Sunday, February 28, 2010

होली से डरने वालों के लिए क्रेश कोर्स (व्यंग्य)

अगर आपको होली से डर लगता है। होली नामक त्योहार के लिए खुद को फिट न समझते हुए आप इस भद्दा मजाक करार देते हैं। लुटे-पिटे-काले-कलूटे चेहरों को देख आप सहम जाते हैं। कोई रंग लगाने आए तो आप खुद को बाथरूम में बंद कर घरवालों को गांधी के सत्य के नियम के खिलाफ जाने के लिए लगभग बाध्य करते हैं। होली की सुबह 7 से शाम पांच बजे तक अपनी ऐसी-तैसी सिर्फ और सिर्फ टेलीविजन के सामने कराते हैं, और घर से बाहर निकलने के ख्वाब मात्र से आपको घर में बने ‘होनालूलू’ जाना पड़ता है तो यह क्रेश कोर्स आपके लिए है।

तो जनाब, होली बड़ा विकट किस्म का त्योहार है। और मुरली मनोहर की पावन धरा के इस वर्ल्ड फेम गेम से डरने वालों के लिए बाबा रंगानी का आजमाया हुआ दस सूत्रीय फॉर्मूला निम्नलिखित है-

1-होली पर सबसे पहले सुबह सुबह तेल में भिगोकर अपनी ही चप्पल कम से पचास बार खुद को जड़ डालें। इस चप्पल को बीच बीच में अपने पसंदीदा रंग में भी डुबो लें और फिर खुद को जड़े। शरीर पर हुए हर वार का दूसरे वार से एक बिलत्ते का फासला होना चाहिए। ऐसा होने से एक एथनिक लुक आ जाएगा। और आपको रंगने आने वाला भेड़िया इस एथनिक लुक में आपको लुटा पिटा देख अपना रंग बर्बाद करने के विषय में नहीं सोचेगा।

2-अपनी बॉडी पर एथनिक पेंट करने के बाद अपने वस्त्रों को मनीष मल्होत्रा टाइप डिजाइन कीजिए। इसके लिए अपना फटा कुर्ता ढूंढकर निकालिए। यदि ‘फटा होने’ के विषय में संशय हो तो घर में रखे कैकटस के पौधे अथवा दरवाजे के कड़े में दोनों जेबों को फंसाकर खींचिए। जेब फटते हुए ऊपर की ओर जहां तक जाएगी, वो आपकी डिजाइन को उतना ही लेटेस्ट लुक देगा।
3-खैर, इस लुक में काफी वक्त बर्बाद होने के बाद आपके भीतर एक सेल्फ कॉन्फिडेंस आ जाएगा। आखिर, अगर आप होली की तैयारी इस शिद्दत से कर सकते हैं तो होली खेल भी सकते हैं। डरिए मत। अब वक्त आ रहा है कि आप रंगों के त्योहार में रंग जाएंगे।

4-चलिए, आप होली खेलने के लिए आखिर तैयार तो हो गए। लुक बिलकुल हुलियारों सरीखा बन चुका है। बस,अब उमंग की कमी है। इस उमंग को भंग के साथ एक झटके में पैदा किया जा सकता है। इसलिए भंग का कोई एक्सपीरियंस हो तो फौरन ठंडाई में डालकर पी ही लीजिए। लेकिन, अगर यह महान अनुभव नहीं है,तो कोई बात नहीं। नशेबाज ही होली खेलेंगे-ऐसा किसी वेद-पुराण में नहीं लिखा। बस आप हौसला रखिए।

5-तो जनाब, नंगपन की हद तक होली खेलने की आवश्यक शर्त -भंग पीना- आप पूरी नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए, नयी डगर से आपको मंजिल तक भेजना होगा।

6-तो ऐसा है जनाब। अगर आप किसी मकान के मालिक हैं। उस मकान मालिक की औलाद हैं या उसके रिश्तेदार हैं, तो बस किराएदार को बेहिचक रंगने पहुंच जाइए। और हां, किराएदार के घर में तभी जाइए, जब ‘भैया’ न हों। इस करतब को करते हुए आपका दिल पहली पहली बार थोड़ा घबराएगा जरुर, लेकिन आप डटे रहिए। क्योंकि, अगर आपकी इमेज सज्जन टाइप के प्राणी की है तो भाभी खुद आपको रंग देंगी। भाभी आपके चिकने गालों को खुद रगड़ रगड़ कर रंगीला बना देंगी। इस केस में आपको कुछ नहीं करना है। सिर्फ आंख बंद कर भाभी को देखना है।

