इस लम्हे की अपनी अहमियत थी। टाटा की लखटकिया कार लॉन्च हो रही थी। कार खरीदने का ख्वाब पाली हज़ारों आंखें टेलीविजन के स्क्रीन पर टकटकी लगाए बैठी थीं। आखिर,सूचनाओं के रुप में कई सवालों के जवाब चाहिए थे उन्हें ! कितने की है नैनो ? कैसे होगी नैनो की बुकिंग? कब तक मिलेगी लखटकिया कार,और कितनों को मिलेगी वगैरह वगैरह। दिलचस्प ये कि नैनो की इस लॉचिंग को भी कुछ न्यूज चैनलों ने सनसनीख़ेज बना दिया। यकीं नहीं होता तो गौर फरमाइए। "इतने करीब से नहीं देखी होगी आपने नैनो। हम बताएंगे आपको नैनो का एक-एक राज़।" फिर,कुछ इसी तरह की लाइनें नैनो की ख़बर से जुड़े प्रोमो में भी दिखायी दी।
लेकिन बात सिर्फ इस इकलौती ख़बर की नहीं है। बात नैनो की भी नहीं है। बात है प्रोमो की। न्यूज़ चैनलों पर नैनो के प्रोमो ने एक बात साफ कर दी कि अब सॉफ्ट न्यूज़ भी दमदार वॉयस ओवर में लपेटकर, सनसनीखेज बनाकर बेचने का ट्रेंड शुरु हो चुका है। टीआरपी पाने की रेस में न्यूज चैनलों की ग्रामर लगातार बदल रही है। सॉफ्ट ख़बर का हार्ड प्रोमो इससे जुड़ती नयी कड़ी है। बिग बॉस के घर में कंटेस्टेंट खेल खेल में भूत बनते हैं,और एक दूसरे को डराते हैं,तो इसका प्रोमो भी रहस्य और सनसनी के आवरण में बुना जाता है-"बिग बॉस के घर में किसका साया, ये कोई भूत है या प्रेतात्मा,संभावना सेठ ने किसको देखा,राजा चौधरी किस साए को देखकर बुरी तरह डर गए"।
वैसे प्रोमो लिखना हमेशा से आर्ट माना जाता है। प्रोग्राम का प्रोमो देखकर ही कई बार दर्शक फैसला करता है कि उसे देखा जाए या नहीं। लेकिन,हर एक प्वाइंट टीआरपी के लिए मारामारी मचाने पर उतारु न्यूज चैनल में अब इस आर्ट ने सनसनीखेज शब्दों को जोड़कर अल्ल-बल्ल प्रोमो लिखने लगे हैं। मसलन-मौत के फरिश्तों की उन्होंने की खिदमत,वो धरती पर बन गए यमराज के कॉन्ट्रैक्टर। दुनिया के सबसे बड़े कातिल को देखिए रात.....। इसी तरह, "तीन सिरों वाला एक जहरीला सांप, जो एक जमाने से सोया हुआ था। जाग गया है...वो बढ़ रहा है कि वादी ए कश्मीर की तरफ..क्या होगा अंजाम।" एक और उदाहरण देखिए-"एक स्कूल…जहां बाथरूम जाते ही…लडकियां हो जाती है…बेहोश…क्या है बाथरूम का राज?"
ऐसे प्रोमो की लंबी लिस्ट है,और अब ये सामान्य हैं। सी ग्रेड फिल्म के डालयॉग की तरह प्रोमो की भाषा में वो शब्द और वाक्य इस्तेमाल होने लगे हैं, मानो दर्शक को पीटकर, जबरदस्ती कॉलर पकड़कर या ब्लैकमेल कर प्रोग्राम देखना ही होगा। दिलचस्प है कि कुछ वाक्य तो लगातार इस्तेमाल होते हैं। मसलन- आंखें बंद मत कीजिए, वर्ना ये जिंदगी में दोबारा नहीं देख पाएंगे। कान बंद मत कीजिए, नहीं तो ये चीजें फिर कभी नहीं सुन पाएंगे। अगर आपके घर में मां है, बहन है, बेटी है, बहू है तो ये खबर आपके लिए बेहद जरूरी है। इस बार नहीं देखा, तो फिर कभी नहीं देख पाएंगे। देश की सबसे बड़ी मर्डर मिस्ट्री है ये। दुनिया का सबसे खौफनाक कातिल। दुनिया का सबसे घिनौना शख्स है ये। सिहर जाएंगे आप। दहल जाएंगे आप..वगैरह वगैरह।
न्यूज़ चैनलों की एक हद तक मजबूरी भी है कि उन्हें दर्शकों को हर हाल में टीवी स्क्रीन से चिपकाए रखना है,जिसके लिए उन्हें हर हथकंडा अपनाना पड़ता है। लेकिन, हर प्रोमो को सनसनीखेज बनाकर दर्शक को रोके रखने के चक्कर में कई बार संवेदनशील और बेहतरीन खबर भी हल्के से ले ली जाती हैं। यहीं चैनलों की 'क्रेडेबिलिटी' को झटका लगता है। दर्शक धीरे धीरे इन प्रोमो को देखकर मज़ा लेने लगे हैं। प्रोमो की भाषा और अंदाज अब उन्हें गुदगुदाने लगा है। वो इस बात से वाकिफ हैं कि 'दुनिया का सबसे बड़ा रहस्य' किसी आश्रम के ढोंगी बाबा की ख़बर हो सकती है या 'देखिए दुनिया के सबसे खतरनाक रास्ते' ऐलान करता प्रोमो दिल्ली के द्वारिका इलाके के फ्लाईओवर की खबर हो सकती है,जहां ज्यादा एक्सीडेंट हो रहे हैं।
प्रोमो का फसाना हकीकत की जम़ी पर दम तोड़ देता है। तकरीबन हर बार। लेकिन,न्यूज़ चैनलों की बदलती ग्रामर के आइने में यह एक्सपेरीमेंट भी चल निकला है। दर्शकों को फंसा लेने वाले प्रोमो लिखना ही कॉपी राइटर की काबलियत मानी जा रही है। फिलहाल,इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता कि प्रोमो दर्शक को गुदगुदा रहे हैं या हंसा रहे हैं। टीआरपी आनी चाहिए बस...।
(दैनिक जागरण समूह के अखबार आई-नेक्स्ट में 31 मार्च को संपादकीय पेज पर प्रकाशित लेख)
Tuesday, March 31, 2009
अब तो बस मज़ा लीजिए ख़बरों के प्रोमों का !
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Monday, March 30, 2009
विरोध में दिग्विजय का हाईटेक बयान!
बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लाल कृष्ण आडवाणी इन दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की तर्ज पर चुनावी मैदान में हैं। उनका साइबर कैंपेन धुआंधार चल ही रहा था कि उन्होंने अमेरिकी तर्ज पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को सार्वजनिक मंच पर बहस की चुनौती दे डाली।
सार्वजनिक अखाड़े में बहस की चुनौती से कांग्रेस भौचक रह गई। पार्टी प्रवक्ता आनंद शर्मा ने कहा कि भारत की संसदीय राजनीति में इस तरह की बहस की कोई जगह नहीं है, और आडवाणी लोकसभा चुनाव को भी अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव बनाना चाहते हैं।
अब,अपना न तो आडवाणी जी कोई याराना है,न कांग्रेस से कोई दुश्मनी। लेकिन,इस मुद्दे और इस मुद्दे के बाद कांग्रेसी नेताओं की तरफ से आई प्रतिक्रिया से कुछ बातें जरुर जेहन में आ गईं हैं।
पहली,सार्वजनिक मंच पर बहस में बुराई क्या है? न्यूज चैनलों से राजनीतिक समाचार खासकर ठोस राजनीतिक समाचार नदारद हो रहे हैं। सभी इसके लिए रो पीट रहे हैं। कांग्रेस सरकार भी यह दुखड़ा रो चुकी है कि न्यूज चैनल पर समाचार नहीं दिखाए जाते। ऐसे में,सार्वजनिक बहस टीआरपी बढ़ाने का हिट फॉर्मूला साबित हो सकता है। यानी सब खुश चैनल भी और नेता भी।
दूसरी,इस बहस में जो मुद्दे उठेंगे,उससे जनता को भी पता चलेगा कि वरुण गांधी से इतर भी देश में कई मसले हैं,जिन पर बात होनी चाहिए।
खैर,इस पोस्ट को लिखने का विचार मन में आया था-दिग्विजय सिंह का बयान देखकर। उन्होंने आडवाणी की बहस की चुनौती के जवाब में कहा- आडवाणी को देखिए। उन्हें लगता है कि वो भारत में ओबामा बन सकते हैं। उनकी वेबसाइट पर समर्थकों की संख्या को देखिए....जो 3100 से ज्यादा नहीं है।
अब,दिग्गी राजा का ये बयान अपने गले नहीं उतरा। दरअसल,बात आडवाणी की चुनौती या कांग्रेस के उसे स्वीकार करने की नहीं है। इस चुनौती में भी आडवाणी जी राजनीति कर रहे हैं,इसमें संदेह नहीं है। लेकिन,सवाल इस चुनौती के जवाब में दिए बचकाना बयान की है। अब,बहस की बात का आडवाणी की साइट से क्या लेना देना। और अगर लेना देना है तो दिग्विजय सिंह जी को पहले अपनी पार्टी की अधिकारिट साइट देखनी चाहिए थी।
नमूने के लिए-इंटरनेट पर ट्रैफिक मापने वाली साइट एलेक्सा के मुताबिक आडवाणी की साइट lkadvani.in की रैकिंग 9,717 के करीब है,जबकि कांग्रेस की अधिकारिक वेबसाइट aicc.org.in की रैंकिंग 1,44,000 से भी ज्यादा है। इस रैंकिंग से हिसाब लगाया जा सकता है कि किस साइट के कितने पाठक हैं।
ये अलग बात है कि आडवाणी ने साइबर कैंपेन ने करोड़ों रुपए खर्च किए हैं,जबकि कांग्रेस ने नहीं। लेकिन,ऐसा भी नहीं है कि कांग्रेस साइबर कैंपेन बिलकुल न कर रही हो। यानी दौड़ में वो पिछड़ी है।
दरअसल,बात ज़रा सी है। हमारे यहां नेताओं को हर मसले पर बोलने की आदत है। और बाइट लेने गए पत्रकारों से वो किसी भी मसले पर बात कर सकते हैं। सो दिग्विजय सिंह भी कर बैठे आडवाणी की बहस की तुलना आडवाणी की साइट से।
क्या आपको लगता है कि इन दोनों के बीच है कुछ लेना देना?
सार्वजनिक अखाड़े में बहस की चुनौती से कांग्रेस भौचक रह गई। पार्टी प्रवक्ता आनंद शर्मा ने कहा कि भारत की संसदीय राजनीति में इस तरह की बहस की कोई जगह नहीं है, और आडवाणी लोकसभा चुनाव को भी अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव बनाना चाहते हैं।
अब,अपना न तो आडवाणी जी कोई याराना है,न कांग्रेस से कोई दुश्मनी। लेकिन,इस मुद्दे और इस मुद्दे के बाद कांग्रेसी नेताओं की तरफ से आई प्रतिक्रिया से कुछ बातें जरुर जेहन में आ गईं हैं।
पहली,सार्वजनिक मंच पर बहस में बुराई क्या है? न्यूज चैनलों से राजनीतिक समाचार खासकर ठोस राजनीतिक समाचार नदारद हो रहे हैं। सभी इसके लिए रो पीट रहे हैं। कांग्रेस सरकार भी यह दुखड़ा रो चुकी है कि न्यूज चैनल पर समाचार नहीं दिखाए जाते। ऐसे में,सार्वजनिक बहस टीआरपी बढ़ाने का हिट फॉर्मूला साबित हो सकता है। यानी सब खुश चैनल भी और नेता भी।
दूसरी,इस बहस में जो मुद्दे उठेंगे,उससे जनता को भी पता चलेगा कि वरुण गांधी से इतर भी देश में कई मसले हैं,जिन पर बात होनी चाहिए।
खैर,इस पोस्ट को लिखने का विचार मन में आया था-दिग्विजय सिंह का बयान देखकर। उन्होंने आडवाणी की बहस की चुनौती के जवाब में कहा- आडवाणी को देखिए। उन्हें लगता है कि वो भारत में ओबामा बन सकते हैं। उनकी वेबसाइट पर समर्थकों की संख्या को देखिए....जो 3100 से ज्यादा नहीं है।
अब,दिग्गी राजा का ये बयान अपने गले नहीं उतरा। दरअसल,बात आडवाणी की चुनौती या कांग्रेस के उसे स्वीकार करने की नहीं है। इस चुनौती में भी आडवाणी जी राजनीति कर रहे हैं,इसमें संदेह नहीं है। लेकिन,सवाल इस चुनौती के जवाब में दिए बचकाना बयान की है। अब,बहस की बात का आडवाणी की साइट से क्या लेना देना। और अगर लेना देना है तो दिग्विजय सिंह जी को पहले अपनी पार्टी की अधिकारिट साइट देखनी चाहिए थी।
नमूने के लिए-इंटरनेट पर ट्रैफिक मापने वाली साइट एलेक्सा के मुताबिक आडवाणी की साइट lkadvani.in की रैकिंग 9,717 के करीब है,जबकि कांग्रेस की अधिकारिक वेबसाइट aicc.org.in की रैंकिंग 1,44,000 से भी ज्यादा है। इस रैंकिंग से हिसाब लगाया जा सकता है कि किस साइट के कितने पाठक हैं।
ये अलग बात है कि आडवाणी ने साइबर कैंपेन ने करोड़ों रुपए खर्च किए हैं,जबकि कांग्रेस ने नहीं। लेकिन,ऐसा भी नहीं है कि कांग्रेस साइबर कैंपेन बिलकुल न कर रही हो। यानी दौड़ में वो पिछड़ी है।
दरअसल,बात ज़रा सी है। हमारे यहां नेताओं को हर मसले पर बोलने की आदत है। और बाइट लेने गए पत्रकारों से वो किसी भी मसले पर बात कर सकते हैं। सो दिग्विजय सिंह भी कर बैठे आडवाणी की बहस की तुलना आडवाणी की साइट से।
क्या आपको लगता है कि इन दोनों के बीच है कुछ लेना देना?
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Sunday, March 29, 2009
पवार का विवादास्पद भाषण यूट्यूब पर क्यों नहीं?
नेशलिस्ट कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार ने रविवार को किसी भाषण सभा में मालेगांव ब्लास्ट का मसला उठाया। उनका बयान 'न्यूज चैनल' आजतक ने दिखाया,तो मन में इच्छा हुई कि सुना जाए कि पूरा बयान क्या है। शरद पवार के इस बयान को सुनने के लिए यूट्यूब का दरवाजा खटखटाया,लेकिन रात 11.15 तक यह वीडियो उपलब्ध नहीं था। कम से कम मुझे नहीं दिखायी दिया।
दरअसल, शरद पवार का बयान हिला देने वाला है,और देखना ये है कि अब राजनीतिक हलको में इस पर क्या प्रतिक्रिया होती है। शरद पवार ने कहा उन्हें यकीं था कि मालेगांव मस्जिद ब्लास्ट में किसी मुसलमान का हाथ नहीं हो सकता क्योंकि कोई हिन्दू मंदिर में,कोई मुसलमान मस्जिद में,कोई सिख स्वर्ण मंदिर में और कोई क्रिश्चन गिरजाघर में बम ब्लास्ट करने की सोच ही नहीं सकता। पवार ने आगे कहा कि मालेगांव ब्लास्ट के आरोपी पकड़े गए तो साफ हो गया कि किसने हमले किए थे। गौरतलब है कि कर्नल पुरोहित,साध्वी प्रज्ञा समेत दस से ज्यादा लोगों को मालेगांव विस्फोट मामले में गिरफ्तार किया गया है। यानी पवार का इशारा साफ था कि मालेगांव विस्फोट में हिन्दू आतंकवादियों का हाथ है। लेकिन,पवार ने इससे आगे जाकर जो कहा-वो निश्चित तौर पर आपत्तिजनक है। पवार ने कहा कि मालेगांव ब्लास्ट में इन आरोपियों के पकड़े जाने के बाद देश में कहीं कोई बम ब्लास्ट नहीं हुआ।
अब,सवाल ये कि इस बयान का क्या मतलब है? पवार शायद अल्पसंख्यक वर्ग को रिझाने के चक्कर में कुछ ज्यादा बोल गए। लेकिन,वो भूल गए कि साध्वी प्रज्ञा को अक्टूबर में गिरफ्तार किया गया था। उसके चंद दिन के भीतर ही कर्नल पुरोहित समेत दस लोगों को गिरफ्तार किया गया,जिन्हें नासिक अदालत में पेश किया गया था। लेकिन,इन सभी की गिरफ्तारी के बाद मुंबई में 26 नवंबर को हमला हुआ। ऐसा हमला,जिसके बारे में हम कभी सोच नहीं सकते थे। ये साबित हो चुका है कि इस हमले में शामिल सभी आतंकवादी पाकिस्तानी थे। पकड़ा गया आतंकवादी का नाम तो मोहम्मद कसाब ही है। और इस हमले में 34 से ज्यादा मुस्लिम मारे गए। यानी मुसलमान आतंकवादियों ने मुसलमानों को निशाना बनाया। फिर,अगर कोई मुस्लिम आतंकवादी मुसलमानों को निशाना नहीं बना सकता तो पाकिस्तान में रोजाना बम विस्फोट होते ही नहीं।
दरअसल,अल्पसंख्यकों को रिझाने के चक्कर में आतंकवाद को धर्म के आवरण में लपेटा जा रहा है,जो घातक है। आतंकवादी कसाब हो या प्रज्ञा-कानूनन सजा मिलनी चाहिए और सख्त से सख्त सजा मिलनी चाहिए।
खैर,बात शुरु हुई थी कि यूट्यूब पर पवार के वीडियो की गैरमौजूदगी से। आखिर,जितना अंश चैनल ने दिखाया,उससे पवार का बयान बेहद आपत्तिजनक है। काश,खुद को प्रोग्रेसिव और मॉर्डन बताने वाली पवार की एनसीपी इस भाषण को यूट्यूब पर भी फौरन डाल देती,तो मुमकिन है कि इतनी कलम घिसनी नहीं पड़ती।
कभी कभी गुस्सा आता है जी......
