Sunday, May 30, 2010

काश! ये कहानी सच हो...लेकिन

स्काइपे पर मुझे अभी अभी एक महाशय ने ये संदेश भेजा है। काश!वास्तव में ऐसा होता। तो मैं एक झटके में करो़ड़पति बन जाता। लेकिन, नेट जालसाजी पर लिखते लिखते जान चुका हूं कि ये सच नहीं हो सकता। हालांकि, वक्त हुआ तो एक बार फिर पड़ताल करुंगा ताकि लेख को और तथ्यों के साथ लिख सकूं। अभी इस संदेश को ट्रांसलेट करने का न मन है, न वक्त। सो यूं ही दिए दे रहा हूं ताकि लोग सचेत हो सकें। क्योंकि पांच हजार मारे गए लोगों में आपके सरनेम का भी कोई न कोई होगा ही :-)


Hello Pandey,

I have tried to reach you on Skype phone, but your line was busy, so I decided to write you this message. I have been in search of someone with this last name "Pandey", so when I saw you online, I was pushed to contact you and see how best we can assist each other. I am YAQOOB Y. HASSAN, a Bank Officer here in U. A. E. I believe it is the wish of God for me to come across you now. I am having an important business discussion I wish to share with you which I believe will interest you, because it is in connection with your last name and you are going to benefit from it.

One Late Michael Pandey, a citizen of your country had a fixed deposit with my bank in 2004 for 60 calendar months, valued at US$26,700,000.00 (Twenty Six Million, Seven Hundred Thousand US Dollars) the due date for this deposit contract was last 22nd of February 2009. Sadly Michael was among the death victims in the May 26 2006 Earthquake disaster in Jawa, Indonesia that killed over 5,000 people. He was in Indonesia on a business trip and that was how he met his end. My bank management is yet to know about his death, I knew about it because he was my friend and I am his account officer. Michael did not mention any Next of Kin/ Heir when the account was opened, and he was not married and no children. Last week my Bank Management requested that Michael should give instructions on what to do about his funds, if to renew the contract. I know this will happen and that is why I have been looking for a means to handle the situation, because if my Bank Directors happens to know that Michael is dead and do not have any Heir, they will take the funds for their personal use, so I don't want such to happen. That was why when I saw your last name I was happy and I am now seeking your co-operation to present you as Next of Kin/ Heir to the account, since you have the same last name with him and my bank head quarters will release the account to you. There is no risk involved; the transaction will be executed under a legitimate arrangement that will protect you from any breach of law.

It is better that we claim the money, than allowing the Bank Directors to take it, they are rich already. I am not a greedy person, so I am suggesting we share the funds equal, 50/50% to both parties, my share will assist me to start my own company which has been my dream. Let me know your mind on this and please do treat this information as TOP SECRET. We shall go over the details once I receive your urgent response strictly through my personal email address, yygohassb8@gmail.com

We can as well discuss this on phone; let me know when you will be available to speak with me on Skype. Have a nice day and God bless. Anticipating your communication.

Yaqoob Y. Hassan.

Monday, May 24, 2010

ब्रिटनी स्पीयर्स के Twitter Queen बनने का मतलब

पॉप गायिका ब्रिटनी स्पीयर्स आखिरकार माइक्रोब्लॉगिंग साइट टविटर की रानी बन गईं। उन्होंने आज हॉलीवुड अभिनेता एस्टन कुचर को प्रशंसकों यानी फॉलोअर्स की संख्या के मामले में पीट दिया। ब्रिटनी स्पीयर्स अब संभवत: 50 लाख प्रशंसकों का आंकड़ा छूने वाली पहली महिला होंगी। क्योंकि, 49 लाख के बाद शुरु हुई जंग में ब्रिटनी स्पीयर्स कुचर से काफी आगे निकल गई हैं।

इस खबर को जानने के बाद अगर आप यह मानते हैं कि ब्रिटनी स्पीयर्स वास्तव में ट्विटर क्वीन बन गई हैं,तो आप गलत हैं। दरअसल, एस्टन और ब्रिटनी के बीच ट्विटर की लड़ाई के बीच एक बात अलग है। वो यह कि एस्टन कुचर न सिर्फ ट्विटर पर सबसे पहले दस लाख प्रशंसक जुटाने वाले पहले शख्स हैं,बल्कि वो पहले सेलेब्रिटी हैं,जिन्होंने ट्विटर की ताकत को अपनी पब्लिसिटी के जरिए भुनाया। कुचर लगातार प्रशंसकों से ट्विटर पर संवाद करते हैं, और घर परिवार से लेकर अपनी फिल्मों तक की बात ट्विटर पर करते हैं। वो एक सेलेब्रिटी हैं, लिहाजा चुनिंदा लोगों को फॉलो करते हैं। ये संख्या करीब 560 है।

