिलाफ अपने दिखाए पराक्रम का एक नमूना इस विज्ञापन के खिलाफ भी दिखाइए। बड़ी मेहरबानी होगी। और हां, मुंबई मुंबई मुंबई मुंबई मुंबई...........1001 की माला जप रहा हूं। इस माला में विघ्न न पड़े-इसलिए तत्काल कार्रवाई अपेक्षित है।

Saturday, October 3, 2009

गूगल बनाम गांधी ब्रांड

बापू के 140वें जन्मदिन पर आयोजित कार्यक्रमों और घोषणाओं के बीच एक खबर अचानक ध्यान खींच रही थी। वो थी गूगल का गांधी प्रेम। गूगल सर्च इंजन ने अपने Google के G को बापू के चेहरे में तब्दील कर दिया। इंटरनेट पर गूगल के इस गांधी प्रेम पर भारतीय समाचार पत्र, वेबसाइट्स और दूसरे समाचार माध्यम इतने प्रभावित हुए कि सभी ने इस खबर को तवज्जो दी।

सवाल ये कि गूगल को भारत के राष्ट्रपिता पर इतना प्यार कहां से आ गया? फिर,ये भी मुमकिन नहीं कि गूगल के कर्ता धर्ता अचानक गांधी के आदर्शों से रुबरु हुए,और सर्च इंजन पर उनकी तस्वीर टांग दी। ओबामा का गांधी की महानता पर भाषण भी बाद में आया, और गूगल इससे पहले ही बापू की तस्वीर टांग चुका था।

तो सवाल यही गूगल की इस कवायद का मकसद क्या है? सूचना तकनीक से संबंधित कई लोगों का तर्क है कि गूगल दुनिया का सबसे बड़ा सर्च इंजन है, और उसकी इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि इससे अंहिसा को हथियार बनाने वाले बापू के आदर्शों को दुनिया भर में फिर जाना-पढ़ा जाएगा।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि गूगल दुनिया का सबसे बड़ा सर्च इंजन है। सर्च इंजन के करीब 85 फीसदी बाजार पर इसका कब्जा है। गूगल पर गांधी की तस्वीर देखकर नयी पीढ़ी,खासकर विदेशों में रह रहे नौजवानों को यह जानने की जिज्ञासा हो सकती है कि ये शख्स कौन है? 140 वें जन्मदिन पर गूगल की इस पहल का स्वागत भी किया जाना चाहिए।

लेकिन,क्या इस कवायद में गूगल का कोई स्वार्थ नहीं है? वैसे,ये सोचना गलती है। गूगल को सिर्फ और सिर्फ गांधी के आदर्शों-सिद्धांतों या उनकी महानता के प्रचार में दिलचस्पी होती तो वो बापू पर समर्पित एक वेबसाइट बना सकता था। ये साइट एक नहीं कई भाषाओं में होती ताकि दुनिया भर के लोग गांधी के विचारों को समझ पाते। किसी भारतीय संस्थान ने इस तरह का प्रयोग अभी तक नहीं किया,लेकिन गूगल के पास मौजूद असीमित संसाधन और पूंजी के लिए यह काम कठिन नहीं था। भारतीय आम चुनावों के वक्त गूगल ने सभी संसदीय क्षेत्रों से लेकर उम्मीदवारों तक की जानकारी के लिए एक समर्पित साइट बनायी थी, तो बापू के लिए यह काम मुश्किल नहीं था।

गूगल चाहता तो गांधी के नाम से कई परियोजनाएं शुरु कर सकता था,जिनका अपना महत्व होता। लेकिन,नहीं। दरअसल,गूगल ऐसा कुछ चाहता ही नहीं था। गूगल सिर्फ भारत के सबसे बड़े ब्रांड गांधी को भुनाना चाहता था,सो उसने मुफ्त में भुना लिया। सर्च इंजन के होमपेज पर गांधी की तस्वीर टांगने में न तो किसी शोध की दरकार है, और न वक्त की। लेकिन, गांधी नाम का ब्रांड गूगल को वह पब्लिसिटी दे गया, जो वो कई बड़ी घोषणाओं के जरिए भी नहीं पा पाता। फिर, देशभक्ति के तड़के में गूगल की यह पहल भी खास हो गई।

वैसे,गूगल को अब ये बात समझ आ गई है कि महान हस्तियों के नाम और तस्वीर के सहारे ही खासी पब्लिसिटी बटोरी जा सकती है,लिहाजा वो यह कवायद लगातार करने लगा है। हाल में गूगल ने महान ब्रिटिश लेखक एच जी वेल्स को छोटे ट्वीट्स और एलीअन के लोगों बनाकर याद किया था। गौरतलब है कि वेल्स साइंस फिक्शन के लिए मशहूर थे। इसके बाद चीन के महान दार्शनिक कन्फ्यूशियस का जन्मदिन मनाया। अपने 11वें जन्मदिन पर गूगल ने फिर लोगो बदला। और अब बापू के जन्मदिन पर गूगल बापूमय हुआ।

दरअसल,महात्मा गांधी से लेकर वेल्स तक सभी महान हस्तियां अपने आप में ब्रांड हैं। इनके नाम पर सवार होकर पब्लिसिटी बटोरना हमेशा से आसान रहा है। गूगल अब इसी सिद्धांत के आसरे मुफ्त में पब्लिसिटी बटोर रहा है। देश के तमाम बड़े अखबारों में ‘गूगल पर गांधी’ वाली खबर के प्रकाशित होने का यही अर्थ है।