दरअसल, शरद पवार का बयान हिला देने वाला है,और देखना ये है कि अब राजनीतिक हलको में इस पर क्या प्रतिक्रिया होती है। शरद पवार ने कहा उन्हें यकीं था कि मालेगांव मस्जिद ब्लास्ट में किसी मुसलमान का हाथ नहीं हो सकता क्योंकि कोई हिन्दू मंदिर में,कोई मुसलमान मस्जिद में,कोई सिख स्वर्ण मंदिर में और कोई क्रिश्चन गिरजाघर में बम ब्लास्ट करने की सोच ही नहीं सकता। पवार ने आगे कहा कि मालेगांव ब्लास्ट के आरोपी पकड़े गए तो साफ हो गया कि किसने हमले किए थे। गौरतलब है कि कर्नल पुरोहित,साध्वी प्रज्ञा समेत दस से ज्यादा लोगों को मालेगांव विस्फोट मामले में गिरफ्तार किया गया है। यानी पवार का इशारा साफ था कि मालेगांव विस्फोट में हिन्दू आतंकवादियों का हाथ है। लेकिन,पवार ने इससे आगे जाकर जो कहा-वो निश्चित तौर पर आपत्तिजनक है। पवार ने कहा कि मालेगांव ब्लास्ट में इन आरोपियों के पकड़े जाने के बाद देश में कहीं कोई बम ब्लास्ट नहीं हुआ।
अब,सवाल ये कि इस बयान का क्या मतलब है? पवार शायद अल्पसंख्यक वर्ग को रिझाने के चक्कर में कुछ ज्यादा बोल गए। लेकिन,वो भूल गए कि साध्वी प्रज्ञा को अक्टूबर में गिरफ्तार किया गया था। उसके चंद दिन के भीतर ही कर्नल पुरोहित समेत दस लोगों को गिरफ्तार किया गया,जिन्हें नासिक अदालत में पेश किया गया था। लेकिन,इन सभी की गिरफ्तारी के बाद मुंबई में 26 नवंबर को हमला हुआ। ऐसा हमला,जिसके बारे में हम कभी सोच नहीं सकते थे। ये साबित हो चुका है कि इस हमले में शामिल सभी आतंकवादी पाकिस्तानी थे। पकड़ा गया आतंकवादी का नाम तो मोहम्मद कसाब ही है। और इस हमले में 34 से ज्यादा मुस्लिम मारे गए। यानी मुसलमान आतंकवादियों ने मुसलमानों को निशाना बनाया। फिर,अगर कोई मुस्लिम आतंकवादी मुसलमानों को निशाना नहीं बना सकता तो पाकिस्तान में रोजाना बम विस्फोट होते ही नहीं।
दरअसल,अल्पसंख्यकों को रिझाने के चक्कर में आतंकवाद को धर्म के आवरण में लपेटा जा रहा है,जो घातक है। आतंकवादी कसाब हो या प्रज्ञा-कानूनन सजा मिलनी चाहिए और सख्त से सख्त सजा मिलनी चाहिए।
खैर,बात शुरु हुई थी कि यूट्यूब पर पवार के वीडियो की गैरमौजूदगी से। आखिर,जितना अंश चैनल ने दिखाया,उससे पवार का बयान बेहद आपत्तिजनक है। काश,खुद को प्रोग्रेसिव और मॉर्डन बताने वाली पवार की एनसीपी इस भाषण को यूट्यूब पर भी फौरन डाल देती,तो मुमकिन है कि इतनी कलम घिसनी नहीं पड़ती।
कभी कभी गुस्सा आता है जी......
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Thursday, March 26, 2009
इस लड़ाई में जीतेगा कोई नहीं !
आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाइएसआर रेड्डी ब्लॉगर बन गए हैं। आंध्र प्रदेश में कांग्रेस को जीताने की मुहिम के तहत पार्टी ने वोटकॉन्गडॉटकॉम साइट लांच की है। इस साइट पर मुख्यमंत्री का ब्लॉग भी है। ब्लॉग इंग्लिश में है,और मुख्यमंत्री ने अभी तक जमकर तेलुगुदेशम पार्टी पर निशाना साधा है। लेकिन,सवाल ब्लॉग के कंटेंट का नहीं,लांचिंग के वक्त का है। रेड्डी साहब की पहली पोस्ट की तारीख बीस मार्च दर्ज है। आखिर,अचानक वाइएसआर को क्या लगा कि वो ब्लॉगर हो लिए? उन्होंने ब्लॉग लिखना उस वक्त शुरु किया है, जब विधानसभा चुनाव में एक महीने से भी कम वक्त रह गया है।
भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी यानी सीपीएम ने भी इसी 18 मार्च को चुनाव के लिए अपनी खास वेबसाइट लांच की है-वोटसीपीआईएमडॉटओआरजी। लोकसभा चुनाव के लिए मतदान के पहले चरण में एक महीने से भी कम वक्त रह गया है,तब पार्टी को साइबर कैंपेन के जरिए युवाओं को आकर्षित करने की योजना याद आई। कांग्रेस के भी अपनी पार्टी साइट का 'लुक-फील' बदलने की चर्चा है। शाहनवाज हुसैन और मुरली मनोहर जोशी जैसे कई राजनेताओं ने भी हाल में अपनी निजी वेबसाइट और ब्लॉग लांच किए हैं।
दरअसल,सवाल यही है कि साइबर कैंपेन अचानक क्यों? पार्टियां अगर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के साइबर कैंपेन से उत्साहित हैं,तो उन्हें ये भी पता होना चाहिए कि ओबामा ने अपनी साइट 2004 में रजिस्टर्ड करा ली थी। वो 2007 में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बने तो एक पखवाड़े के भीतर उनकी कैंपेन साइट 'बराकओबामाडॉटकॉम' पूरी तरह तैयार थी। लेकिन, हमारे यहां राजनेता उस वक्त साइबर कैंपेन को तरजीह दे रहे हैं,जब मतदान में चंद दिन ही बाकी रह गए हैं। जानकारों के मुताबिक,साइट अथवा ब्लॉग के प्रचार का सबसे बड़ा जरिया सर्च इंजन हैं,लेकिन सर्च इंजन में उन्हें कायदे से रजिस्टर होने में ही दो-तीन महीने लग जाते हैं। सीपीएम की नयी साइट का ही उदाहरण लें। गूगल सर्चइंजन पर की वर्ड 'सीपीएम वेबसाइट' सर्च करने पर पार्टी की नयी साइट पहले बीस नतीजों में नहीं आती।
इस जल्दबाजी में साइट या ब्लॉग पर उन जरुरी सावधानियों की तरफ भी ध्यान नहीं दिया गया,जो पाठकों को बांध सकती हैं। मसलन रेड्डी के ब्लॉग पर न पोस्ट को सब्सक्राइब करने की सुविधा नहीं है। यानी पाठक को रेड्डी साहब का ब्लॉग पढ़ना है तो हर रोज़ ब्लॉग पर आकर देखना होगा कि क्या रेड्डी साहब ने कुछ नया लिखा है। सीपीएम की साइट पर डोनेशन का लिंक है,लेकिन यहां चंदा चेक और ड्राफ्ट से मांगा जा रहा है। मुमकिन है कि ये कदम योजनागत हो लेकिन सवाल ये कि क्या वर्चुअल दुनिया के दानदाता चेक-ड्राफ्ट से भुगतान करेंगे? शाहनवाज हुसैन की साइट पर ब्लॉग का लिंक है, जो अभी तक सक्रिय नहीं हो पाया है। इस कड़ी में लालकृष्ण आडवाणी के साइबर कैंपेन को नहीं रखा जा सकता,क्योंकि इस कैंपेन का बजट करोड़ों में है। लेकिन, साइबर कैंपेन के जरिए सफलता खोज रहे बाकी नेता जल्दबाजी में उस लाभ से भी वंचित हैं,जो उन्हें मिलना चाहिए। इसका सीधा अर्थ ये है कि साइबर दुनिया में नेता लड़ाई कितनी भी लड़े-जीत किसी की नहीं होनी है।