7-लेकिन,अगर आपकी इमेज हरामी टाइप की है,तो अव्वल तो आपको होली से डर लगता नहीं होगा। लेकिन, अगर लगता भी होगा तो आप भाभी से होली पर छेड़खानी करने में बिलकुल न डरें। ये आपका जन्मसिद्ध अधिकार है।

8-खैर, भाभियों से मौज मस्ती के बाद आपको थोड़ा कॉन्फिडेंस और आएगा। मान लीजिए कि आप अब ट्रेंड हुलियारों की कैटेगरी में पहुंच रहे हैं। बस, आपको अब करना यह है कि पड़ोस की जिस कुड़ी को आप लगातार निहार रहे हैं, और जिसके गुलाबी गालों के चक्कर में आपकी रंग भेद में अक्षम आंखों को रंग समझ आने लगे हैं-उस कुड़ी के घर पहुंच जाइए। हिम्मत रखिए.....अगर लड़की का बाप या मां से आमना-सामना हो जाए तो फौरन उनके पैर छूकर थोड़ा गुलाल मल दीजिए। हैप्पी होली कहिए और चीते की फुर्ती से आगे बढ़ जाइए। आपको यह जोखिम भरा लग सकता है, लेकिन घबराने से कुछ नहीं होगा। आप अपने कदमों को बढ़ने दीजिए। आपकी पिंकी, प्रीति, छुटकी, बिल्लो, रानी वगैरह वगैरह जो भी है, वो आपके सामने होगी। अब बस बिना देर किए उसके गुलाबी गालों पर उधार का गुलाल मल दीजिए।

9-समझ लीजिए। होली छिछोरेबाजी का त्योहार है। भारत में छिछोरेबाजों को सारी ट्रेनिंग इसी त्योहार में मिलती है। इसलिए डरिए मत। दूसरे गाल पर भी रंग मल दीजिए। और अगर आपको उसके शरीर के किसी भी कोने में हाथ लगाने का मौका मिल जाए तो बस उस मौके पर शेर के शिकार की तरह लपक लीजिए।

10-खुदा कसम...इसके बाद आपके शरीर में जो करंट दौड़ेगा, वो दुनिया के सभी किस्म के डरों का खात्मा कर देगा। अजीब सी सरसराहट शरीर को झंकृत कर देगी। और खुदा न खास्ता अगर लड़की भी आपसे कुछ इसी किस्म की छिछोरेबाजी की उम्मीद कर रही हुई, और उसने भी आपके बालों- गालों और ???? पर उंगली फेर दी तो..........। बस, समझ लीजिए कि होली इसी अहसास का नाम है। हां, इस किस्म की होली के बाद पड़ोस के घर में आपका आना जाना बंद हो सकता है, लेकिन उस आवाजाही को दोबारा खुलवाना का मौका भी तो होली ही है......।

क्यों न मना सका गब्बर होली (व्यंग्य)

“अरे ओ सांभा, होली कब है? कब है होली?” जेल से छूटकर लौटे गब्बर ने बौखला कर सांभा से पूछा।

“सरदार, होली 1 तारीख को है। लेकिन, अचानक होली का ख्याल कैसे आया। बसंती तो गांव छोड़कर जा चुकी है, और ठाकुर भी अब ज़िंदा नहीं है। फिर, होली किसके साथ खेलोगे?

“धत् तेरे की। लेकिन, वीरु-जय उनका क्या हुआ?”

