बीजेपी के दिग्गज नेता डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी को पिछले आम चुनाव में इलाहाबाद से 2,05,625 वोट मिले थे, लेकिन उनके ब्लॉग पर लिखी पिछली सात पोस्ट में उन्हें केवल पांच टिप्पणियां मिली हैं। साइबर कैंपेन के मामले में सभी भारतीय राजनेताओं को पटखनी दे चुके लाल कृष्ण आडवाणी के हिन्दी ब्लॉग का हाल भी खासा बुरा है। उनके हिन्दी ब्लॉग पर छह पोस्ट में 11 मार्च तक केवल 9 कमेंट ही दर्ज हुए। कांग्रेस के नेता संजय निरुपम का ब्लॉग इस मामले में थोड़ा बेहतर है। निरुपम के ब्लॉग पर लिखी पिछली सात पोस्ट पर करीब 40 टिप्पणियां आयी हैं। इन टिप्पणियों के आइने में झांके तो तेज तर्रार नेताओं के ये ब्लॉग फ्लाप साबित होते हैं। सवाल ये है कि क्या वास्तव में लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, संजय निरुपम और इन जैसे नामी नेताओं के ब्लॉग के पाठक नहीं है? क्या इन राजनेताओं की साइबर जगत में उपस्थिति बेमानी है?
सवाल अहम हैं क्योंकि रैलियों में हज़ारों की भीड़ जुटाने वाले राजनेताओं को ब्लॉग पर यदि चार-छह टिप्पणियां भी नसीब नहीं हो रही हैं, तो साइबर कैंपेन का क्या अर्थ है ? हालांकि, ये मानना भी बेहद मुश्किल है कि कद्दावर नेताओं को इंटरनेट पर मुठ्ठी भर लोग भी पढ़ना-देखना नहीं चाहते। दरअसल, इंटरनेट पर इन दिग्गज नेताओं की बेहद सीमित लोकप्रियता का मामला कुछ हद तक अल्प तकनीकी समझ का परिणाम दिखती है। राजनीतिक ज़मीन से वर्चुअल दुनिया में प्रवेश करते ही एक गड़बड़झाला यह होता है कि यहां सिर्फ नाम से काम नहीं चलता। यहां सभी को अपनी उपस्थिति के बारे में प्रचार करना पड़ता है। इस प्रचार के लिए तमाम तकनीकी हथकंड़े अपनाने पड़ते हैं। इनमें दूसरी साइट अथवा ब्लॉग पर लिंक देने से लेकर एग्रीगेटर में ब्लॉग दर्ज कराने और मास ई-मेलिंग तक कई उपाय शामिल हैं।
वैसे भी ब्लॉग या साइट बना लेना मुश्किल काम नहीं है। मुश्किल है उसे प्रचारित करना। हिन्दी में ब्लॉग की शुरुआती लोकप्रियता एग्रीगेटर के जरिए हासिल की जा सकती है। लेकिन, अव्वल तो ज्यादातर राजनेताओं के ब्लॉग अंग्रेजी में हैं। आडवाणी जैसे नेताओं के ब्लॉग हिन्दी में भी हैं,तो वो एग्रीगेटर पर दर्ज नहीं हैं। आडवाणी का हिन्दी ब्लॉग उपेक्षित इतना कि हिन्दी साइट पर दिए ब्लॉग के लिंक पर क्लिक करने पर पहले अंग्रेजी ब्लॉग खुलता है। दूसरी तरफ, इंग्लिश ब्लॉग को भी शुरुआती पहचान दिलाने के लिए ब्लॉग डायरेक्टरी, डिग और स्टंबल अपोन जैसी सेवाओं की मदद ली जा सकती है। लेकिन, तमाम राजनीतिक हस्तियां ऐसा कर रही हैं-ऐसा लगता नहीं है।
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की तर्ज पर इंटरनेट के रथ पर सवार होकर जीत का एक सिरा पकड़ने की कोशिश में जुटे भारतीय पार्टियों और नेताओं को तकनीक के व्यवहारिक इस्तेमाल में काफी कवायद करने की आवश्यकता है। ओबामा ने सोशल नेटवर्किंग साइट्स के जरिए बड़ी तादाद में युवाओं को साथ जोड़ा। अमेरिकी चुनाव से पहले अक्टूबर में उनके फेसबुक समर्थकों की संख्या बीस लाख से ज्यादा थी। भारत में सभी नेताओं के सोशल नेटवर्किंग साइट्स समर्थकों की तादाद मिला भी दें तो भी दस हजार से ज्यादा नहीं होगी। ओबामा की समर्थकों की भारी फौज उनके संवाद स्थापित करने की निजी कोशिशों का परिणाम थीं।
इधर,भारत में साइबर कैंपेन की धुन तो राजनेताओं और पार्टियों पर सवार है,लेकिन तकनीकी त्रुटियों को लेकर वो ज्यादा गंभीर नहीं दिखते। मसलन,कांग्रेस पार्टी की आधिकारिक वेबसाइट का हिन्दी सेक्शन यूनिकोड में नहीं है। यानी हिन्दी साइट खुलते ही फॉन्ट डाउनलोड करने का विकल्प सामने आता है,और बिना फॉन्ट डाउनलोड किए साइट खोलने पर सारा पाठ्य गड़बड़ दिखायी देता है। कांग्रेस ने साइबर कैंपेन के लिए ‘वोटफॉरकांग्रेसडॉटइन’ साइट लांच की है,लेकिन 11 मार्च तक यह साइट एक्टिव नहीं थी। इसी तरह, शाहनवाज हुसैन की साइट पर ब्लॉग का लिंक है,लेकिन एक्टिव नहीं है। सवाल है कि क्या कोई पाठक इतनी जेहमत के बाद साइट देखने की कोशिश करेगा ?