यूट्यूब कैंपेन क्यों नहीं?वीडियो शेयरिंग साइट यूट्यूब पर 'मनमोहन सिंह' सर्च करते वक्त अचानक एक वीडियो "नाना पाटेकर-प्रधानमंत्री की फोन बातचीत" आपकी आंखों के सामने से गुजरता है,तो आप देखे बिना नहीं रह पाते। लेकिन,इस क्लिप को चलाते ही आपको समझ आता है कि ये किसी शरारती शख्स की करतूत है। फिर,जेहन में ये सवाल भी आता है कि अभी तक किसी ने(कांग्रेसियों समेत) इस क्लिप के खिलाफ शिकायत क्यों नहीं दर्ज करायी? इस क्लिप में कोई टेलीफोन बातचीत नहीं,बल्कि फर्जी मनगढंत ओछी मिमिक्री है।
इस तरह के मामलों को छोड़ दें तो यूट्यूब पर कई दिलचस्प वीडियो देखने को मिलते हैं। इनमें तेलुगु भाषा में कई राजनीतिक एनिमेशन हैं,जिनमें नरेंद्र मोदी से लेकर राहुल गांधी अपनी अपनी धुनों पर थिरकते दिखते हैं। एक वीडियो में राहुल गांधी के आईक्यू पर सवाल उठाया गया है। अब,अगर इस क्लिप के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गई है,तो राहुल का गुजरात को यूनाइटेड किंगडम और भारत को अमेरिका व यूनाइटेड किंगडम से बड़ा बताने की बाइट चौंकाती जरुर है।
यूट्यूब पर लालकृष्ण आडवाणी का अलग चैनल है,तो राहुल गांधी के एक प्रशसंक ने 'राहुलगांधीडॉटटीवी' खोल रखा है,जिस पर उनसे जुड़े कई वीडियो हैं। लेकिन,यूट्यूब पर राहुल गांधी,लाल कृष्ण आडवाणी,मनमोहन सिंह,मायावती,राजनाथ सिंह,देवगौड़ा सर्च करने पर एक बात साफ हो जाती है कि चुनावी मौसम में इस माध्यम का इस्तेमाल सिर्फ चलताऊ वीडियो अपलोड करने के लिए किया जा रहा है। युवाओं का पसंदीदा माध्यम यूट्यूब एक अलग किस्म के कैंपेन की मांग करता है,जहां रैलियों,उबाऊ भाषणों,प्रेस कॉन्फ्रेंस और न्यूज चैनलों के पैकेज से इतर दिलचस्प तरीके से बात कही गई हो,लेकिन फिलहाल यहां ऐसा नहीं दिखता।
छोटे खिलाड़ी भी मैदान में : वाइएसआर रेड्डी,मुरली मनोहर जोशी,लालकृष्ण आडवाणी और संजय निरुपम जैसे दिग्गज ब्लॉगरों की देखा-देखी ब्लॉगिंग के खेल में छोटे राजनीतिक खिलाड़ी भी उतर आए हैं। आरा से बीएसपी उम्मीदवार रीता सिंह ने 'रीतासिंहबीएपीडॉटब्लॉगस्पॉटडॉटकॉम' शुरु किया है। बहनजी की तस्वीरों से पटे पड़े इस ब्लॉग पर रीता के भाषणों को पोस्ट में डाला गया है।मतलब रीता जी के पास खुद वक्त नहीं है लिखने का। ब्लॉग पर उनकी सभाओं और रैलियों की सूचना है ताकि वहां भारी भीड़ जुट सके। ये अलग बात है कि हर पोस्ट पर 'शून्य और एक' कमेंट बताता है कि ब्लॉग पर अभी भीड़ नहीं जुट रही।
एक एसएमएस :
संटी(बंटी से)-अगर ओबामा नहीं होते तो क्या होता?
बंटी(संटी से)-क्या होता,आडवाणी जी और उनकी पार्टी के करोड़ों रुपए फूंकने से बच जाते।
(दैनिक भास्कर में प्रकाशित पोल-टेक स्तंभ, 26 मार्च को प्रकाशित )
भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी यानी सीपीएम ने भी इसी 18 मार्च को चुनाव के लिए अपनी खास वेबसाइट लांच की है-वोटसीपीआईएमडॉटओआरजी। लोकसभा चुनाव के लिए मतदान के पहले चरण में एक महीने से भी कम वक्त रह गया है,तब पार्टी को साइबर कैंपेन के जरिए युवाओं को आकर्षित करने की योजना याद आई। कांग्रेस के भी अपनी पार्टी साइट का 'लुक-फील' बदलने की चर्चा है। शाहनवाज हुसैन और मुरली मनोहर जोशी जैसे कई राजनेताओं ने भी हाल में अपनी निजी वेबसाइट और ब्लॉग लांच किए हैं।
दरअसल,सवाल यही है कि साइबर कैंपेन अचानक क्यों? पार्टियां अगर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के साइबर कैंपेन से उत्साहित हैं,तो उन्हें ये भी पता होना चाहिए कि ओबामा ने अपनी साइट 2004 में रजिस्टर्ड करा ली थी। वो 2007 में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बने तो एक पखवाड़े के भीतर उनकी कैंपेन साइट 'बराकओबामाडॉटकॉम' पूरी तरह तैयार थी। लेकिन, हमारे यहां राजनेता उस वक्त साइबर कैंपेन को तरजीह दे रहे हैं,जब मतदान में चंद दिन ही बाकी रह गए हैं। जानकारों के मुताबिक,साइट अथवा ब्लॉग के प्रचार का सबसे बड़ा जरिया सर्च इंजन हैं,लेकिन सर्च इंजन में उन्हें कायदे से रजिस्टर होने में ही दो-तीन महीने लग जाते हैं। सीपीएम की नयी साइट का ही उदाहरण लें। गूगल सर्चइंजन पर की वर्ड 'सीपीएम वेबसाइट' सर्च करने पर पार्टी की नयी साइट पहले बीस नतीजों में नहीं आती।
इस जल्दबाजी में साइट या ब्लॉग पर उन जरुरी सावधानियों की तरफ भी ध्यान नहीं दिया गया,जो पाठकों को बांध सकती हैं। मसलन रेड्डी के ब्लॉग पर न पोस्ट को सब्सक्राइब करने की सुविधा नहीं है। यानी पाठक को रेड्डी साहब का ब्लॉग पढ़ना है तो हर रोज़ ब्लॉग पर आकर देखना होगा कि क्या रेड्डी साहब ने कुछ नया लिखा है। सीपीएम की साइट पर डोनेशन का लिंक है,लेकिन यहां चंदा चेक और ड्राफ्ट से मांगा जा रहा है। मुमकिन है कि ये कदम योजनागत हो लेकिन सवाल ये कि क्या वर्चुअल दुनिया के दानदाता चेक-ड्राफ्ट से भुगतान करेंगे? शाहनवाज हुसैन की साइट पर ब्लॉग का लिंक है, जो अभी तक सक्रिय नहीं हो पाया है। इस कड़ी में लालकृष्ण आडवाणी के साइबर कैंपेन को नहीं रखा जा सकता,क्योंकि इस कैंपेन का बजट करोड़ों में है। लेकिन, साइबर कैंपेन के जरिए सफलता खोज रहे बाकी नेता जल्दबाजी में उस लाभ से भी वंचित हैं,जो उन्हें मिलना चाहिए। इसका सीधा अर्थ ये है कि साइबर दुनिया में नेता लड़ाई कितनी भी लड़े-जीत किसी की नहीं होनी है।
