Thursday, June 7, 2018

नृत्य का मनरेगा

तोंद को परे रख वरमाला के मंच पर कमरतोड़ डांस करने वाले अंकलजी ने जिस तरह राष्ट्र को नृत्यमोह में उलझाया है, उसके बाद उन्हें 'राष्ट्रीय महत्व की संपत्ति' का दर्जा मिल जाना चाहिए। अंकलजी ने मंच पर सुपरहिट डेमो देकर कई भ्रम तोड़े हैं। पहला, शादी में फूफाजी नामक प्राणी सिर्फ मुंह फुलाए बैठा रहता है। फूफा होने के बावजूद अंकलजी ने डिस्को से लेकर ब्रेक डांस तक कई शैलियों में जिस तरह डांस किया-उसने फूफाओं की पुरातन छवि को झटके में तोड़ दिया है। हालांकि, अंकलजी की इस हरकत से रुढ़िवादी फूफा खफा हैं। उन्हें भय है कि अगले सीजन से ही परिवार की शादियों में उनकी इज्जत का सेंसेक्स क्रैश हो जाएगा क्योंकि उनका रौब ही उनकी ताकत था। फूफा समुदाय अगर ऐसे शादी में खुलेआम मंच पर ब्रेक डांस करेगा तो फिर फूफाओं का लोड लेगा कौन? अंकलजी के 'डांस डेमो' ने ये भ्रम भी तोड़ दिया कि नयी पीढ़ी 21 साल पुराने गाने को सुनना-देखना नहीं चाहती। 21 बरस पहले 'आपके आ जाने से' गाते हुए लड़कियों को छेड़ने वाले पुरुषों को तसल्ली है कि जिस गाने को गाते हुए उन्होंने अपना बेशकीमती वक्त बर्बाद किया, वो गाना कम से कम फालतू नहीं था। अंकलजी ने ये भ्रम भी तोड़ दिया कि टीवी चैनल सिर्फ खूबसूरत लड़कियों को दिखाते रहना चाहते हैं, और गंजे-मोटे लोगों का स्कोप बिलकुल खत्म हो गया या सिर्फ गंजेपन और मोटापा कम करने वाली दवाइयों के मॉडल तक सीमित हो गया है। अंकलजी ने साबित किया है कि बंदे में हुनर हो तो कामयाबी और टीवी चैनल दोनों पीछे भागते हैं। आज देश के हजारों लड़के लड़कियां अंकलजी के अंदाज में आपके आ जाने से पर नृत्यरत हो रहा है। अपने वीडियो बनाकर यूट्यूब पर अपलोड कर रहा है। कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर होते हुए नृत्य के जरिए नाम कमाने वाले अंकलजी ने फिर साबित किया है कि पढ़ने-लिखने से ज्यादा कुछ नहीं होता। सिर पर चांद भले निकल आए, तोंद वृत्ताकार होते हुए बंदे को जमीनोनमुखी करने को भले लालयित रहे लेकिन पैशन कभी नहीं छोड़ना चाहिए। वैसे भी बाबा रणछोड़दास ने कहा है कि काबिल बनो बच्चा, कामयाबी झक मारकर पीछे आएगी। बहरहाल, अब सरकार को चाहिए कि वो तत्काल प्रभाव से दूसरी मनरेगा यानी महा नृत्य रोजगार गारंटी स्कीम ल़ॉन्च कर दे। पायलट प्रोजेक्ट के लिए राजनेताओँ को चुना जा सकता है। इससे तीन फायदे होंगे। पहला, देश का नेता फिट रहेगा। दूसरा, संसद में हो हल्ला होने के हालात में इंटरटेनमेंट की गुंजाइश रहेगी। तीसरा, रैलियों में बड़े नेता के भाषण से पहले इन दिनों नृत्यांगनाएं बुलाई जाने लगी हैं तो उन पर बेवजह धन खर्च नहीं होगा। राजनेता खुद भांति भांति के नृत्य दिखाकर दर्शकों को बांधे रखेंगे। पायलट प्रोजेक्ट हिट होने पर बजट में नृत्य रोजगार गारंटी योजना के तहत आम जनता के लिए भी बजट आवंटित किया जा सकता है। हिन्दुस्तानी इस कदर आलसी और मुफ्तखोर हो गए हैं कि जब तक उन्हें किसी काम का पैसा नहीं मिलता-वो करना पसंद नहीं करते। ब्लड प्रेशर की दवाइयों में खर्च कर सकते हैं लेकिन सुबह की सैर नहीं कर सकते। ऐसे में नृत्य रोजगार गारंटी योजना से देश भी फिट होगा। और देश फिट हो न हो, नृत्य मनरेगा के तहत नृत्य करते हुए लोगों के वीडियो खूब यूट्यूब पर अपलोड होंगे। घर बैठे लोगों को एक काम मिल जाएगा। टीवी चैनलों के लिए भी कच्चा माल तैयार होगा। कुल मिलाकर योजना लॉन्च होगी तो विज्ञापन चलेंगे। योजना हिट होगी। फिर सारा देश नाचेगा। सारा देश नाच रहा है। आहा! कितना सुंदर दृश्य है !!!