“सरदार, तंबाकू चबाते चबाते तुम्हारी याददाश्त भी चली गई है। जय को तुमने ही ठिकाने लगा दिया था, और वीरु बसंती को लेकर मुंबई चला गया था।”

“जे बात...। जेल में बहुत साल गुजारने के बाद फ्लैशबैक में जाने में दिक्कत हो रही है। खैर, ये बताओ बाकी सब कहां हैं।”

“ कौन बाकी। तुम और हम बचे हैं। कालिया को जैसे तुमने मारा था, उसके बाद सारे साथी भाग लिए थे। बचे घुचे जय-वीरु ने टपका दिए थे।”

“तो रामगढ़ में हमारी कोई औकात नहीं अब ? कोई डरता नहीं हमसे? एक ज़माना था कि यहां से पचास पचास मील दूर कोई बच्चा रोता था तो मां कहती थी कि.....”

“अरे, कित्ती बार मारोगे ये डायलॉग। इन दिनों बच्चे रोते नहीं। मां-बाप रोते हैं। बच्चे हर दूसरे दिन मैक्डोनाल्ड जाने की जिद करते हैं। मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखने की मांग करते हैं। बंगी जंपिग के लिए प्रेशर डालते हैं। एक बार बच्चों को घुमाने गए मां-बाप शाम तक दो-तीन हजार का फटका खाकर लौटते हैं....।“

“सांभा,छोड़ो बच्चों को। बसंती की बहुत याद आ रही है। बसंती नहीं है धन्नो के पास ही ले चलो।”

“अरे सरदार...कौन जमाने में जी रहे हो तुम। धन्नो बसंती की याद में टहल गई थी। और धन्नो की बेटी बन्नो धन्नों की याद में निकल ली। अब, धन्नो नहीं सेट्रो, स्विफ्ट, नैनो, एसएक्स-4,सफारी वगैरह से सड़कें पटी पड़ी हैं”
“अरे, ये कौन से हथियार हैं?”

“ये हथियार नहीं। मोटर कार हैं। तुम्हारे जमाने में तो एम्बेसेडर भी बमुश्किल दिखती थी। अब नये नये ब्रांड की कारें आ गई हैं।”

“सांभा. होली आ रही है। रामगढ़ की होली देखे जमाना हो गया। होली कार में बैठकर देखेंगे। आओ कार खरीदकर लाते हैं।“

“अरे तुम्हारी औकात नहीं है कार खरीदने की।”

“जुबान संभाल सांभा। पता नहीं है सरकार कित्ते का इनाम रखे है हम पर। ”

“भटा इनाम। कोई इनाम नहीं है तुम पर अब। और जो था न पचास हजार का ! उसमें गाड़ी का एक पहिया नहीं आए। सबसे छोटी गाड़ी भी तीन-चार लाख की है। तुम तो साइकिल पर होली देख लो-यही गनीमत है।”

“सांभा,बहुत बदल गया रे रामगढ़। अब कौन सी चक्की का आटा खाते हैं ये रामगढ़ वाले?”

“अरे, काई की चक्की। चक्की बंद हो लीं सारी सालों पहले। अब तो पिज्जा-बर्गर खाते हैं। गरीब टाइप के रामगढ़ वाले कोक के साथ सैंडविच वगैरह खा लेते हैं। इन दिनों गरीबों के लिए कंपनी ने कोक के साथ सैंडविच फ्री की स्कीम निकाली है।

“सांभा, खाने की बात से भूख लग गई। होली पर गुझिया वगैरह तो अब भी बनाते होंगे ये लोग?”

“गब्बर बुढ़िया गए हो तुम। आज के बच्चों को गुझिया का नाम भी पता नहीं। बीकानेरवाला, हल्दीरामवाला,गुप्तावाला वगैरह वगैरह मिठाईवाले धांसू डिब्बों में मिठाई बेचते हैं। बस, वो ही खरीदी जाती हैं। एक-एक डिब्बा सातसौ-आठसौ का आता है। तुमाई औकात मिठाई खाने की भी नहीं है।”

“सांभा, तूने बोहत बरसों तक हमारा नमक खाया है न..? ”

“जी सरदार”

“तो अब गोली खा। गोली खाकर फिर जेल जाऊंगा। वहां अब भी होली पर रंग-गुलाल उड़ता है, दाढ़ी वाले गाल पर ही सही पर बाकी कैदी प्यार से रंग मलते हैं तो दिल खुश हो जाता है। जेल में दुश्मन पुलिसवाले भी गले लगा लेते हैं होली पर। ठंडाई छनती है खूब। और मिठाई मिलती है अलग से। सांभा, रामगढ़ हमारा नहीं रहा। तू जीकर क्या करेगा। ”

धांय............................