यूट्यूब कैंपेन क्यों नहीं?वीडियो शेयरिंग साइट यूट्यूब पर 'मनमोहन सिंह' सर्च करते वक्त अचानक एक वीडियो "नाना पाटेकर-प्रधानमंत्री की फोन बातचीत" आपकी आंखों के सामने से गुजरता है,तो आप देखे बिना नहीं रह पाते। लेकिन,इस क्लिप को चलाते ही आपको समझ आता है कि ये किसी शरारती शख्स की करतूत है। फिर,जेहन में ये सवाल भी आता है कि अभी तक किसी ने(कांग्रेसियों समेत) इस क्लिप के खिलाफ शिकायत क्यों नहीं दर्ज करायी? इस क्लिप में कोई टेलीफोन बातचीत नहीं,बल्कि फर्जी मनगढंत ओछी मिमिक्री है।
इस तरह के मामलों को छोड़ दें तो यूट्यूब पर कई दिलचस्प वीडियो देखने को मिलते हैं। इनमें तेलुगु भाषा में कई राजनीतिक एनिमेशन हैं,जिनमें नरेंद्र मोदी से लेकर राहुल गांधी अपनी अपनी धुनों पर थिरकते दिखते हैं। एक वीडियो में राहुल गांधी के आईक्यू पर सवाल उठाया गया है। अब,अगर इस क्लिप के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गई है,तो राहुल का गुजरात को यूनाइटेड किंगडम और भारत को अमेरिका व यूनाइटेड किंगडम से बड़ा बताने की बाइट चौंकाती जरुर है।
यूट्यूब पर लालकृष्ण आडवाणी का अलग चैनल है,तो राहुल गांधी के एक प्रशसंक ने 'राहुलगांधीडॉटटीवी' खोल रखा है,जिस पर उनसे जुड़े कई वीडियो हैं। लेकिन,यूट्यूब पर राहुल गांधी,लाल कृष्ण आडवाणी,मनमोहन सिंह,मायावती,राजनाथ सिंह,देवगौड़ा सर्च करने पर एक बात साफ हो जाती है कि चुनावी मौसम में इस माध्यम का इस्तेमाल सिर्फ चलताऊ वीडियो अपलोड करने के लिए किया जा रहा है। युवाओं का पसंदीदा माध्यम यूट्यूब एक अलग किस्म के कैंपेन की मांग करता है,जहां रैलियों,उबाऊ भाषणों,प्रेस कॉन्फ्रेंस और न्यूज चैनलों के पैकेज से इतर दिलचस्प तरीके से बात कही गई हो,लेकिन फिलहाल यहां ऐसा नहीं दिखता।
छोटे खिलाड़ी भी मैदान में : वाइएसआर रेड्डी,मुरली मनोहर जोशी,लालकृष्ण आडवाणी और संजय निरुपम जैसे दिग्गज ब्लॉगरों की देखा-देखी ब्लॉगिंग के खेल में छोटे राजनीतिक खिलाड़ी भी उतर आए हैं। आरा से बीएसपी उम्मीदवार रीता सिंह ने 'रीतासिंहबीएपीडॉटब्लॉगस्पॉटडॉटकॉम' शुरु किया है। बहनजी की तस्वीरों से पटे पड़े इस ब्लॉग पर रीता के भाषणों को पोस्ट में डाला गया है।मतलब रीता जी के पास खुद वक्त नहीं है लिखने का। ब्लॉग पर उनकी सभाओं और रैलियों की सूचना है ताकि वहां भारी भीड़ जुट सके। ये अलग बात है कि हर पोस्ट पर 'शून्य और एक' कमेंट बताता है कि ब्लॉग पर अभी भीड़ नहीं जुट रही।
एक एसएमएस :
संटी(बंटी से)-अगर ओबामा नहीं होते तो क्या होता?
बंटी(संटी से)-क्या होता,आडवाणी जी और उनकी पार्टी के करोड़ों रुपए फूंकने से बच जाते।
(दैनिक भास्कर में प्रकाशित पोल-टेक स्तंभ, 26 मार्च को प्रकाशित )
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Friday, March 20, 2009
साइट के ऑनलाइन प्रचार से शादी के विज्ञापन तक !
इन दिनों तकरीबन हर वेबसाइट पर बीजेपी नेता लाल कृष्ण आडवाणी की साइट का विज्ञापन चस्पां है। समाचार, खेल, ज्योतिष, प्रॉपर्टी जैसी तमाम अलग विषयों की साइटों से लेकर पाकिस्तानी अखबार डॉन और ब्रिटिश अखबार गार्जियन की वेबसाइट पर भी उनकी साइट का विज्ञापन दिख रहा है। बीजेपी ने इस बात का खुलासा नहीं किया है कि इस साइबर कैंपेन का बजट कितना है, लेकिन जानकारों का मानना है कि पूरे कैंपेन में 100 करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च किए गए हैं। वजह-विज्ञापन हजारों साइटों पर दिख रहा है। गूगल के जरिए दिए गए इन विज्ञापनों को उन साइटों पर भी दिया गया है,जिनका राजनीतिक खबरों से दूर दूर तक वास्ता नहीं है। जानकारों की मानें तो इस तरह विज्ञापन देने में बीजेपी को सामान्य विज्ञापनों से तिगुना खर्च करना पड़ा होगा। लेकिन, बात सिर्फ साइबर कैंपेन के तहत साइट के धुआंधार विज्ञापनों की नहीं है। ओबामा की तर्ज पर साइबर कैंपेन करने उतरे आडवाणी जी सोशल नेटवर्किंग साइट पर खास सक्रिय नहीं है। फेसबुक और ऑर्कुट जैसी साइटों पर उनके समर्थकों की संख्या महज 1000 के आसपास है,जबकि फेसबुक पर ओबामा के समर्थकों की तादाद सात लाख से ज्यादा थी। आडवाणी जी का हिन्दी ब्लॉग बिलकुल उपेक्षित है। हिन्दी में लिखी पोस्ट पर कमेंट इक्का दुक्का हैं,और इसका अलग से कोई खास प्रचार नहीं दिखता। यू ट्यूब पर ज्यादातर वीडियो रैलियों और भाषणों से जुड़े हैं। बताया गया है कि साइट के जरिए 6000 स्वयंसेवक जुड़ चुके हैं,जबकि साइट पर बने फोरम के 7000 से ज्यादा सदस्य हैं। साइट को एक लाख पेज व्यू भी रोज़ाना मिल रहे हैं। बावजूद इसके, सवाल यही है कि देश के नौजवानों को केंद्रित कर शुरु किए गए इस साइबर कैंपेन से क्या वोट हासिल किए जा सकते हैं ? देश में कुल युवा मतदाताओं की संख्या करीब 21 करोड़ है,जबकि भारत में नेट उपयोक्ता अभी आठ करोड़ के आसपास हैं। इनमें सक्रिय नेट उपयोक्ताओं की तादाद लगभग आधी है। इनमें बड़ी तादाद 18 साल से कम उम्र के बच्चों की है। सूचना तकनीक उद्योग से जुड़े युवा अमूमन अपने गृह प्रदेश से दूर रह रहे हैं। फिर,साइबर कैंपेन भर से युवाओं का वोट अपने पक्ष में करना क्या आसान है ? जानकारों की मानें तो साइबर कैंपेन के जरिए पार्टी सिर्फ आडवाणी जी की ब्रांडिंग कर रही है। 81 साल की उम्र में भी आडवाणी ऐसे युवा नेता के रुप में अपनी ब्रांडिंग कर रहे हैं, जो उनके अंदाज,उनकी भाषा और उनकी जरुरत समझता है। साइबर कैंपेन के जरिए उनकी जबरदस्त ब्रांडिंग हो रही है,इसमें दो राय नहीं। लेकिन, युवाओं को लुभाने के चक्कर में आडवाणी जी का ये दांव कहीं उल्टा न पड़ जाए क्योंकि हर साइट पर आडवाणी जी का फोटू देखकर नयी पीढ़ी कहीं बिदक न जाएं। आखिर, अति सबकी बुरी होती है जी !