दूसरी तरफ, ब्रिटनी स्पीयर्स ने ट्विटर की ताकत का इस्तेमाल करने के लिए एक टीम गठित की है, जो लगातार न सिर्फ ट्वीट करती है। बल्कि, उनके ट्वीट को कैसे ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जाए-इसके तरीके खोजती है। इसी रणनीति के तरह ब्रिटनी स्पीयर्स 4 लाख से ज्यादा लोगों को फॉलो करती हैं। वो खुद ट्वीट नहीं करतीं, इसलिए ट्विटर में अपनत्व का भाव नहीं रहता।

दरअसल, ब्रिटनी की इस जीत का मतलब यह है कि रणनीतिक तरीके से अब ट्विटर का इस्तेमाल हो रहा है। निजी स्तर से लेकर कॉरपोरेट स्तर तक अब माइक्रोब्लॉगिंग साइट ट्विटर के जरिए लोगों से संवाद करने की गुंजाइश खोजी जा रही है, और इसके लिए धन खर्च किया जा रहा है। अमेरिका में यह प्रचलन बहुत अधिक है,जबकि भारत में कई सेलेब्रिटी का एकाउंट पब्लिक रिलेशन कंपनियां संभाल रही हैं,तो कॉरपोरेट स्तर पर सोशल मीडिया मैनेजरों की नियुक्ति हो रही है।

लेकिन,सवाल सिर्फ फॉलोअर्स की संख्या का नहीं है। सवाल है कि ब्रिटनी स्पीयर्स-ओबामा-कुचर सरीखे लोग अपने ट्वीट के जरिए क्या कह रहे हैं। यही सवाल भारतीय हस्तियों पर भी लागू होता है। लेकिन, भारतीय ट्विटर हस्तियां अभी आंकड़ों के गणित में उलझी हैं। और उनसे अधिक मीडिया उलझा है इस आंकड़ों के जाल में,जो रोजाना बताता है कि सचिन के कितने फॉलोअर्स हैं और अमिताभ के कितने। या शाहरुख अभी भी ट्विटर के बादशाह हैं।

वैसे, जानकारी के लिए भारत में शशि थरुर ही अभी ट्विटर के शहंशाह हैं, क्योंकि शाहरुख या सचिन अभी उनकी तुलना में आधे प्रशंसक भी नहीं जुटा पाए हैं। शशि थरुर आठ लाख फॉलोअर्स पाने जा रहे हैं।

Monday, May 17, 2010

‘अलविदा फेसबुक’ कहना हो तो !

सोशल नेटवर्किंग साइट ‘फेसबुक’ के उपयोक्ताओं का एक देश बन जाए तो जनसंख्या के लिहाज से यह चीन और भारत के बाद दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा मुल्क होगा। आशय यह कि दुनिया भर में फेसबुक के उपयोक्ताओं की संख्या दिन दोगुनी गति से बढ़ रही है, और नेटवर्किंग-न्यूज-गेम्स समेत तमाम सुविधाओं वाले इस पैकेज को पूरी दुनिया अपना चुकी है। लेकिन, फेसबुक की बढ़ती लोकप्रियता के बीच नए खतरों की आशंकाओं ने एक बड़े तबके को इस प्लेटफॉर्म की उपयोगिता के बारे में सोचने को मजबूर कर दिया है।

हाल में इंटरनेट सुरक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली कंपनी वेरीसाइन की इकाई आईडिफेंस ने खुलासा किया कि करीब 15 लाख फेसबुक एकाउंट बिक्री के लिए उपलब्ध हैं। किर्लोस नाम के एक कथित हैकर ने इन खातों को ऑनलाइन बिक्री के लिए रखा। 10 मित्रों से कम संख्या वाले फेसबुक खाते 10 डॉलर और दस से अधिक मित्रों वाले एकाउंट 45 डॉलर में बेचने की बात कही गई। हालांकि, फेसबुक ने इस खुलासे को खारिज कर दिया लेकिन आईडिफेंस ने साफ कहा कि ऑनलाइन ठगी, स्पैम भेजने और डाटा चुराने वाले प्रोग्राम भेजने के उद्देश्य से इन एकाउंट्स को बेचा जा रहा है। ‘फेसबुक’ की प्राइवेसी सैटिंग्स का विवाद तो लगातार चल ही रहा है। फेसबुक में चंद दिन पहले कुछ ऐसे बग यानी कमियां उजागर हुई थीं, जिनके जरिए आसानी से प्राइवेसी सैटिंग्स को धता बताया जा सकता है। जानकारों के मुताबिक, फेसबुक के ऑनलाइन विज्ञापनों के जरिए उपयोक्ता के कंप्यूटर में सेंध लग सकती है। यहां उपलब्ध सैकड़ों प्रोफाइल फर्जी हैं, जिनका इस्तेमाल स्पैमर्स कर रहे हैं। फेसबुक आपकी जानकारी को तीसरी कंपनी के साथ बांट सकती है। हर बार साइट री-डिजाइन के साथ आपकी प्राइवेसी सैटिंग्स को कम स्तर पर ला सकती है यानी व्यवसायिक लाभ के लिए आपकी निजता को प्रभावित किया जा सकता है।