Wednesday, February 24, 2010

सचिन के लम्हे को बार बार जीने का मन करता है

एक हाथ में बैट और दूसरे में हेलमेट लिए हवा में हाथ उठाए सचिन तेंदुलकर। इस एक लम्हे को सचिन तेंदुलकर ने बार बार जीया है। लेकिन, ग्वालियर के रुप सिंह स्टेडियम में क्रिकेट के इस भगवान ने क्रिकेट के इतिहास में पहली बार एकदिवसीय मैच में 200 के आंकड़े को छुआ तो वक्त ठहर गया। बाएं हाथ में हेलमेट और दाएं हाथ में बल्ला लिए सचिन रमेश तेंदुलकर ने इस बार दोनों हाथ फैलाकर हवा में उठाए तो उनके खामोश चेहरे का संतोष साफ पढ़ा जा सकता था। 441 एकदिवसीय मैचों और 21 साल लंबे अंतरराष्ट्रीय करियर के बाद आए इस एक पल ने सचिन तेंदुलकर से ज्यादा उनके प्रशंसकों को खुशी से सराबोर कर दिया। सचिन की इस उपलब्धि ने चार दिन पहले ही रंगों के त्योहार के साथ दस्तक दे डाली।

50 वें ओवर की तीसरी गेंद पर सचिन प्वाइंट की तरफ गेंद को कट कर एक रन के लिए दौड़े तो यह महज एक रन नहीं था। ये सचिन की ज़िंदगी की मेहनत को एक नयी उपलब्धि में गढ़ता एक रन था। क्रिकेट के इतिहास में नया मुकाम गढ़ता एक रन था। वनडे क्रिकेट में सचिन को उस शिखर पर बैठाता एक रन था, जिसके करीब तो कई खिलाड़ी पहुंचे लेकिन उस पर काबिज कभी नहीं हो पाए।

22 गज की पिच पर यह एक रन पूरा हुआ ही था कि 50-50 ओवर के खेल की परिभाषा और विस्तार ले गई। आखिर, वनडे में 200 का आंकड़ा कोई कभी नहीं छू पाया !

वैसे, ग्वालियर के मैदान में सचिन ने अपनी इस पारी की झलक पहली गेंद से ही दे दी थी, जब उन्होंने मुकाबले की पहली और दूसरी गेंद को सीमा रेखा के बाहर पहुंचा दिया। इसके बाद तो मैदान के हर हिस्से से उन्होंने रन बटोरे और पहली से आखिरी गेंद तक खेलते हुए वो न केवल नॉट आउट रहे बल्कि क्रिकेट की किताब में एक नया रिकॉर्ड भी दर्ज करा गए। सचिन इससे पहले न्यूजीलैंड के खिलाफ 186 और आस्ट्रेलिया के खिलाफ 175 रन ठोंककर लोगों में इस रिकॉर्ड तक पहुंचने की उम्मीद तो पहले भी जगा चुके थे,लेकिन कामयाबी मिली दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ। सचिन ने 147 गेंदों में तीन छक्कों और 25 चौकों के साथ यह कामयाबी पाई।

सचिन की इस अनूठी उपलब्धि के बीच कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी की आतिशी पारी गुम हो गई,जिसने 35 गेंदों में चार छक्कों और सात चौकों के साथ 68 रन बनाए। लेकिन, इसका ग़म न धोनी को था, और न दर्शकों को। क्योंकि, सचिन का लम्हा सिर्फ सचिन का था, जिसे हर क्रिकेट प्रेमी बार बार जीना चाहता है। सचिन की इस उपलब्धि के क्या मायने हैं, इसे सुनील गावस्कर के एक बयान से समझा जा सकता है। गावस्कर ने सचिन के इस रिकॉर्ड के बाद कहा-मैं इस जीनियस के पैर छूना चाहता हूं....।