हमऊं करयें साइबर कैंपेन :
साइबर कैंपेन के दौर में समाजवादी पार्टी कैसे पीछे रहती। इंटरनेट पर पार्टी की अधिकारिक वेबसाइट के रुप में दर्ज है-समाजवादीपार्टीइंडियाडॉटकॉम। वेबसाइट पर पार्टी के नाम के नीचे लिखा है-वेलकम टू ऑफिशियल साइट ऑफ समाजवादी पार्टी। साइट पर लिखा है- “समय बदलता है, तकनीक बदलती है। समाजवादी पार्टी बदलती तकनीक के साथ कदमताल करने में यकीन करती है। “ अब,पार्टी ने साइट तो बना दी,लेकिन इस साइट के जरिए साइबर कैंपेन मुमकिन नहीं दिखता। साइट का लुक-फील बेहद साधारण है। साइट पर ब्लॉग का लिंक है, लेकिन इस साल इस ब्लॉग पर एक भी पोस्ट नहीं लिखी गई। फिर,ब्लॉग पर जाने के बाद मुख्य साइट पर जाने का कोई लिंक नहीं है। समाजवादी पार्टी की जड़े उत्तर प्रदेश में हैं,लेकिन साइट की भाषा हिन्दी नहीं अंग्रेजी है। पार्टी के समर्थक अंग्रेजी भाषी कब से हो गए-ये अपने आप में सवाल है। मज़ेदार बात ये कि इस वेबसाइट पर पार्टी शादी के उत्सुक नौजवानों का ध्यान भी रख रही है, और जमीन-जायदाद खरीदने के इच्छुक लोगों का भी। यानी वैवाहिक साइट का विज्ञापन भी यहां है और प्रॉपटी की खरीद-बिक्री से जुड़ा विज्ञापन भी। साइट पर ‘डोनेशन’ का कोई लिंक नहीं है,अलबत्ता इन विज्ञापनों से पार्टी को कितनी कमाई होगी-ये देखने वाली बात है।
चुनाव में गूगल की बल्ले बल्ले :
चुनाव में कोई जीते-कोई हारे,गूगल की बल्ले बल्ले है। एक रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनाव के दौरान बराक ओबामा ने अपनी ऑनलाइन एडवरटाइजिंग का 82 फीसदी गूगल विज्ञापनों पर खर्च किया। साल 2008 के पहले चार महीनों में ये रकम 30 लाख डॉलर से ज्यादा थी। इसी तरह, विपक्षी जॉन मैक्गेन ने भी गूगल विज्ञापन पर लाखों डॉलर खर्च किए। अब,भारत में चुनाव के दौरान गूगल को 100 करोड़ रुपए से ज्यादा आय होने की संभावना जताई जा रही है। आडवाणी के महा साइबर कैंपेन के अलावा छोटी छोटी तमाम पार्टियां अपने अपने स्तर पर प्रचार कर रही हैं। ऐसे में,गूगल को बैठे बैठाए करोड़ों रुपए की आय हो रही है। जानकारों के मुताबिक अगर साइबर कैंपेन का फंडा हिट रहा तो विधानसभा चुनावों और स्थानीय चुनावों के दौरान भी गूगल को विज्ञापन मिलना तय है।
एक एसएमएस:
आडवाणी के साइबर कैंपेन से परेशान दूसरी राजनीतिक पार्टियों का बीजेपी को एक छोटा एसएमएस ज्ञापन -“जनाब,आडवाणी जी की साइट का विज्ञापन डॉन,गार्जियन,वाशिंगटन पोस्ट के अलावा अब हमारी पार्टियों की साइट पर भी आने लगा है। राजनीतिक सद्भावना के तहत इन विज्ञापनों को कम से कम हमारी पार्टियों की साइट से तो हटवा लीजिए....। हम लोग आपके आभारी रहेंगे ”
(दैनिक भास्कर में प्रकाशित 'पोल टेक' स्तंभ)
हमऊं करयें साइबर कैंपेन :
साइबर कैंपेन के दौर में समाजवादी पार्टी कैसे पीछे रहती। इंटरनेट पर पार्टी की अधिकारिक वेबसाइट के रुप में दर्ज है-समाजवादीपार्टीइंडियाडॉटकॉम। वेबसाइट पर पार्टी के नाम के नीचे लिखा है-वेलकम टू ऑफिशियल साइट ऑफ समाजवादी पार्टी। साइट पर लिखा है- “समय बदलता है, तकनीक बदलती है। समाजवादी पार्टी बदलती तकनीक के साथ कदमताल करने में यकीन करती है। “ अब,पार्टी ने साइट तो बना दी,लेकिन इस साइट के जरिए साइबर कैंपेन मुमकिन नहीं दिखता। साइट का लुक-फील बेहद साधारण है। साइट पर ब्लॉग का लिंक है, लेकिन इस साल इस ब्लॉग पर एक भी पोस्ट नहीं लिखी गई। फिर,ब्लॉग पर जाने के बाद मुख्य साइट पर जाने का कोई लिंक नहीं है। समाजवादी पार्टी की जड़े उत्तर प्रदेश में हैं,लेकिन साइट की भाषा हिन्दी नहीं अंग्रेजी है। पार्टी के समर्थक अंग्रेजी भाषी कब से हो गए-ये अपने आप में सवाल है। मज़ेदार बात ये कि इस वेबसाइट पर पार्टी शादी के उत्सुक नौजवानों का ध्यान भी रख रही है, और जमीन-जायदाद खरीदने के इच्छुक लोगों का भी। यानी वैवाहिक साइट का विज्ञापन भी यहां है और प्रॉपटी की खरीद-बिक्री से जुड़ा विज्ञापन भी। साइट पर ‘डोनेशन’ का कोई लिंक नहीं है,अलबत्ता इन विज्ञापनों से पार्टी को कितनी कमाई होगी-ये देखने वाली बात है।
चुनाव में गूगल की बल्ले बल्ले :
चुनाव में कोई जीते-कोई हारे,गूगल की बल्ले बल्ले है। एक रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनाव के दौरान बराक ओबामा ने अपनी ऑनलाइन एडवरटाइजिंग का 82 फीसदी गूगल विज्ञापनों पर खर्च किया। साल 2008 के पहले चार महीनों में ये रकम 30 लाख डॉलर से ज्यादा थी। इसी तरह, विपक्षी जॉन मैक्गेन ने भी गूगल विज्ञापन पर लाखों डॉलर खर्च किए। अब,भारत में चुनाव के दौरान गूगल को 100 करोड़ रुपए से ज्यादा आय होने की संभावना जताई जा रही है। आडवाणी के महा साइबर कैंपेन के अलावा छोटी छोटी तमाम पार्टियां अपने अपने स्तर पर प्रचार कर रही हैं। ऐसे में,गूगल को बैठे बैठाए करोड़ों रुपए की आय हो रही है। जानकारों के मुताबिक अगर साइबर कैंपेन का फंडा हिट रहा तो विधानसभा चुनावों और स्थानीय चुनावों के दौरान भी गूगल को विज्ञापन मिलना तय है।
एक एसएमएस:
आडवाणी के साइबर कैंपेन से परेशान दूसरी राजनीतिक पार्टियों का बीजेपी को एक छोटा एसएमएस ज्ञापन -“जनाब,आडवाणी जी की साइट का विज्ञापन डॉन,गार्जियन,वाशिंगटन पोस्ट के अलावा अब हमारी पार्टियों की साइट पर भी आने लगा है। राजनीतिक सद्भावना के तहत इन विज्ञापनों को कम से कम हमारी पार्टियों की साइट से तो हटवा लीजिए....। हम लोग आपके आभारी रहेंगे ”
(दैनिक भास्कर में प्रकाशित 'पोल टेक' स्तंभ)
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Thursday, March 19, 2009
सिर्फ साइबर कैंपेन की सोच काफी नहीं
बीजेपी के दिग्गज नेता डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी को पिछले आम चुनाव में इलाहाबाद से 2,05,625 वोट मिले थे, लेकिन उनके ब्लॉग पर लिखी पिछली सात पोस्ट में उन्हें केवल पांच टिप्पणियां मिली हैं। साइबर कैंपेन के मामले में सभी भारतीय राजनेताओं को पटखनी दे चुके लाल कृष्ण आडवाणी के हिन्दी ब्लॉग का हाल भी खासा बुरा है। उनके हिन्दी ब्लॉग पर छह पोस्ट में 11 मार्च तक केवल 9 कमेंट ही दर्ज हुए। कांग्रेस के नेता संजय निरुपम का ब्लॉग इस मामले में थोड़ा बेहतर है। निरुपम के ब्लॉग पर लिखी पिछली सात पोस्ट पर करीब 40 टिप्पणियां आयी हैं। इन टिप्पणियों के आइने में झांके तो तेज तर्रार नेताओं के ये ब्लॉग फ्लाप साबित होते हैं। सवाल ये है कि क्या वास्तव में लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, संजय निरुपम और इन जैसे नामी नेताओं के ब्लॉग के पाठक नहीं है? क्या इन राजनेताओं की साइबर जगत में उपस्थिति बेमानी है?