फेसबुक से तलाक के बढ़ते मामले, अपराधों में इस प्लेटफॉर्म की बढ़ती भूमिका और दफ्तरों में घटते उत्पादन घंटे से जुड़ी खबरें लगातार सुर्खियां बनती रही हैं। पचास करोड़ से अधिक उपयोक्ताओं वाली इस सोशल नेटवर्किंग साइट के इस्तेमाल की लत को फेसबुक एडिक्शन डिसॉर्डर के नाम से जाना जा रहा है।

लेकिन, सवाल फेसबुक की लत का नहीं, इससे दूर होने का है। फेसबुक का एक तबका निजता भंग होने से लेकर तमाम संभावित खतरों से बचने के उद्देश्य से इस प्लेटफॉर्म को अलविदा कहना चाहता है। पर क्या यह इतना आसान है? फेसबुक पर डिसेक्टिव एकाउंट और डिलीट एकाउंट का लिंक खोजना ही इतना कठिन है कि सैकड़ों लोग अपना खाता डिलीट करने का इरादा बदल देते हैं। दरअसल, नेट पर अपना आधिपत्य स्थापित करने में जुटी फेसबुक का साम्राज्य ग्राहकों की संख्या से ही निर्धारित हो रहा है, और इन्हीं के बूते फेसबुक को करोड़ों डॉलर का विज्ञापन मिल रहा है। फिर भी अगर आप फेसबुक को कभी अलविदा कहना चाहें तो एकाउंट सैटिंग्स में जाकर डिसेक्टिव एकाउंट का लिंक पा सकते हैं। हालांकि, इस लिंक पर क्लिक करते ही अचानक आपके फेसबुक मित्र इस संदेश के साथ प्रगट होंगे कि वो आपको मिस करेंगे। लेकिन, अगर आप एकाउंट को खत्म ही कर देना चाहते हैं तो आप फेसबुक के हेल्प सेंटर में जाकर सर्च बॉक्स में डिलीट एकाउंट सर्च कीजिए। याद रखिए डिलीट करने के बाद भी 14 दिनों तक आपका डाटा सुरक्षित रहेगा। इस दौरान आपने कभी भी फेसबुक में लॉगिन की कोशिश की तो एकाउंट एक्टिव हो जाएगा।

मतलब यह कि फेसबुक को अलविदा कहना आसान नहीं है। वैसे, थोड़ी सी जागरुकता के साथ सोशल नेटवर्किंग के इस सबसे लोकप्रिय माध्यम का भरपूर लाभ भी उठाया जा सकता है।

Friday, May 7, 2010

ध्यान दें- http://موقع.وزارة-الأتصالات.مصر

छह मई का दिन इंटरनेट के 40 साल के इतिहास में एक अहम दिन बनकर उभरा, लेकिन संभवत: उस ऐतिहासिक घटना को ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई। इंटरनेट कॉरपोरेशन फॉर असाइन्ड नेम्स एंड नंबर (आईसीएएनएन) ने आखिरकार अंग्रेजी से इतर यानी नॉन लैटिन भाषा में तीन डोमेन नामों को मंजूरी दे दी।

इनमें से एक को आप यहां देख सकते हैं- http://موقع.وزارة-الأتصالات.مصر

हालांकि पिछले साल तीस अक्टूबर को सिओल में हुई बैठक में आईसीएएनएन ने तय किया था कि लैटिन भाषा के अक्षरों के अलावा दुनिया के कई मुल्कों की भाषाओं में भी इंटरनेट पते लिखे जाएं। इंटरनेट के 40 साल के इतिहास में आईसीएएनएन का यह फैसला ऐतिहासिक साबित हो सकता है-ये बात तो तभी साबित हो गई थी, लेकिन अरबी भाषा में पहला यूआरएल देखकर अब इस बात को महसूस किया जा सकता है।