हिन्दी तो शायद राजनेताओं की प्राथमिकता में ही नहीं है। सचिन पायलट,मिलिंद देवड़ा,ज्योतिरादित्य सिंधिया, मुरली मनोहर जोशी,शाहनवाज हुसैन समेत तमाम नेताओं की साइट इंग्लिश में है। समाजवादी पार्टी वेबसाइट के जरिए आम लोगों से जुड़ने की बात अपनी अधिकारिक साइट पर करती है,लेकिन साइट अंग्रेजी में है। देश के नौ करोड़ इंटरनेट उपयोक्ताओं में करीब 40 फीसदी उत्तर भारत में हैं,लेकिन हिन्दी भाषियों तक संदेश पहुंचाना इन राजनेताओं को जरुरी नहीं दिखता। अगर आपका वोटर हिन्दी प्रदेश का है,और उससे संवाद दूसरी भाषा में हो तो उसका असर कहां होगा ? मुमकिन है ज्यादातर नेताओं ने इंटरनेट पर अपनी उपस्थिति सिर्फ ब्रांडिंग के लिए दर्ज की हो। ऐसा है तो वो ‘टू वे मीडियम’ की ताकत को नजरअंदाज कर रहे हैं।
चुनावी मौसम में इंटरनेट समेत तमाम हाईटेक माध्यमों से प्रचार की धूम है। लेकिन,इन माध्यमों के वास्तविक लाभ के लिए आवश्यक रणनीति नदारद है। इंटरनेट पर वीडियो शेयरिंग साइटों पर सभी पार्टियों के वीडियों धड़ाधड़ अपलोड़ किए जा रहे हैं। लेकिन, ज्यादातर वीडियो रैलियों और नेताओं के भाषणों के हैं। क्या इंटरनेट उपयोक्ता रैलियों के वीडियो यूट्यूब पर देखना चाहते हैं? यूट्यूब वीडियो के लिए एक अलग कैंपेन डिजाइन किया जाना चाहिए था,जिसमें हल्के फुल्के अंदाज में पार्टियां अपनी बात कहतीं। इसी तरह, मोबाइल एसएमएस के लिए अलग कैंपेन डिजाइन किया जाना चाहिए।
इसमें कोई शक नहीं है कि हाईटेक प्रचार के मामले में बीजेपी कांग्रेस से दो कदम आगे हैं। यूट्यूब पर लालकृष्ण आडवाणी के वीडियो अपलोड करने के लिए एक अलग चैनल है। आडवाणी जी की साइट के प्रचार में भी करोड़ों रुपए खर्च किए गए। साइट का गूगल विज्ञापन पाकिस्तानी अखबार डॉन की साइट पर दिखने पर हंगामा भी मचा। इतना ही नहीं,अश्लील सामग्री वाली कुछ साइटों पर भी आडवाणी जी की साइट का विज्ञापन दिखने की बात कही गई। लेकिन,धुआंधार विज्ञापन के बावजूद क्या लक्ष्य उपयोक्ताओं से सीधा संवाद स्थापित हुआ है? आडवाणी जी के ब्लॉग पर जिन विषयों और जिस भाषा में लोगों से संवाद साधा गया है, वो नयी पीढ़ी को शायद ही आकर्षित कर पाए। साइबर कैंपेन की सफलता भी मीडियम से ज्यादा मैसेज में छिपी है। संदेश का असरदार होना जरुरी है। लेकिन,हाईटेक होने को बेताब राजनेता फिलहाल मीडियम के आकर्षण में ज्यादा बंधे दिखते हैं।
(ये लेख अमर उजाला में 19 मार्च को संपादकीय पेज पर प्रकाशित हो चुका है)
Thursday, March 19, 2009
सिर्फ साइबर कैंपेन की सोच काफी नहीं
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अमर उजाला,
राजनीतिक पार्टियां,
साइबर कैंपेन
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उम्दा आलेख... धन्यवाद
ReplyDeleteअच्छा लिखा आपने...काश...नेताओ की समझ में ये बात आती और उससे भी ज्यादा पहले विकास में दम लगाने की वो सोच पाते...तब तो माध्यम और मैसेज का टंटा ही न पालना पड़ता। ख़ैर, उम्मीद की जा सकती है कि आपका लेख पढ़ने के बाद अगली बार मीडिया चुनते वक्त उसकी बारीकियों को भी नेता समझ लेंगे और तब उन्हें आम-अननोन ब्लॉगर्स की तरह टिप्पणियों के लिए तरसना नहीं होगा. एक बार फिर बधाई।
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