सवाल अहम हैं क्योंकि रैलियों में हज़ारों की भीड़ जुटाने वाले राजनेताओं को ब्लॉग पर यदि चार-छह टिप्पणियां भी नसीब नहीं हो रही हैं, तो साइबर कैंपेन का क्या अर्थ है ? हालांकि, ये मानना भी बेहद मुश्किल है कि कद्दावर नेताओं को इंटरनेट पर मुठ्ठी भर लोग भी पढ़ना-देखना नहीं चाहते। दरअसल, इंटरनेट पर इन दिग्गज नेताओं की बेहद सीमित लोकप्रियता का मामला कुछ हद तक अल्प तकनीकी समझ का परिणाम दिखती है। राजनीतिक ज़मीन से वर्चुअल दुनिया में प्रवेश करते ही एक गड़बड़झाला यह होता है कि यहां सिर्फ नाम से काम नहीं चलता। यहां सभी को अपनी उपस्थिति के बारे में प्रचार करना पड़ता है। इस प्रचार के लिए तमाम तकनीकी हथकंड़े अपनाने पड़ते हैं। इनमें दूसरी साइट अथवा ब्लॉग पर लिंक देने से लेकर एग्रीगेटर में ब्लॉग दर्ज कराने और मास ई-मेलिंग तक कई उपाय शामिल हैं।
वैसे भी ब्लॉग या साइट बना लेना मुश्किल काम नहीं है। मुश्किल है उसे प्रचारित करना। हिन्दी में ब्लॉग की शुरुआती लोकप्रियता एग्रीगेटर के जरिए हासिल की जा सकती है। लेकिन, अव्वल तो ज्यादातर राजनेताओं के ब्लॉग अंग्रेजी में हैं। आडवाणी जैसे नेताओं के ब्लॉग हिन्दी में भी हैं,तो वो एग्रीगेटर पर दर्ज नहीं हैं। आडवाणी का हिन्दी ब्लॉग उपेक्षित इतना कि हिन्दी साइट पर दिए ब्लॉग के लिंक पर क्लिक करने पर पहले अंग्रेजी ब्लॉग खुलता है। दूसरी तरफ, इंग्लिश ब्लॉग को भी शुरुआती पहचान दिलाने के लिए ब्लॉग डायरेक्टरी, डिग और स्टंबल अपोन जैसी सेवाओं की मदद ली जा सकती है। लेकिन, तमाम राजनीतिक हस्तियां ऐसा कर रही हैं-ऐसा लगता नहीं है।
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की तर्ज पर इंटरनेट के रथ पर सवार होकर जीत का एक सिरा पकड़ने की कोशिश में जुटे भारतीय पार्टियों और नेताओं को तकनीक के व्यवहारिक इस्तेमाल में काफी कवायद करने की आवश्यकता है। ओबामा ने सोशल नेटवर्किंग साइट्स के जरिए बड़ी तादाद में युवाओं को साथ जोड़ा। अमेरिकी चुनाव से पहले अक्टूबर में उनके फेसबुक समर्थकों की संख्या बीस लाख से ज्यादा थी। भारत में सभी नेताओं के सोशल नेटवर्किंग साइट्स समर्थकों की तादाद मिला भी दें तो भी दस हजार से ज्यादा नहीं होगी। ओबामा की समर्थकों की भारी फौज उनके संवाद स्थापित करने की निजी कोशिशों का परिणाम थीं।
इधर,भारत में साइबर कैंपेन की धुन तो राजनेताओं और पार्टियों पर सवार है,लेकिन तकनीकी त्रुटियों को लेकर वो ज्यादा गंभीर नहीं दिखते। मसलन,कांग्रेस पार्टी की आधिकारिक वेबसाइट का हिन्दी सेक्शन यूनिकोड में नहीं है। यानी हिन्दी साइट खुलते ही फॉन्ट डाउनलोड करने का विकल्प सामने आता है,और बिना फॉन्ट डाउनलोड किए साइट खोलने पर सारा पाठ्य गड़बड़ दिखायी देता है। कांग्रेस ने साइबर कैंपेन के लिए ‘वोटफॉरकांग्रेसडॉटइन’ साइट लांच की है,लेकिन 11 मार्च तक यह साइट एक्टिव नहीं थी। इसी तरह, शाहनवाज हुसैन की साइट पर ब्लॉग का लिंक है,लेकिन एक्टिव नहीं है। सवाल है कि क्या कोई पाठक इतनी जेहमत के बाद साइट देखने की कोशिश करेगा ?
हिन्दी तो शायद राजनेताओं की प्राथमिकता में ही नहीं है। सचिन पायलट,मिलिंद देवड़ा,ज्योतिरादित्य सिंधिया, मुरली मनोहर जोशी,शाहनवाज हुसैन समेत तमाम नेताओं की साइट इंग्लिश में है। समाजवादी पार्टी वेबसाइट के जरिए आम लोगों से जुड़ने की बात अपनी अधिकारिक साइट पर करती है,लेकिन साइट अंग्रेजी में है। देश के नौ करोड़ इंटरनेट उपयोक्ताओं में करीब 40 फीसदी उत्तर भारत में हैं,लेकिन हिन्दी भाषियों तक संदेश पहुंचाना इन राजनेताओं को जरुरी नहीं दिखता। अगर आपका वोटर हिन्दी प्रदेश का है,और उससे संवाद दूसरी भाषा में हो तो उसका असर कहां होगा ? मुमकिन है ज्यादातर नेताओं ने इंटरनेट पर अपनी उपस्थिति सिर्फ ब्रांडिंग के लिए दर्ज की हो। ऐसा है तो वो ‘टू वे मीडियम’ की ताकत को नजरअंदाज कर रहे हैं।
चुनावी मौसम में इंटरनेट समेत तमाम हाईटेक माध्यमों से प्रचार की धूम है। लेकिन,इन माध्यमों के वास्तविक लाभ के लिए आवश्यक रणनीति नदारद है। इंटरनेट पर वीडियो शेयरिंग साइटों पर सभी पार्टियों के वीडियों धड़ाधड़ अपलोड़ किए जा रहे हैं। लेकिन, ज्यादातर वीडियो रैलियों और नेताओं के भाषणों के हैं। क्या इंटरनेट उपयोक्ता रैलियों के वीडियो यूट्यूब पर देखना चाहते हैं? यूट्यूब वीडियो के लिए एक अलग कैंपेन डिजाइन किया जाना चाहिए था,जिसमें हल्के फुल्के अंदाज में पार्टियां अपनी बात कहतीं। इसी तरह, मोबाइल एसएमएस के लिए अलग कैंपेन डिजाइन किया जाना चाहिए।
इसमें कोई शक नहीं है कि हाईटेक प्रचार के मामले में बीजेपी कांग्रेस से दो कदम आगे हैं। यूट्यूब पर लालकृष्ण आडवाणी के वीडियो अपलोड करने के लिए एक अलग चैनल है। आडवाणी जी की साइट के प्रचार में भी करोड़ों रुपए खर्च किए गए। साइट का गूगल विज्ञापन पाकिस्तानी अखबार डॉन की साइट पर दिखने पर हंगामा भी मचा। इतना ही नहीं,अश्लील सामग्री वाली कुछ साइटों पर भी आडवाणी जी की साइट का विज्ञापन दिखने की बात कही गई। लेकिन,धुआंधार विज्ञापन के बावजूद क्या लक्ष्य उपयोक्ताओं से सीधा संवाद स्थापित हुआ है? आडवाणी जी के ब्लॉग पर जिन विषयों और जिस भाषा में लोगों से संवाद साधा गया है, वो नयी पीढ़ी को शायद ही आकर्षित कर पाए। साइबर कैंपेन की सफलता भी मीडियम से ज्यादा मैसेज में छिपी है। संदेश का असरदार होना जरुरी है। लेकिन,हाईटेक होने को बेताब राजनेता फिलहाल मीडियम के आकर्षण में ज्यादा बंधे दिखते हैं।
(ये लेख अमर उजाला में 19 मार्च को संपादकीय पेज पर प्रकाशित हो चुका है)