Thursday, May 10, 2018

आया-आया तूफान

साल 1989 में अमिताभ बच्चन की एक फिल्म आई थी-तूफान। इस फिल्म में एक गाना था-आया आया तूफान, भागा भागा शैतान। फिल्म में अमिताभ 'तूफान' थे। बॉक्स ऑफिस पर दर्शकों की उपेक्षा की आँधी ने इस 'तूफान' को ऐसा उड़ाया कि निर्माता मनमोहन देसाई की जिंदगी में भूचाल आ गया। लेकिन इस दिनों असल तूफान का बड़ा हल्ला रहा। कई राज्यों में छोटा-बड़ा तूफान आया। पेड़ गिरे, ओले पड़े। गाने के हिसाब से चलें तो शैतानों का नामों निशान मिट जाना चाहिए लेकिन ऐसा होगा नहीं। शैतान अब बहुत शातिर हो गए हैं। पांच बरस गायब रहते हैं लेकिन ऐन चुनाव के वक्त रुप बदल बदलकर जनता के सामने आ खड़े होते हैं। मासूम-भोली सूरत लिए। इन चुनावी 'शैतानों' के पास भेष बदलने का अद्भुत हुनर होता है। इनके पैर दिखते सीधे हैं, लेकिन होते उल्टे हैं। चुनाव खत्म होते ही ये ऐसी रहस्यमयी गुफाओं में छिप जाते हैं, जहां सिर्फ ठेकेदार, रिश्वतखोर, बिल्डर वगैरह ही पहुंच पाते हैं। चुनाव के वक्त उल्टे पैर ये फिर समाज में आ पहुंचते हैं। नोट-शराब-वादे-दावे-सपने बांटते हैं। भिखारियों की तरह झोली फैलाते हैं-एक वोट दे दे बाबा। जनता मासूम। वोट दे देती है। शैतान छूमंतर हो जाते हैं। तूफान भी अब छूमंतर हो गया है। तूफान का इस बार बड़ा हल्ला रहा। बहुत डर लगा। टेलीविजन चैनलों ने हल्ले में गुल्ला मिलाकर तूफान को मारक बना दिया। कई बार ऐसा लगा कि तूफान घर में घुसकर मारेगा। असल तूफान अपनी जगह है लेकिन सच यह है कि लोगों के अपने अपने तूफान हैं। नौजवान लड़कों की जिंदगी में तूफान तब आता है, जब गर्लफ्रेंड झटके में कट लेती है और ब्रेकअप से पहले ऐसा कोई संकेत नहीं देती। वरना लड़के कम शातिर नहीं, वो विकेट गिरने से पहले नयी क्रीज पर बैटिंग की तैयारियां शुरु कर दें। युवा लड़कियों की जिंदगी में तूफान तब आता है, जब फेसबुक पर उनकी खास सहेली की तस्वीर को रोजाना उनका ही बॉयफ्रेंड लाइक करना शुरु कर देता है। शादी शुदा मर्दों की जिंदगी तूफानों से भरी होती है। मसलन दावों के विपरित जब पत्नी को पति के सही वेतन का पता लगता है तो तूफान आता है। एक महीने का वादा कर घर आई सास जाने का नाम न ले तो तूफान आता है। व्हाट्सएप पर एक ही दिन में पति की महिला मित्र के गुडमॉर्निंग और गुडनाइट मैसेज पर नजर पड़ जाए तो तूफान आता है। शादी शुदा मर्दों की जिंदगी में तूफान कब कैसे किस बात पर और कितने वेग का आएगा-इसकी भविष्यवाणी दुनिया का कोई मौसम विभाग आज तक नहीं कर पाया। ऐसा नहीं है कि शादीशुदा महिलाओं की जिंदगी में भी तूफान नहीं आते लेकिन ये प्राय: मर्दों की तुलना में कम होते हैं। राजनेताओं को घरेलू मोर्चों पर छोड़ दें तो ईश्वर प्रदत्त वरदान है कि वो सिर्फ तूफान लाने के लिए बने हैं, झेलने के लिए नहीं। अलबत्ता उनकी जिंदगी में भी दो बार तूफान आता है। एक, जब आलाकमान बेरहमी से टिकट काट देता है। दूसरा, चुनाव में हारने की घोषणा के साथ ही घर में लगने वाली कार्यकर्ताओं की भीड़ कट लेती है। अंग्रेजी साहित्यकार की जिंदगी में तूफान तब आता है-जब रॉयल्टी का चेक बाउंस हो जाए। और हिन्दी साहित्यकार को चेक मिल जाए तो इसी खुशी में वो तूफान सिर पर उठा लेता है। टीवी चैनलों के दफ्तर में जब टीआरपी नहीं आती तो तूफान आता है। दुनिया में कहीं तूफान आए, अगर चैनलों को टीआरपी मिल रही है तो उनके दफ्तर तक तूफान का असर नहीं होता। लेकिन टीआरपी नहीं आए तो दुनिया में भले परम शांति हो-दफ्तर में तूफान मचा रहता है। ऐसे में मनोरंजक चैनल पुनर्जन्म की किसी कहानी को नए कलेवर में ले आते हैं तो न्यूज चैनल किसी हनीप्रीत को खोज लाते हैं। कुछ नहीं मिलता तो भानगढ़ के किले पर दांव लगाते हैं। दरअसल, भांति भांति के तूफान हैं, और सबके अपने तूफान हैं। बॉक्स ऑफिस पर हर शुक्रवार को तूफान आता है, जिसमें दो चार फिल्में टीन टप्पर के साथ उड़ जाती हैं। उनका नामलेवा नहीं बचता। किसान की जिंदगी में तूफान तब आता है-जब कर्ज लेकर बोई फसल बेमौसम बारिश या ओले से खराब हो जाती है। किसानों के परिवार में तूफान तब आता है, जब महज 40-50 रुपए कर्ज न चुका पाने की मजबूरी में किसान खुदकुशी कर लेता है। दरअसल, तूफान भौतिक कम मानसिक ज्यादा होता है और मुद्दा मानसिक तूफान को ही काबू में करने का है। वरना सच यही है कि आम गरीब की जिंदगी में जितने तूफान एक साथ आते हैं-उसका एक फीसदी भी मध्यवर्ग की जिंदगी में आ जाता है तो लोगों को मौत के अलावा कोई चारा नहीं दिखता। गरीब तूफान झेलने का अभ्यस्त होता है। वो तूफानों से घबराता नहीं उसका सामना करता है। तूफानों को झेलने के उसके जज्बे को सलाम !!