Tuesday, February 9, 2010

इंटरनेट को शांति का नोबेल दिलाने की कवायद का मतलब

सूचना तकनीक की दुनिया में क्रांतिकारी बदलाव लाने वाला इंटरनेट 2010 के नोबेल शांति पुरस्कारों के दावेदारों में एक है। इंटरनेट का नाम मशहूर पत्रिका ‘वायर्ड’ के इतावली संस्करण की तरफ से भेजा गया है, जिसे अमेरिकी और ब्रिटिश संस्करणों ने सहमति दी है। लेकिन, क्या इंटरनेट को इस पुरस्कार से नवाजा जाना चाहिए? ये सवाल इसलिए क्योंकि इंटरनेट को यह पुरस्कार दिलाने की मुहिम शुरु हो चुकी है। इस कैंपेन को 2003 की नोबेल विजेता शिरीन इबादी और मशहूर इतावली सर्जन अंबेर्तो वेरोनेसी का समर्थन तो मिला ही है, साथ ही सोनी एरिक्सन से लेकर माइक्रोसॉफ्ट इटली तक दर्जनों कंपनियों का समर्थन भी प्राप्त है।

इंटरनेट को नामांकित करने वाले ‘वायर्ड इटली’ के मेनीफेस्टो के मुताबिक-“डिजीटल संस्कृति ने एक नए समाज की नींव रखी है। और ये समाज संचार के जरिए संवाद,बहस और सहमति को बढ़ावा दे रहा है। लोकतंत्र हमेशा वहीं फलता-फूलता है,जहां खुलापन,स्वीकार्यता,बहस और भागीदारी की गुंजाइश होती है। मेल-मिलाप हमेशा घृणा और झगड़े के ‘एंटीडॉट’ के रुप में काम करता है,लिहाजा इंटरनेट शांति का एक महत्वपूर्ण औजार है और इसीलिए शांति का नोबेल पुरस्कार इंटरनेट को दिया जाना चाहिए।"

निसंदेह इंटरनेट ने दुनिया के सोचने-समझने का ढंग बदला है। इसकी उपयोगिता का फलक बेहद विस्तृत है। दुनियाभर में लोगों के क्षण भर में आपस में जुड़ने से लेकर सूचना और ज्ञान के विशाल खजाने तक एक क्लिक के जरिए पहुंचने जैसे हज़ारों उदाहरण हैं। इरान में राष्ट्रपति चुनावों के दौरान हुई कथित धांधली से लेकर मुंबई में हुए आतंकवादी हमलों और हैती में आए विनाशकारी भूकंप समेत कई मौकों पर लाखों लोगों ने फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉग का इस्तेमाल कर दुनिया तक अपनी बात पहुंचाई। बावजूद इसके क्या इंटरनेट शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए योग्य है?

इंटरनेट का शांति के नोबेल पुरस्कारों के लिए नामांकन एक बहस की मांग करता है। भारत से भी इस बहस का एक सिरा इस मायने में जुड़ता है कि यहां नेट उपयोक्ताओं की संख्या 8 करोड़ पार हो चुकी है। इंटरनेट के सैकड़ों लाभ लेता भारतीय उपयोक्ता भी ‘इंटरनेट फॉर पीस’ कैंपेन का हिस्सा बन सकता है,जिसे अब बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नेतृत्व में परवान चढ़ना है। लेकिन, सवाल सिर्फ इस कैंपेन का हिस्सा बनने का नहीं है। सवाल इंटरनेट के इस लब्धप्रतिष्ठित पुरस्कार के नामांकन के पीछे की कहानी का है।

इंटरनेट की उपयोगिता अगर असीमित है,तो इसके खतरे भी कम नहीं हैं। पोर्नोग्राफी को नेट ने खासा बढ़ावा दिया। निजी सूचनाएं सार्वजनिक होने का बड़ा खतरा मंडरा रहा है। फिर, साइबर आतंकवाद को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है? साल 2007 में अमेरिका के पेंटागन की ई-मेल प्रणाली और वर्ल्ड बैंक की वित्तीय सूचना प्रणाली में साइबर घुसपैठ अगर पूरी तरह सफल रहती तो भयंकर नुकसान हो सकता था। सीईआरटी के मुताबिक साल 2009 में भारत में ही 6000 वेबसाइट्स पर साइबर हमला हुआ। दिलचस्प यह कि अगर इंटरनेट की वजह से शांति को बढ़ावा मिल रहा होता तो गूगल के चीन छोड़ने की धमकी के बाद अमेरिका-चीन आमने-सामने न खड़े होते। चीन समेत कई मुल्कों में सेंसरशिप इस फिलोसफी पर भी बट्टा लगाती है कि इंटरनेट समाज में खुलापन, स्वीकार्यता और बहस की गुंजाइश पैदा करता है।