सवाल अहम हैं क्योंकि रैलियों में हज़ारों की भीड़ जुटाने वाले राजनेताओं को ब्लॉग पर यदि चार-छह टिप्पणियां भी नसीब नहीं हो रही हैं, तो साइबर कैंपेन का क्या अर्थ है ? हालांकि, ये मानना भी बेहद मुश्किल है कि कद्दावर नेताओं को इंटरनेट पर मुठ्ठी भर लोग भी पढ़ना-देखना नहीं चाहते। दरअसल, इंटरनेट पर इन दिग्गज नेताओं की बेहद सीमित लोकप्रियता का मामला कुछ हद तक अल्प तकनीकी समझ का परिणाम दिखती है। राजनीतिक ज़मीन से वर्चुअल दुनिया में प्रवेश करते ही एक गड़बड़झाला यह होता है कि यहां सिर्फ नाम से काम नहीं चलता। यहां सभी को अपनी उपस्थिति के बारे में प्रचार करना पड़ता है। इस प्रचार के लिए तमाम तकनीकी हथकंड़े अपनाने पड़ते हैं। इनमें दूसरी साइट अथवा ब्लॉग पर लिंक देने से लेकर एग्रीगेटर में ब्लॉग दर्ज कराने और मास ई-मेलिंग तक कई उपाय शामिल हैं।
वैसे भी ब्लॉग या साइट बना लेना मुश्किल काम नहीं है। मुश्किल है उसे प्रचारित करना। हिन्दी में ब्लॉग की शुरुआती लोकप्रियता एग्रीगेटर के जरिए हासिल की जा सकती है। लेकिन, अव्वल तो ज्यादातर राजनेताओं के ब्लॉग अंग्रेजी में हैं। आडवाणी जैसे नेताओं के ब्लॉग हिन्दी में भी हैं,तो वो एग्रीगेटर पर दर्ज नहीं हैं। आडवाणी का हिन्दी ब्लॉग उपेक्षित इतना कि हिन्दी साइट पर दिए ब्लॉग के लिंक पर क्लिक करने पर पहले अंग्रेजी ब्लॉग खुलता है। दूसरी तरफ, इंग्लिश ब्लॉग को भी शुरुआती पहचान दिलाने के लिए ब्लॉग डायरेक्टरी, डिग और स्टंबल अपोन जैसी सेवाओं की मदद ली जा सकती है। लेकिन, तमाम राजनीतिक हस्तियां ऐसा कर रही हैं-ऐसा लगता नहीं है।
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की तर्ज पर इंटरनेट के रथ पर सवार होकर जीत का एक सिरा पकड़ने की कोशिश में जुटे भारतीय पार्टियों और नेताओं को तकनीक के व्यवहारिक इस्तेमाल में काफी कवायद करने की आवश्यकता है। ओबामा ने सोशल नेटवर्किंग साइट्स के जरिए बड़ी तादाद में युवाओं को साथ जोड़ा। अमेरिकी चुनाव से पहले अक्टूबर में उनके फेसबुक समर्थकों की संख्या बीस लाख से ज्यादा थी। भारत में सभी नेताओं के सोशल नेटवर्किंग साइट्स समर्थकों की तादाद मिला भी दें तो भी दस हजार से ज्यादा नहीं होगी। ओबामा की समर्थकों की भारी फौज उनके संवाद स्थापित करने की निजी कोशिशों का परिणाम थीं।
इधर,भारत में साइबर कैंपेन की धुन तो राजनेताओं और पार्टियों पर सवार है,लेकिन तकनीकी त्रुटियों को लेकर वो ज्यादा गंभीर नहीं दिखते। मसलन,कांग्रेस पार्टी की आधिकारिक वेबसाइट का हिन्दी सेक्शन यूनिकोड में नहीं है। यानी हिन्दी साइट खुलते ही फॉन्ट डाउनलोड करने का विकल्प सामने आता है,और बिना फॉन्ट डाउनलोड किए साइट खोलने पर सारा पाठ्य गड़बड़ दिखायी देता है। कांग्रेस ने साइबर कैंपेन के लिए ‘वोटफॉरकांग्रेसडॉटइन’ साइट लांच की है,लेकिन 11 मार्च तक यह साइट एक्टिव नहीं थी। इसी तरह, शाहनवाज हुसैन की साइट पर ब्लॉग का लिंक है,लेकिन एक्टिव नहीं है। सवाल है कि क्या कोई पाठक इतनी जेहमत के बाद साइट देखने की कोशिश करेगा ?
हिन्दी तो शायद राजनेताओं की प्राथमिकता में ही नहीं है। सचिन पायलट,मिलिंद देवड़ा,ज्योतिरादित्य सिंधिया, मुरली मनोहर जोशी,शाहनवाज हुसैन समेत तमाम नेताओं की साइट इंग्लिश में है। समाजवादी पार्टी वेबसाइट के जरिए आम लोगों से जुड़ने की बात अपनी अधिकारिक साइट पर करती है,लेकिन साइट अंग्रेजी में है। देश के नौ करोड़ इंटरनेट उपयोक्ताओं में करीब 40 फीसदी उत्तर भारत में हैं,लेकिन हिन्दी भाषियों तक संदेश पहुंचाना इन राजनेताओं को जरुरी नहीं दिखता। अगर आपका वोटर हिन्दी प्रदेश का है,और उससे संवाद दूसरी भाषा में हो तो उसका असर कहां होगा ? मुमकिन है ज्यादातर नेताओं ने इंटरनेट पर अपनी उपस्थिति सिर्फ ब्रांडिंग के लिए दर्ज की हो। ऐसा है तो वो ‘टू वे मीडियम’ की ताकत को नजरअंदाज कर रहे हैं।
चुनावी मौसम में इंटरनेट समेत तमाम हाईटेक माध्यमों से प्रचार की धूम है। लेकिन,इन माध्यमों के वास्तविक लाभ के लिए आवश्यक रणनीति नदारद है। इंटरनेट पर वीडियो शेयरिंग साइटों पर सभी पार्टियों के वीडियों धड़ाधड़ अपलोड़ किए जा रहे हैं। लेकिन, ज्यादातर वीडियो रैलियों और नेताओं के भाषणों के हैं। क्या इंटरनेट उपयोक्ता रैलियों के वीडियो यूट्यूब पर देखना चाहते हैं? यूट्यूब वीडियो के लिए एक अलग कैंपेन डिजाइन किया जाना चाहिए था,जिसमें हल्के फुल्के अंदाज में पार्टियां अपनी बात कहतीं। इसी तरह, मोबाइल एसएमएस के लिए अलग कैंपेन डिजाइन किया जाना चाहिए।
इसमें कोई शक नहीं है कि हाईटेक प्रचार के मामले में बीजेपी कांग्रेस से दो कदम आगे हैं। यूट्यूब पर लालकृष्ण आडवाणी के वीडियो अपलोड करने के लिए एक अलग चैनल है। आडवाणी जी की साइट के प्रचार में भी करोड़ों रुपए खर्च किए गए। साइट का गूगल विज्ञापन पाकिस्तानी अखबार डॉन की साइट पर दिखने पर हंगामा भी मचा। इतना ही नहीं,अश्लील सामग्री वाली कुछ साइटों पर भी आडवाणी जी की साइट का विज्ञापन दिखने की बात कही गई। लेकिन,धुआंधार विज्ञापन के बावजूद क्या लक्ष्य उपयोक्ताओं से सीधा संवाद स्थापित हुआ है? आडवाणी जी के ब्लॉग पर जिन विषयों और जिस भाषा में लोगों से संवाद साधा गया है, वो नयी पीढ़ी को शायद ही आकर्षित कर पाए। साइबर कैंपेन की सफलता भी मीडियम से ज्यादा मैसेज में छिपी है। संदेश का असरदार होना जरुरी है। लेकिन,हाईटेक होने को बेताब राजनेता फिलहाल मीडियम के आकर्षण में ज्यादा बंधे दिखते हैं।
(ये लेख अमर उजाला में 19 मार्च को संपादकीय पेज पर प्रकाशित हो चुका है)
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