Saturday, September 16, 2017

नेतागीरी का कोर्स

काश ! मैं राजनेता होता। राजनेता होता तो 50-100 एकड़ जमीन, 10-15 फ्लैट, दो-तीन एजेंसी और 100-200 करोड़ के बैंक बैलेंस के साथ मोटा आसामी होता। इलाके में जलवा होता। जलवे के बीच जब कभी इलाके में बलवा होता तो मेरी ही बाइट टेलीविजन चैनलों पर चलती। मेरी एक सिफारिश पर स्कूल में एडमिशन होते, बाबुओं के ट्रांसफर होते। मैं राजनेता होता तो मेरा बेटा ऑटोमेटिकली राजनेता होता। फिर उसके पास भी 100-200 एकड़ जमीन, 40-50 फ्लैट, 10-15 एजेंसी, स्विस बैंक में एकाउंट और 500-1000 करोड़ का माल होता। काश ! ऐसा होता। लेकिन ऐसा नहीं हो पाया तो इसकी दो बड़ी वजह रहीं। पहली, हमारे पिताजी राजनीति से दूर रहे। इस तरह उन्होंने एक भावी नेता के मन में राजनेता बनने की ललक का पैदा होने से पहले ही दम घोंट दिया। दूसरी, हमारे जमाने में राजनीति सिखाने का कोई कोर्स कहीं नहीं था। राजनीतिक दुनिया से पहला वास्ता पड़ते ही अपन कंफ्यूज हो गए। यहां अंगूठा छाप मुख्यमंत्री था तो विदेश से पढ़कर आया मुख्यमंत्री भी। यहां घोटाले का आरोप लिए बंदा भी केंद्रीय मंत्रिमंडल में था और ईमानदारी का सर्टिफिकेट बांटने वाला भी। राजनीति में एंट्री कैसे ली जाए इसका कोई अता-पता नहीं था। कुल मिलाकर मेरा राजनेता बनने का सुनहरा ख्वाब उसी तरह टूट गया, जिस तरह टार्जन जैसी सुपरहिट फिल्म देने के बाद भी हेमंत बिरजे का बॉलीवुड का किंग बनने का ख्वाब टूट गया था। लेकिन जब से मैंने यह खबर पढ़ी है कि मुंबई में नेतागीरी सिखाने का कोर्स शुरु हो गया है, तब से मन प्रफुल्लित है। कोर्स की फीस सिर्फ ढाई लाख रुपए है। इत्ता वक्त तो बच्चे आजकल उन काउंसलिंग में खर्च कर देते हैं, जिसमें ये बताया जाता है कि भाई तू है किस लायक और कौन सा कोर्स करना चाहिए? ऐसा लग रहा है कि बेटे को नेतागीरी का कोर्स कराकर गंगा नहायी जाए। बेटा राजनेता हो गया तो बुढ़ापे का रोग आलीशन बंगले के लॉन मे बैठकर मजे-मजे में कट जाएगा। दो चार ट्रांसफर-पोस्टिंग कराके थोड़ी परोपकारिता भी हो जाएगी। मेरे भोले पिताजी तो राजनीति को मैली गंगा मानते रहे लेकिन अपने को मालूम है कि इस मैली गंगा में डुबकी लगते ही घर के नल से अंगूर की बेटी बहने लगेगी। इस देश में सिर्फ तीन लोगों का जलवा है। एक, फिल्मी सितारे। दूसरा क्रिकेटर। तीसरा राजनेता। बेटे की शक्ल मुझ पर गई है तो कोई प्रोड्यूसर उसे लेकर फिल्म बनाएगा नहीं। फिल्म बनाने के लिए कम से कम दस करोड़ चाहिए, जो मेरे पास हैं नहीं तो बेटा हीरो बन नहीं सकता। क्रिकेटर बनने की संभावना उसी दिन खत्म हो गई थी, जब कोच ने कीपिंग करने के दौरान उसे सोते हुए पकड़ लिया था। राजनेता बनने की संभावना भी नहीं के बराबर थी लेकिन अब अचानक उम्मीद जग गई है कि बेटा राजनेता बनकर रहेगा। मैंने बेटे को समझाया, मनाया और नेतागीरी के कोर्स के लिए राजी कर लिया। सब कुछ तय हो गया। ढाई लाख रुपए का ड्राफ्ट तैयार हो गया कि अचानक बेटे ने कहा- “पापा, आपने कोर्स का सिलेबस देखा? कितना शानदार है। कितना कुछ है पढ़ने को।” मैंने भी जिज्ञासावश सिलेबस हाथ में ले लिया। पूरा सिलेबस ऊपर से नीचे तक झटके में पढ़ डाला। फिर धीरे धीरे पूरे सिलेबस पर नजरें गढ़ायीं। लेकिन ये क्या !! सिलेबस पढ़ते ही मुझे चक्कर आने लगे। ये कौन सी नेतागीरी सिखाने वाला कोर्स है ? सिलेबस में न तो आलाकमान तक पहुंचने के बाबत कोई पाठ है, न आलाकमान से टिकट झटकने के बाबत। बसें फूंकने, ट्रेन रोकने, हंगामा करने, तोड़फोड़ करने जैसे प्रैक्टिकल का कोई जिक्र नहीं। ईवीएम से कैसे छेड़छाड़ की जाए और कैसे ईवीएम के वोट इधर से उधर हो-इस अहम मुद्दे पर किसी लैक्चर तक की बात नहीं। घोटाले-घपले कैसे किए जाएं। घपले में पकड़े जाने पर सीबीआई जांच से कैसे बचा जाए। बंगला खाली करने के पचास नोटिस के बावजूद बंगलापकड़ रवैया बनाया रखा जाए। पार्टी के भीतर विरोधियों को कैसे ठिकाने लगाया जाए। बिन बात के भी विरोधियों से कैसे इस्तीफा मांगा जाए और अपनी कितनी भी बड़ी गलती होने पर कोई माई का लाल इस्तीफा न लेने पाए जैसे अहम विषयों पर विजिटिंग फैकल्टी तक की व्यवस्था नहीं। तो फिर किस बात का नेतागीरी का कोर्स? किस बात के ढाई लाख रुपए ? स्वतंत्रता आंदोलन, गांधी-नेहरु-लोहिया-जेपी के विचार, अलग-अलग सरकारों की विदेश नीति, गवर्नेंस के मॉडल वगैरह सिखाने से क्या हो जाएगा जी ? मुद्दा तो असल नेतागीरी सिखाने का है, और वो कोर्स में सिखाई ही नहीं जा रही। यह तो एक तरह की ठगी है। मैंने ढाई लाख रुपए का ड्रॉफ्ट जेब में रखकर एक लंबी गहरी सांस ली। पिछले जन्मों के पुण्यों से बंदे को राजनीति में दलाली का मौका मिलता है। मैं समझ चुका था कि राजनीति के धंधे से कमाई लायक पुण्य मैंने नहीं किए हैं। मैंने बेटे की तरफ देखा और कहा- “बेटा तुम नेता बनने लायक नहीं हो। तुम बैंक के इम्तिहान की तैयारी करो।“

Friday, July 7, 2017

सिक्किम को नजरअंदाज करना ठीक नहीं !