ऐसा नहीं है कि नोबेल शांति पुरस्कार हमेशा किसी व्यक्ति को ही दिया गया हो। 2007 में अल गोर और इंटरगोवर्नमेंट ऑन क्लामेट चेंज(आईपीसीसी), 2006 में मोहम्मद युनूस और ग्रामीण बैंक, 2001 में संयुक्तर राष्ट्र और कोफी अन्नान और 1999 में डॉक्टर्स विदआउट बॉर्डर्स को दिया जा चुका है। यानी संस्थाओं को उल्लेखनीय कार्य के लिए नोबेल पुरस्कार मिलता रहा है, लेकिन इंटरनेट तो संस्था भी नहीं है। पारिभाषिक शब्दावली में इंटरनेट महज छोटे-छोटे कंप्यूटर नेटवर्क्स को मिलाकर बना एक बड़ा नेटवर्क है। वर्ल्ड वाइड वेब(डब्लूडब्लूडब्लू) भी कई सेवाओं को प्लेटफॉर्म देने वाली एक सर्विस है। इस प्लेटफॉर्म पर ई-मेल,सोशल नेटवर्किंग साइट्स, ई-बैकिंग आदि तमाम सुविधाएं संचालित होती हैं।

इन किंतु-परंतु के बावजूद इंटरनेट शांति के नोबेल पुरस्कारों के मजबूत दावेदारों में उभर सकता है। वजह-इसके पक्ष में होने वाला कैंपेन। नोबेल पुरस्कारों की घोषणा अक्टूबर 2010 में होगी, और वायर्ड पत्रिका की तरफ से सितंबर तक मुहिम चलायी जाएगी। इंटरनेट को नोबेल पुरस्कार मिले अथवा न मिले-वायर्ड पत्रिका के लिए यह दोनों हाथ में लड्डू सरीखा है। वायर्ड पत्रिका का मकसद महज कैंपेन का सफल बनाना है और इसमें वो सफल भी होगी।
दरअसल, दुनिया की मशहूर पत्रिकाओं में शुमार वायर्ड मंदी के दौर में खासी प्रभावित हुई है। पिछले साल इस पत्रिका के विज्ञापन राजस्व में लगातार कमी हुई। पब्लिशर्स इनफोरमेशन ब्यूरो के आंकड़े के मुताबिक 2009 की पहली तिमाही में तो पत्रिका के विज्ञापन राजस्व में 50.4 फीसदी की गिरावट आई। यह हाल पूरे साल रहा। क्रिस एंडरसन के संपादन में निकलने वाली इस पत्रिका को लेकर मशहूर स्तंभकार स्टीफेनी क्लीफोर्ड ने न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा भी- ‘तीन नेशनल मैग्जीन अवॉर्ड जीतने वाली वायर्ड का करिश्मा विज्ञापन जुटाने में नाकाम रहा और 2009 में विज्ञापन राजस्व 50 फीसदी तक गिर गया।‘ मंदी से जूझते हुए पत्रिका ने बड़ी संख्या में अपने कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखाया। इसी वक्त, कंपनी के सामने इटली और ब्रिटेन में पत्रिका शुरु करने का दबाव था,जहां काफी निवेश किया जा चुका था। इस कड़ी में 18 फरवरी 2009 को वायर्ड के इतावली संस्करण की शुरुआत हुई। फिर अप्रैल में ब्रिटिश संस्करण की। वायर्ड पत्रिका इन दोनों देशों में अमेरिकी संस्करण का रुपांतरित संस्करण नहीं निकालना चाहती थी, लिहाजा कंटेंट को पूरी तरह अलग रखा गया। बावजूद इसके, वायर्ड के इतावली और ब्रिटिश संस्करण को कोई करिश्माई कामयाबी नहीं मिली है।

