Saturday, November 28, 2009

I-Next में आज प्रकाशित व्यंग्य- मुहब्बत के तराने

ज्यादा वक्त नहीं गुजरा जब आशिक बड़ी मुहब्बत से ख़त लिखा करते थे। नया नवेला आशिक प्रेम पत्र को रोमांटिक बनाने के लिए हिन्दी साहित्य में डूब जाया करता था। ग़ालिब से लेकर मीर तक की शायरी के दरिया में तैर जाया करता था। कुछ जुनूनी किस्म के पागल प्रेमी लहू की लाल स्याही से मुहब्बत का पैगाम लिखा करते थे। आशिक के रकीब यानी प्रेमिका के बाकी प्रेमी भी इसी खत नुमा आइटम के जरिए उसे ठिकाने लगाने की कोशिश करते थे। वो आशिक ने नाम से गालियों का ख़त प्रेमिका के घर पर टपका आते। हालांकि, लड़की के घरवाले यह समझ जाते थे कि भद्दा खत उस लड़के ने नहीं लिखा, जिसके नाम से भेजा गया है, लेकिन घरवालों की प्रतिबंधित सूची में आशिक का नाम आना तय हो जाता था। लड़कियां प्रेम पत्र नहीं लिखती थी, इस बात के इतिहास में सबूत नहीं है, अलबत्ता ज्यादातर अपने नाम से नहीं लिखती थी, और बहुत विश्वासपात्र सहेलियां ही उनके खतों की ‘पोस्टमैन’ होती थीं।

लेकिन,बात गुजरे जमाने की नहीं गुजरते जमाने की है। एसएमएस का तूफान कमबख्त मुहब्बत की इस पाती परंपरा को उजाड़ गया। स्कूली एसएमएसी मुहब्बत की गाड़ी कई बार ‘बैलेंस’ के झंझावत में पटरी से उतर जाती है। अनपढ़ से अनपढ़ टपोरी आशिक के पास भी मोबाइल नामक ये यंत्र है, जिससे भेजे एसएमएस से समझ नहीं आता कि किस कैटेगरी का आशिक है। भौंदू-नादान-चिरकुट-रक्तप्रिय...किस टाइप का।

एक ही एसएमएस फॉरवर्ड हो-होकर इतनी बार महबूबा के पास पहुंचता है कि पता नहीं चलता कि एसएमएस में व्यक्त भावनाएं रामू की हैं या शामू की। हालांकि, मोबाइल ने लड़कियों को भी सुविधा दी है कि वो आंखों के तीर से घायल हुए तमाम परिंदों को एसएमएस का चारा डालकर लपेट लें।

लुटे-पिटे आशिकों के शोध बताते हैं कि एक एसएमएस पाकर तर्र हुआ छोरा एक महीने तक मुफ्त का सेवक होता है। दुहने के बाद गाय को पता चलता है कि दूध-मलाई-मक्खन और घी सब कुछ कोई और खा गया है,तो वो उस प्राणप्रिय एसएमएस को ‘डिलीट’ कर नए सिरे से कोशिश में जुटता है।

कन्फ्यूजन के बावजूद एसएमएस पर रोमांस धड़ल्ले से जारी है। सर्वे बता रहे हैं कि दफ्तरों में रोमांस अब मोबाइल के बिना दम तोड़ देंगे। कॉलेजों में भी बिप-बिप की चहचहाहट कइयों की मुहब्बत ज़िंदा रखे है। एसएमएस धर्म-निरपेक्ष भाव से इंस्टेंट प्यार करने वाली बिरादरी की सेवा कर रहे हैं। लेकिन, इस एसएमएसी मुहब्बत के युग में भी कुछ मजनूं अपनी लैला को प्यार की पाती लिखे बिना बाज नहीं आते। उन्हें न जाने क्यों ढाई आखर प्रेम के हाथ से लिखने में ही आनंद आता है। नयी पीढ़ी उन्हें ‘बैकवर्ड’ कहते हुए ताना कसती है-मजनूं है न!

1 comment:

  1. हम तो बैकवर्ड युगीन हैं..:) मस्त!!

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