भारत को परेशान करने के लिए चीन अब 'सिक्किम कार्ड' खेल सकता है। चीन के सरकारी मीडिया ने गुरुवार का इसका जिक्र कर दिया। ग्लोबल टाइम्स ने लिखा- "हमें सिक्किम की आजादी का समर्थन करना चाहिए। हमें इस मसले पर अपना स्टैंड बदलना चाहिए। हालांकि, 2003 में चीन ने सिक्किम पर भारत के कब्जे को मान लिया था, लेकिन वो अपने स्टैंड को फिर से बदल सकता है। सिक्किम में अभी भी ऐसे लोग हैं, जो उसके स्वतंत्र देश के इतिहास को याद करते हैं।" जाहिर है चीन सिक्किम में राख में छिपी चिंगारी को हवा देकर माहौल बिगाड़ना चाहता है। लेकिन सवाल चीन का नहीं भारत का है, क्योंकि भारत के लिए सिक्किम का सामरिक महत्व है, और हम भी ये भी नहीं भूल सकते कि भारत ने सिक्किम को कैसे हासिल किया। आजादी के वक्त तो सिक्किम ने भारत में विलय के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था। उस वक्त तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने सिक्किम को संरक्षित राज्य का दर्जा प्रदान किया। इसके बाद 1955 में एक राज्य परिषद की स्थापना की गई, जिसके आधीन चोग्याल को एक संवैधानिक सरकार बनाने की अनुमति दी गई अलबत्ता विदेश मामले, रक्षा, कूटनीति और संचार दिल्ली के हाथ में रहे। 1970 के शुरुआती सालों तक चोग्याल का शासन कायदे से चलता रहा लेकिन धीरे धीरे उनका कामकाज का तरीका लोगों को नापंसद आने लगा। चोग्याल की बढ़ती अलोकप्रियता के बीच 1973 में राजभवन के सामने दंगे हुए और सिक्किम ने भारत सरकार से संरक्षण के लिए औपचारिक गुजारिश की। इसके बाद भारत सरकार को समझ आने लगा कि चोग्याल का शासन बहुत लंबा चलेगा नहीं। लेकिन, सिक्किम को भारत में शामिल होने की असल पटकथा अप्रैल 1975 में लिखी गई, जब छह अप्रैल 1975 को इंदिरा गांधी ने दांव चला। चोग्याल के राजमहल को भारतीय सेना ने घेर लिया। पांच हजार से ज्यादा भारतीय सैनिकों को मुट्ठीभर गार्डों को काबू करने में आधा घंटा भी नहीं लगा। उस दिन दोपहर पौने एक बजे तक सिक्किम का आजाद देश का दर्जा खत्म हो गया। दिल्ली के नगरपालिका आयुक्त बीएस दास को 8 अप्रैल 1975 को सिक्किम सरकार की जिम्मेदारी लेने के लिए गंगटोक भेजा गया। राजमहल को अपने कब्जे में लेने के बाद भी सिक्किम का पूर्ण विलय आसान नहीं था। 1962 के युद्ध में जीत के बाद चीन की ताकत भारत देख चुका था, और चीन सिक्किम के भारत में विलय का विरोध कर रहा था। लेकिन इंदिरा गांधी ने चीन को तिब्बत पर हमले की याद दिलाकर उस विरोध को खारिज कर दिया। सच कहा जाए तो 1962 के युद्ध में हार के बाद ही भारत को सिक्किम की अहमियत समझ आई। सामरिक विशेषज्ञों ने महसूस किया कि चीन की चुंबी घाटी के पास भारत की सिर्फ़ 21 मील की गर्दन है, जिसे ‘सिलीगुड़ी नेक’ कहते हैं। चीन चाहे तो एक झटके में उस गर्दन को अलग कर उत्तरी भारत में घुस सकते है। चुंबी घाटी के साथ ही लगा है सिक्किम। वैसे, सिक्किम को लेकर भारत की रणनीति में बदलाव चोग्याल के अमेरिकी लड़की होप कुक से शादी के बाद भी बदली। चोग्याल के साथ होप कुक भी प्रशासनिक कामों में दखलंदाजी करने लगी थी और चोग्याल को लगता था कि अगर वो सिक्किम को आजाद कराने की मांग करेंगे तो अमेरिका उसका समर्थन करेगा। उन दिनों भारत के अमेरिका से मधुर संबंध नहीं थे। और संबंधों की लय कितनी बिगड़ी हुई थी, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1971 के युद्ध में अमेरिका ने भारत के खिलाफ अपना सातवां बेड़ा तक भेज दिया था। चीन के साथ नेपाल भी सिक्कम के भारत में विलय के विरोध में था लेकिन सारे विरोध मिलकर कोई ऐसे हालात बना पाते कि विलय का खेल मुश्किल में पड़ जाता-उससे पहले ही चोग्याल ने 8 मई के समझौते पर अपने हस्ताक्षर कर दिए। रॉ ने इसमें अहम भूमिका निभाई। दो दिनों के भीतर पूरा सिक्किम राज्य भारत के नियंत्रण में था। सिक्किम को भारतीय गणराज्य मे सम्मिलित करने का सवाल जनमतसंग्रह के जरिए जनता के सामने रखा गया, जिसके पक्ष में सिक्किम के 97.5 फीसदी लोगों ने वोट किया यानी सिक्किम के लोग चाहते थे कि वो भारत के संग आएं। इसके बाद 16 मई 1975 में सिक्किम औपचारिक रूप से भारतीय गणराज्य का 22वां प्रदेश बना और सिक्किम में चोग्याल के शासन का अंत हुआ। सिक्किम ने भारत के नियंत्रण में आने के बाद खासा विकास भी किया, और विकास ही सिक्किम की सरकारों की प्राथमिकता में रहा। आलम ये कि साल 2007-2012 के दौरान सिक्किम की विकास दर 22 फीसदी के करीब रही थी, जबकि इसी अवधि में भारत की औसतन ग्रोथ 8 फीसदी रही। सिक्किम में पिछले 8 साल में गरीबी 20 फीसदी कम होकर 8 फीसदी पर आ गई है और राज्य के मुख्यमंत्री का दावा है कि एक-दो साल में ही सिक्किम गरीबी मुक्त हो जाएगा। इतना ही नहीं, दो साल पहले ही सिक्किम देश का ऐसा पहला राज्य बन गया था, जहां सभी घरों में शौचालय है। पिछले दो दशक से ज्यादा वक्त से पवन चामलिंग सिक्किम के मुख्यमंत्री हैं, लेकिन अब उन्हें लगता है कि सिक्किम चीन और पश्चिम बंगाल के बीच पिस रहा है। एक दिन पहले ही उन्होंने बिगड़े हालात के बीच बयान दिया कि "सिक्किम के लोग चीन और बंगाल के बीच सैंडविच बनने के लिए भारत के साथ नहीं जुड़े थे" चामलिंग का अनुमान है कि पश्चिम बंगाल से सिक्किम तक पहुंचने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग 31 को जिस तरह गोरखालैंड आंदोलन की वजह से बीते 30 साल में बंद किया गया, उससे कई बार सिक्किम की व्यवस्थाएं चौपट हुई। और इन 30 साल में सिक्किम को 60 हजार करोड़ से ज्यादा का नुकसान हुआ। अब तो सिक्किम दो तरफ से पीस रहा है। चीन सीधे सीमा पर खड़ा है तो गोरखालैंड आंदोलन जोर पकड़ रहा है। जाहिर है सिक्किम के लोग परेशान हैं, और उनकी परेशानी को हल करना भारत सरकार की जिम्मेदारी है। क्योंकि चीन ने जिस तरह सिक्किम कार्ड खेलने की धमकी दी है, और यदि वैसा ही किया गया तो कोई बड़ी बात नहीं कि परेशान सिक्किम में एक गुट अलग सिक्किम देश के लिए आंदोलन शुरु कर दे। चीन उसे हवा देगा ही और भारत सरकार की मुश्किलें तब और बढ़ेंगी। ऐसे में जरुरी है कि सिक्किम को किसी कीमत पर नजरअंदाज नहीं किया जाए।