वायर्ड ने इंटरनेट को शांति के नोबल पुरस्कारों के लिए नामांकित कर एक तीर से कई निशाने साधे हैं। दुनियाभर में इस खबर के बाद अचानक सुर्खियों में आई पत्रिका ने खासी पब्लिसिटी बटोरी। इंटरनेट को अवॉर्ड दिलाने की मुहिम अब अगले छह-सात महीनों तक जारी रहेगी। यानी बिक्री में बढ़ोतरी होने की संभावना बढ़ेगी और बड़ी संख्या में लोग पत्रिका के नेट संस्करण तक पहुंचेंगे। वायर्ड उन चुनिंदा पत्रिकाओं में है,जिसका नेट संस्करण खासा कमाऊ रहा है। अमेरिका में वायर्डडॉटकॉम टॉप 200 वेबसाइट्स में एक है। इतावली संस्करण को इस कैंपेन का अगुआ बनाकर पत्रिका ने कई कंपनियों से ‘टाइ-अप’ करने में कामयाबी पाई है,जो उसके लिए विज्ञापनों का बड़ा स्रोत बनेंगे। सिर्फ इटली में ही नहीं, अमेरिका और ब्रिटेन में भी।

जानकारों का मानना है कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को जिस तरह अवॉर्ड कमिटी ने शांति के नोबेल पुरस्कारों के लिए चुना, उसके बाद इंटरनेट का चुनाव नामुमकिन नहीं है। क्योंकि,कमिटी के लिए अब ‘परसेप्शन’ महत्वपूर्ण हो गया है। दिलचस्प है कि जुलाई 2009 में इरान में राष्ट्रपति चुनाव के दौरान माइक्रोब्लॉगिंग साइट ट्विटर के योगदान के बीच अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मार्क पफेल ने ट्विटर के संस्थापकों को नोबेल शांति पुरस्कार देने की मांग की थी। सरकार में बैठे कुछ आला अधिकारियों ने उनकी मांग का समर्थन भी किया था। लेकिन इस बार तो वायर्ड ने बाकायदा रणनीति के तहत कैंपेन शुरु किया है।

दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित नोबेल शांति अवॉर्ड के लिए इंटरनेट के पक्ष में कैंपेन एक व्यवसायिक कवायद है। हालांकि, अवॉर्ड के लिए इंटरनेट की राह आसान नहीं हैं,लेकिन वायर्ड को तो सिर्फ कैंपेन की सफलता से मतलब है। फिर, इंटरनेट पर ही इन दिनों एक चुटकुला चल निकला है, नेट को नोबेल का शांति पुरस्कार मिल भी गया तो लेने आएगा कौन?

Tuesday, February 2, 2010

सोशल मीडिया में नौकरी भी है.....

सोशल मीडिया एक्जीक्यूटिव। सोशल मीडिया रिसर्चर। सोशल मीडिया एनालिस्ट। और सोशल मीडिया स्ट्रेटेजिस्ट। बहुत से लोगों ने शायद कभी इन ‘पॉजिशन’ के बारे में नहीं सुना होगा, लेकिन तमाम कंपनियों में इन दिनों धड़ल्ले से इस तरह के पदों पर नियुक्तियां हो रही हैं। भारत में आठ करोड़ से अधिक इंटरनेट उपयोक्ताओं और फेसबुक, ऑर्कुट, ट्विटर, ब्लॉग, यूट्यूब जैसे सोशल मीडिया के सभी औजारों की बढ़ती लोकप्रियता के बीच कंपनियों को सोशल मीडिया के जानकारों की जरुरत पड़ने लगी है।