Monday, June 26, 2017

कहां है अंतरआत्मा की आवाज़ ? (व्यंग्य)

मीरा कुमार जी बड़ी भोली हैं। मासूम हैं। उनकी अपील है कि राष्ट्रपति पद के चुनाव में निर्वाचक मंडल अपनी अंतरआत्मा की आवाज़ पर वोट करें। इस अपील को सुनकर कुछ युवा नेता चाहते हैं कि वो अपनी अंतरआत्मा की आवाज़ पर वोट करें। लेकिन उनकी परेशानी यह है कि उन्हें नहीं मालूम कि यह आवाज़ कैसी होती है? उन्होंने सुना ज़रुर है कि गुज़रे ज़माने में राजनेता राजनीति से ऊपर उठकर अंतरआत्मा की आवाज़ सुना करते थे। लेकिन कैसे-ये कोई बताने वाला नहीं है। संसद-विधानसभा-पंचायतों वगैरह में इस तरह का कोई कोर्स भी कभी नहीं कराया गया, जिसमें यह बताया गया हो कि अंतरआत्मा की आवाज़ सुनने के क्या तरीके हैं। अंतरआत्मा अपनी आवाज़ किसी स्पीकर में भी नहीं कहती, जिससे उसे आसानी से सुना जा सके। बाहर की दुनिया में इतना कोलाहल है कि असल में बोली हुई बात तो कई बार सुनना मुश्किल होता है। अंतरआत्मा की आवाज़ कहां सुनी जाएगी? फिर, संसद-विधानसभा में रहकर नेताओं के कान भी धीमी आवाज़ को सुन नहीं पाते। संसद-विधानसभा वगैरह में पहले ही इतना हल्ला होता है कि कई बार सांसद-विधायक अपनी बात समझाने के लिए इशारों का इस्तेमाल करते हैं। और कई नेता तो हल्ला में गुल्ला मिलाकर ऐसा मारक किस्म का हल्ला-गुल्ला करते हैं कि कान फट जाते हैं। ऐसे नेता अंतरआत्मा की आवाज़ कैसे सुनें ? कुछ नेताओं को कभी-कभार अंतरआत्मा की हल्की फुल्की आवाज़ सुनाई दे भी जाती है तो वो उसे नजरअंदाज करने में ही भलाई समझते हैं। वो जानते हैं कि अंतरआत्मा की आवाज़ सुनने से ज्यादा जरुरी है आलाकमान की आवाज़ सुनना। वो ही टिकट देगा। वो ही मंत्रीपद देगा। टिकट नहीं मिला तो पूरी राजनीति धरी की धरी रह जाएगी और पार्टी के सत्ता में आने के बाद मलाईदार पद नहीं मिला तो राजनेता होने का फायदा ही क्या। आत्मा का क्या है। वो अजर-अमर है। आत्मा को न तो आग जला सकती है, न शस्त्र काट सकता है। तो आत्मा तो रहनी ही है। आत्मा रहेगी तो उसकी आवाज़ भी रहेगी। इस जन्म में न सुन पाएंगे तो अगले जन्म में सुन लेंगे। ऐसा नहीं है कि नेताओं को कभी भी अंतरआत्मा की आवाज़ सुनाई नहीं देती। जब कभी राजनेताओं के वेतन-भत्ते की बढ़ोतरी का प्रस्ताव पेश किया जाता है तो सभी राजनेता अपनी अंतरआत्मा की आवाज़ पर उसे बढ़ाने के पक्ष में वोट देते हैं। फिर-प्रस्ताव भले सबसे बड़ी दुश्मन पार्टी ने रखा हो। वैसे, सच ये भी है कि इन दिनों राजनेताओं को क्या किसी को भी अंतरआत्मा की आवाज़ सुनाई नहीं देती। बलात्कार की घटनाओं से पटे पेज को देखकर कभी हमारी अंतरआत्मा नहीं कहती कि इस मुद्दे पर आंदोलन हो। भ्रष्टाचारी राजनेताओं को जीभर कर कोसने वाले हम लोग लाइसेंस बनवाने के लिए आज भी रिश्वत देने से नहीं हिचकते और उस वक्त हमारी अंतरआत्मा नहीं कहती कि यह गलत है। दरअसल, ऐसा लगता है कि बीते कई साल से अंतरआत्मा की आवाज़ ही छुट्टी पर चली गई है। उसकी ईद सिर्फ आज नहीं है !

Tuesday, June 13, 2017

शर्म मगर किसी को नहीं आती...

पटना के इंदिरा गांधी इस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज का एक ख़त संस्थान के बाहर न आया होता तो कभी पता ही नहीं चलता कि स्वास्थ्य मंत्री तेज प्रताप यादव ने तीन सरकारी डॉक्टरों और दो नर्स की ड्यूटी अपनी मां यानी राबड़ी देवी के घर लगा दी,जहां पिता लालू यादव भी रहते हैं। पांचों सदस्य तन-मन से लालू की सेवा करते रहे क्योंकि स्वास्थ्य मंत्री और संस्थान के चेयरमैन का यही आदेश था। लालू यादव चाहते तो अस्पताल में भर्ती हो सकते थे लेकिन नहीं। जब बेटा स्वास्थ्य मंत्री हो डॉक्टर क्या अस्पताल भी घर आ सकता था। यानी ये तो लालू यादव की नेकनीयत रही कि उन्होंने पूरे अस्पातल को घर पर खड़ा नहीं किया वरना मुमकिन ये भी था। IGIMS के मेडिकल सुपरिटेंडेंट पी के सिन्हा से जब इस बारे में पूछा गया तो वो तकनीकी पेंच की आड़ लेकर बचने लगे। उन्होंने बताया कि डॉक्टरों को लालू की सेवा में नहीं भेजा था बल्कि स्वास्थ्य मंत्री और अपने संस्थान के चेयरमैन तेज प्रताप यादव के घर भेजा था और चेयरमैन को तो वो ना कह ही नहीं सकते। ख़त लीक हुआ तो हंगामा मच गया। विपक्ष इस मुद्दे पर अब लालू को घेर रहा है। लेकिन सच यही है कि सत्ता की ठसक होती ही कुछ ऐसी है,जिसमें नियम कायदे कुछ मायने नहीं रखते। वरना, जिस राज्य में मेडिकल सेवाएं देश में सबसे बद्तर राज्यों में हो, उस राज्य के स्वास्थ्य मंत्री को नींद नहीं आनी चाहिए। तो आइए पहले बिहार में स्वास्थ्य सेवाओं का हाल ही समझ लें। डॉक्टर-मरीज अनुपात के मामले में देश के सबसे खराब राज्यों में बिहार एक है। यहां 28,391 मरीजों पर एक डॉक्टर है,जबकि 8800 लोगों पर एक डॉक्टर है। बिहार की सिर्फ 6 फीसदी आबादी स्वास्थ्य बीमा में कवर है,जबकि भारत में यह आंकड़ा 15 फीसदी है। सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं चरमराई हुई हैं, और 80 फीसदी से ज्यादा आबादी निजी इलाज के लिए मजबूर है। स्वास्थ्य मंत्रालय की एनएचआरएम पर 2015 की रिपोर्ट कहती है कि बिहार में देश में सबसे ज्यादा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र की कमी है स्वास्थय मंत्रालय की रिपोर्ट कहती है कि बिहार में कम से कम 3000 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र होने चाहिए, जो 2015 में महज 1883 थे। बिहार का स्वास्थ्य बजट 2017-18 में 7002 करोड़ था,जो पिछले वित्त साल से 15.5 फीसदी कम था। यानी बिहार में बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं लोगों को मयस्सर नहीं हैं लेकिन स्वास्थ्य मंत्री को इनकी चिंता नहीं। वैसे, सवाल यह भी है कि आखिर देश के गरीब, हाशिए पर पड़े लोगों के स्वास्थ्य की चिंता की किसने है? क्योंकि ऐसा कोई दिन नहीं जाता, जब गरीब आदमी को स्वास्थ्य सेवाएं मयस्सर न होने की खबर अखबार में न छपती हो। कल का ही उदाहरण लें तो कौशांबी में एक शख्स साइकिल पर भतीजी का शव ले जाते दिखायी दिया क्योंकि एंबुलेंस की व्यवस्था हो नहीं पाई। राजस्थान के बांसवाड़ा में एक नवजात बच्चे को चूहे ने कुतर लिया। बांसवाड़ा के जिला अस्पताल में मंत्री-संत्री सब दौरा कर चुके हैं,लेकिन हालात नहीं सुधरे। राजस्थान के प्रतापगढ़ के जिला चिकित्सालय के मुर्दाघर में एक दंपति को उनके बेटे के शव के साथ रात भर बंद कर दिया गया। ऐसी खबरों की भरमार है, और ये उदाहरण कल के हैं। लेकिन जिन लोगों के कंधों पर इन हालात को सुधारने की जिम्मेदारी है, उनके लिए स्वास्थ्य सेवाओं का सुधार कभी प्राथमिकता में आया ही नहीं। क्योंकि देश में स्वास्थ्य सेवाओं का सच यह है कि देश में 27 फीसदी मौतें सिर्फ इसलिए हो जाती हैं क्योंकि लोगों को वक्त पर मेडिकल सुविधा नहीं मिलती। भारत स्वास्थ्य पर अपनी जीडीपी का सिर्फ 1.4 फीसदी खर्च करता है। अमेरिका जीडीपी का 8.3 फीसदी स्वास्थ्य पर तो चीन 3.1 फीसदी खर्च करता है। दक्षिण अफ्रीका 4.2 फीसदी तो ब्राजील 3.8 फीसदी खर्च करता है। इस आंकड़े को थोड़ा और कायदे से समझने की कोशिश करें तो अमेरिका में प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य पर औसतन 4541 डॉलर, चीन में 407 डॉलर, दक्षिण अफ्रीका में 554 डॉलर खर्च होते हैं लेकिन भारत में एक व्यक्ति पर औसतन सिर्फ 80.3 डॉलर खर्च होते हैं। और सरकारी चिकित्सा सेवा इस कदर दम तोड़ चुकी है कि जिसकी जेब में पैसा है, वो सरकारी अस्पताल की तरफ देखना ही नहीं चाहता। और यही वजह है कि निजी क्षेत्र स्वास्थ्य को धंधा मानकर उसमें निवेश कर रहा है। दुनिया में स्वास्थ्य सेवाओं में निजी क्षेत्र की भागीदारी औसतन 40 फीसदी होती है,लेकिन भारत में निजी क्षेत्र हेल्थ सर्विस में 70 फीसदी खर्च करता है। अमेरिका तक में निजी क्षेत्र की भागीदारी सिर्फ 51 फीसदी है। वैसे, एक सच ये भी है कि देश की खराब मेडिकल सुविधाओं पर कभी कोई आंदोलन नहीं होता। कोई धरना-प्रदर्शन नहीं होता। क्योंकि शर्म किसी को नहीं आती।

Friday, February 12, 2016

थम गई 'नेट न्यूट्रिलिटी' पर बहस?