सोशल मीडिया पर अपने ब्रांड को मजबूत करने से लेकर, अपनी इमेज सुधारने और नया बाज़ार बनाने के मकसद से कंपनियों को सोशल मीडिया के तमाम पहलुओं की जानकारी रखने वाले लोगों की आवश्यकता हो रही है। इस तरह सोशल मीडिया की समझ रखने वाले लोगों के लिए रोजगार की एक नयी राह खुल चुकी है। दिलचस्प यह कि सोशल मीडिया के क्षेत्र में उन युवाओं के लिए भी खास मौके हैं,जिनके पास किसी कंपनी में काम का कोई अनुभव नहीं है। अनिल धीरुबाई अंबानी ग्रुप ने हाल में मुंबई में ‘ऑनलाइन/सोशल मीडिया मैनेजमेंट’ नाम से भर्ती का विज्ञापन निकाला तो उसमें अनुभव कैटेगरी में लिखा गया-शून्य। चेन्नई के अखबारों या वेबसाइट्स पर सोशल मीडिया इंटर्न से एक्सपर्ट तक के तमाम विज्ञापन दिखायी दे रहे हैं,जहां अभ्यर्थियों से अनुभव नहीं मांगा जा रहा अलबत्ता इस क्षेत्र में समझ की दरकार जरुर है।

इस मामले में न्यूयॉर्क की एक नयी ई-कॉमर्स कंपनी का क्रेगलिस्ट में प्रकाशित विज्ञापन शानदार है। कंपनी ने महज 195 शब्दों के अपने विज्ञापन में अभ्यर्थियों से कहा-‘आप हमें दो ट्वीट ई-मेल कीजिए। पहला अपने अनुभव के बारे में। दूसरा,क्यों आप इस जॉब के लिए उपयुक्त हैं। अगर आपने ट्विटर की शब्द संख्या में अपना जवाब दे दिया तो आप अपना काम कर गए। इसके अलावा हमें अपना ट्विटर एकाउंट मेल कीजिए। बताइए आपके कितने फॉलोअर्स हैं। और कितने लोगों को आप फॉलो करते हैं। ज्यादा फॉलोअर्स बनाने के क्या तरीके हैं। और आपकी वेतन अपेक्षा क्या है।‘ इस विज्ञापन से स्पष्ट है कि सोशल मीडिया की समझ लगातार कंपनियों के लिए कितनी अहम हो रही है।

दरअसल, फेसबुक,आर्कुट,माइस्पेस जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स से लेकर माइक्रोब्लॉगिंग साइट ट्विटर तक सोशल मीडिया पर एक नया संसार बस चुका है, जहां लोग जाति-धर्म और आर्थिक भेदभाव के बिना आपस में जुड़े हैं। इस नए संसार की समझ नयी पीढ़ी के युवाओं को बहुत है, और अगर वो इस क्षेत्र में रोजगार की संभावना को तलाशें तो यह एक करियर विकल्प भी हो सकता है। दूसरे शब्दों में, सोशल मीडिया लफ्फाजी और मनोरंजन से कहीं आगे जिंदगी जीने का जरिया बन सकता है। वैसे, एक दिलचस्प बात यह भी है कि कंपनियां अगर सोशल मीडिया एक्सपर्ट तलाश रही हैं,तो इसी सोशल मीडिया के जरिए अभ्यर्थियों को खारिज भी कर रही हैं। ऑनलाइन जॉब साइट करियरबिल्डर द्वारा 1000 कंपनियों के बीच किए एक सर्वे के मुताबिक 73 फीसदी कंपनियां अभ्यर्थियों के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए सोशल मीडिया खासकर सोशल नेटवर्किंग साइट्स खंगाल रही हैं। रिपोर्ट की मानें तो 42 फीसदी कंपनियों को अभ्यर्थियों के बारे में सोशल मीडिया पर ऐसी जानकारी मिली, जिसके चलते उन्हें जॉब नहीं दी गई। 48 फीसदी कंपनियों ने कहा कि सोशल नेटवर्किंग साइट पर अपनी अकादमिक योग्यता के बारे में झूठ बोलने की वजह से कई कैंडिडेट्स को नौकरी नहीं दी गई। सोशल नेटवर्किंग साइट्स समेत सोशल मीडिया के तमाम माध्यमों पर दी गईं सूचनाएं कंपनियों के लिए अभ्यर्थियों को जानने समझने का जरिया बन रही हैं। इस प्लेटफॉर्म पर कुछ झूठ भविष्य में बड़े मौके की राह का कांटा बन सकते हैं-ये भी युवाओं को समझना होगा।