भारत में इंटरनेट तटस्थता यानी ‘नेट न्यूट्रिलिटी' के मुद्दे पर मचा घमासान फिलहाल थम गया है क्योंकि टेलीकॉम रेगुलेटरी ऑफ इंडिया यानी ट्राई ने नेट न्यूट्रिलिटी के पक्ष में अपना फैसला सुना दिया है। ट्राई ने नेट न्यूट्रैलिटी का समर्थन करते हुए कहा कि इंटरनेट कंपनियों को अलग-अलग दामों पर सेवाएं मुहैया कराने की इजाज़त नहीं होगी। कुछ कंपनियां इंटरनेट की अलग अलग सेवाओं के लिए अलग अलग दाम रखने पर अड़ी हुई थीं, लेकिन ट्राई ने अपने फैसले में कहा कि इंटरनेट सेवा प्रदाताओं को काम के हिसाब से अपना शुल्क बदलने का अधिकार नहीं होगा। सिद्धांत में ‘नेट न्यूट्रिलिटी' का मतलब है कि इंटरनेट सेवा प्रदान करने वाली कंपनियां इंटरनेट पर हर तरह के डाटा पैकेट को एक जैसा दर्जा देंगी। इंटरनेट सेवा देने वाली इन कंपनियों में टेलीकॉम ऑपरेटर्स भी शामिल हैं। नेट न्यूट्रिलिटी में विश्वास करने वाले मानते हैं नेट पर बहने वाला हर डाटा समान है-चाहे वो वीडियो हो, आवाज़ हो या सिर्फ पाठ्य सामग्री और कंटेंट, साइट या यूजर्स के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। भारत में अभी तक नेट न्यूट्रिलिटी ही है क्योंकि एक बार किसी कंपनी से इंटरनेट सेवा लेने के बाद उस बैंडविथ का इस्तेमाल ग्राहक अपनी सुविधा के अनुसार करता है। यानी ग्राहक चाहे तो यूट्यूब पर वीडियो देखे, स्काइप पर लोगों से बात करे, गूगल सर्च करे या मोबाइल पर व्हाट्सएप के जरिए संदेश भेजे, कंपनी को इससे लेना देना नहीं होता। इसे और सरल भाषा में समझें तो कह सकते हैं कि लोग घरों में बिजली के इस्‍तेमाल के लिए बिल देते हैं। मगर, कंपनियां यह नहीं कहती है कि टीवी चलाने पर बिजली की दर अलग होगी और फ्रिज. कंप्‍यूटर और वाशिंग मशीन चलाने पर अलग। लेकिन, 2014 में जब एयरटेल ने स्काइप और वाइबर जैसे एप्लीकेशन के इस्तेमाल के लिए ग्राहकों से अतिरिक्त शुल्क वसूलने का फैसला किया तो हंगामा मच गया। एयरटेल का तर्क था कि वॉयस कॉलिंग एंड मैसेजिंग एप्स की वजह से सीधे तौर पर उसे नुकसान उठाना पड़ रहा है। यह सच भी था क्योंकि व्हाट्सएप जैसे एप्लीकेशन की लोकप्रियता ने एसएमएस को हाशिए पर डाल दिया है। नेट न्यूट्रिलिटी को लेकर बहस और तेज़ हो गई, जब ट्राई ने 118 पेज का परामर्श पत्र जारी कर दिया, जिसमें नेट नियमन से संबंधित 20 सवालों पर लोगों से राय मांगी गई थी। इनमें एक सवाल नेट न्यूट्रिलिटी से जुड़ा भी था। इस बीच, दुनिया की सबसे बड़ी सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग इंटरनेट को गांव-गांव और हर गरीब तक पहुंचाने का ऐलान करते हुए फ्री बेसिक्स योजना लेकर बाजार में उतर पड़े। फ़ेसबुक ने इंटरनेट डॉट ओआरजी नाम से 2013 में फ्री बेसिक्स परियोजना की शुरुआत की थी। इस योजना को भारत से पहले करीब 36 देशों में लागू किया जा चुका था। फ्री बेसिक्स योजना ग्राहकों को चंद वेबसाइटों तक निःशुल्क पहुंच की सुविधा देती थी। दिसंबर में ट्राई ने नेट न्यूट्रिलिटी के मसले पर एक और परामर्श पत्र जारी किया तो फेसबुक ने "सेव फ्री बेसिक्स " नाम से अभियान छेड़ दिया और इस व्यापक प्रचार अभियान के जरिए लोगों से आग्रह किया कि वे फ्री बेसिक्स के समर्थन में ट्राई को लिखें। ट्राई ने अपने फैसले से फेसबुक के इरादे पर भी पानी फेर दिया है। लेकिन सवाल फेसबुक, एयरटेल या किसी कंपनी का नहीं है। सवाल है देश में इंटरनेट तटस्थता के मुद्दे का, और सच यही है कि ट्राई का यह फैसला कई मायनों में न केवल अहम है बल्कि ऐतिहासिक है। दरअसल, ट्राई ने अपने फैसले से बता दिया है कि नेट तटस्थता के मुद्दे पर देश क्या चाहता है, और एक लिहाज से एक टोन सैट कर दी है कि अब फ्री बेसिक्स या कुछ सेवाओं के लिए अलग शुल्क जैसे मुद्दों पर बार-बार बहस न हो। यह फैसला इसलिए भी बहुत अहम है क्योंकि ट्राई के ऊपर खासा दबाव था। फेसबुक जैसी कंपनी 400 करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च कर प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कैंपेन संचालित कर रही थी, और एक माहौल बनाने की कोशिश थी कि फेसबुक सामाजिक सरोकार के तहत नेट को हर गरीब तक पहुंचाना चाहती है, और नेट तटस्थता का मुद्दा खोखला है। फिर, इस प्रचार अभियान का दूसरा पक्ष यह था कि लोगों में भी यह धारणा बनने लगी थी कि अगर फ्री बेसिक्स के जरिए नेट की कुछ सुविधाएं कुछ लोगों को निशुल्क मिल सकती हैं तो इसका विरोध क्यों हो। खासकर उस स्थिति में, जब इंटरनेट अभी गांव-कस्बों तक नहीं पहुंचा है, और गांव-कस्बों में लोग इंटरनेट पर न तो ज्यादा धन खर्च करने की स्थिति में हैं, और न वे करना चाहते हैं। आम लोगों को यह समझाने वाला कोई नहीं था कि इंटरनेट क्रांति बिना नेट न्यूट्रिलिटी के मुमकिन नहीं है। कल्पना कीजिए ऑर्कुट की लोकप्रियता के दौर में फेसबुक को सेवा प्रदाता धीमी गति से डाउनलोड करवाती तो क्या फेसबुक को लोग पसंद करते? नेट न्यूट्रिलिटी न होने की स्थिति में कंपनियां मुमकिन हैं कि उस कंपनी का साथ दें, जिससे उन्हें मुनाफा हो। अभिव्यक्ति की आज़ादी को भी इसलिए पंख मिले क्योंकि नेट न्यूट्रिलिटी है, और आपके लिखे-कहे को नेट प्रदाता बिना अदालत के आदेश के प्रतिबंधित नहीं कर सकता। मुफ्त के जाल में उलझा नया ग्राहक समझ ही नहीं पाता कि इंटरनेट का आकाश कितना विस्तृत है और फ्री सेवाओं से बाहर एक बड़ी दुनिया है। ट्राई का फैसला उन छोटे नेट कार्यकर्ताओं की भी जीत है,जिन्होंने नेट न्यूट्रिलिटी को बचाने के लिए छोटी-छोटी कोशिशें कीं। ट्राई का फैसला उन देशों के लिए मिसाल है,जहां सामाजिक आर्थिक स्थिति भारत सरीखी है, और जहां इंटरनेट तटस्थता के मुद्दे पर बहस हो रही है या होनी है,क्योंकि भारत में इस मुद्दे पर जिस तरह बहस हुई और जिस तरह इसके तमाम आयामों को समझा-परखा गया-उसके बाद यह साफ हो गया कि इंटरनेट को बचाने के लिए नेट न्यूट्रिलिटी जरुरी है। निश्चित रुप से फेसबुक निराश है, और तमाम दूसरे टेलीकॉम ऑपरेटर भी। उनका तर्क है कि इससे डिजिटल इंडिया कैंपेन को धक्का लगेगा क्योंकि फ्री बेसिक्स या इस तरह की दूसरी सेवाओं के जरिए नेट की पहुंच तेजी से व्यापक होती। यह सच भी है। लेकिन ट्राई ने नेट की आजादी को गिरवी रखने के बजाय व्यापक पहुंच के मुद्दे को त्यागा है तो यह भी एक साहसिक कदम है। वैसे, सच यह भी कि नेट का विस्तार भले थोड़ा थमे लेकिन उन स्टार्टअप कंपनियों को राहत मिलेगी,जो अपने नए रचनात्मक आइडिया के साथ मैदान में उतरने को तैयार हैं। हो सकता है कि किसी स्टार्टअप के पास सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक सरीखा कोई और बेहतर आइडिया हो, जिसे वो अब आसानी से प्रचारित-प्रसारित कर सकते हैं। इंटरनेट की पहुंच की समस्या को सुलटाना सरकार का काम है। यह सरकार को देखना है कि कैसे ब्रॉडबैंड की पहुंच विस्तृत हो और कैसे जल्द से जल्द देश के हर गांव में इंटरनेट पहुंचे। दिलचस्प है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने हमेशा यही कहा कि वो नेट न्यूट्रिलिटी के पक्ष में है, लेकिन मार्क जुकरबर्ग से उनकी दो बड़ी मुलाकातों के बीच विपक्ष ने यही प्रचार किया कि सरकार नेट न्यूट्रिलिटी पर समझौता करना चाहती है। यह भी अजीब संयोग है कि जिस दिन कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने मोदी सरकार पर नेट न्यूट्रिलिटी के मुद्दे को लेकर कई गंभीर आरोप जड़े, उसी दिन ट्राई ने अपना फैसला दे दिया। यानी एक लिहाज से सरकार ने पलटवार कर साफ कर दिया कि देश में नेट न्यूट्रिलिटी है और रहेगी। इसमें कोई दो राय नहीं कि आज़ाद इंटरनेट के बिना इंटरनेट का उद्देश्य ही खत्म हो जाता है,क्योंकि नेट न्यूट्रिलिटी की वजह से ही गरीब-रईस और शहरी-ग्रामीण के बीच कोई अंतर नहीं रह जाता। इसी वजह से तमाम नए प्रयोगों की उर्वर भूमि बनता है इंटरनेट। अमेरिका में हाल में जबरदस्त बहस के बाद तय हुआ कि नेट को जन उपयोगी सेवा का दर्जा दिया जाए और फेडरल कंम्यूनिकेशन कमिशन नेट न्यूट्रिलिटी से संबंधित कड़े नियमों के पक्ष में वोट किया। चिली में 2014 में जीरो स्कीम पर पाबंदी लगा दी गई। यूरोप में कुछ खास सेवाओं के लिए विशेष एक्सेस की सुविधा है, लेकिन अब 2013 के इस प्रस्ताव को सुधारने की दिशा में काम हो रहा है। अब भारत ने बड़ा फैसला किया है तो इसका असर दुनिया के कई दूसरे देशों की नीति पर पड़ना भी तय है। लेकिन देखना यह भी होगा कि क्या फेसबुक और तमाम दूसरी टेलीकॉम कंपनियां ट्राई के फैसले के बाद हार मान लेती हैं या फैसले को ऊपरी अदालत में चुनौती दी जाती है।