इसका अर्थ यह है कि अब देवनागिरी लिपी में भी जल्द ही वेब पते लिखे जाएंगे।

अंग्रेजी में महारथी माने जाने वाले शुरुआती भारतीय इंटरनेट उपभोक्ताओं को इसकी आवश्यकता महसूस कभी नहीं हुई। लेकिन, इंटरनेट के फलक के विस्तार के साथ भारतीयों खासकर ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों के बीच हिन्दी व दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं में इंटरनेट की जरुरत दिखायी देने लगी है। अब हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं में वेबसाइट्स बन रही हैं। यूनिकोड ने फॉन्ट की समस्या को भी बहुत हद तक दूर किया है। हिन्दी में सर्च इंजन वेबसाइट खोजने की सुविधा दे रहे हैं। देवनागरी लिपी के की-बोर्ड बाज़ार में मिलने लगे हैं। लेकिन, वेब पतों का अंग्रेजी में होना कई लोगों के लिए व्यवहारिक परेशानी रहा है, क्योंकि उन्हें रोमन लिपी में टाइप करना नहीं आता अथवा झंझट लगता है।

लेकिन, अरबी भाषा में डोमेन नेम को मंजूरी मिलने के बाद हिन्दी समेत कई भाषाओं में वेब एड्रेस लिखे दिखेंगे।
आंकड़ों के मुताबिक दुनिया के करीब 1.6 बिलियन इंटरनेट उपयोक्ताओं में आधे से ज्यादा अपनी प्राथमिक भाषा के रुप में अंग्रेजी का इस्तेमाल नहीं करते हैं। सिर्फ इस आंकड़े के बीच ही वेब एड्रेस में अंग्रेजी के प्रभुत्व के खत्म होने की दरकार समझी जा सकती है। हालांकि, चीन इस दिशा में पहले ही कदम उठा चुका है, जहां वेब पते चीनी भाषा लिखने की शुरुआत हो चुकी है। हान्यू पिनयिन सिस्टम के जरिए वेबसाइट चीनी भाषा के अक्षरों को लैटिन में ट्रांसलेट करती है। लेकिन, अंतरराष्ट्रीय मान्यता नहीं होने और कई दूसरी तकनीकी समस्याओं के चलते चीन की कोशिश पूरी तरह कामयाब नहीं हो पाई।

बहरहाल, अरबी भाषा में बनी मिस्र के सूचना मंत्रालय की इस साइट को देखने का अपना सुख है,क्योंकि इसका डोमेन नेम अंग्रेजी से इतर भाषा में लिखा गया है।

Tuesday, May 4, 2010

नीतीश से ह्यूगो तक सोशल मीडिया का फैलता दायरा

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो चावेज़ में क्या कोई समानता है? बिलकुल नहीं। सिवाय इसके कि दोनों राजनेता सत्तासीन हैं और लगभग एक वक्त में सोशल मीडिया की अहमियत से रुबरु हुए हैं। नीतीश कुमार ने आम लोगों से संवाद करने के लिए ब्लॉग का मंच चुना है, तो ह्यूगो ने माइक्रोब्लॉगिंग साइट ट्विटर का। आरंभिक दौर में इन दोनों का शानदार स्वागत हुआ है। नीतीश कुमार के ब्लॉग पर पाठकों की टिप्पणियां और ह्यूगो के ट्विटर खाते के ‘फॉलोअर्स’ इस बात की तस्दीक करते हैं। नीतीश की मुख्यमंत्री बालिका योजना पर लिखी पोस्ट पर तो करीब 700 टिप्पणियां आईं और मुख्यधारा के मीडिया में उनके ब्लॉग ने खासी सुर्खियां बटोरी। जबकि ह्यूगो ट्विटर पर अभी तक करीब पौने दो लाख प्रशंसक जोड़ चुके हैं।

लेकिन, बात नीतीश के ब्लॉग अथवा ह्यूगो के ट्विटर खाते की लोकप्रियता की नहीं है। सवाल है सोशल मीडिया के उपयोग को लेकर इनके उद्देश्य का। आखिर, नीतीश कुमार ब्लॉगिंग क्यों करना चाहते हैं? या ह्यूगो को अचानक ट्विटर पर आने की आवश्यकता क्यों पड़ी? ये सवाल इसलिए क्योंकि सोशल मीडिया के मंच को इन्होंने जिस वक्त चुना है, वो चुनावी फिजां के बनने का दौर है, जब राजनेताओं को प्रचार के लिए अलग अलग माध्यमों की दरकार होती है। ब्लॉग से लेकर ट्विटर तक सोशल मीडिया के मंच की खासियत यह है कि यहां अपनी उपलब्धियों के बखान से लेकर विरोधियों को साधने का काम आसानी से किया जा सकता है। इस दौरान पत्रकारों से टेड़े सवालों से बचा जा सकता है, जबकि राज्य या राष्ट्र प्रमुख होने के नाते मुख्यधारा का मीडिया आपकी बात को जगह देता ही है। उल्लेखनीय है कि बिहार में इस साल विधानसभा चुनाव होने हैं,जबकि वेनेजुएला में संभवत: अगले साल के आखिर में राष्ट्रपति पद के चुनाव होंगे।

सवाल यही है कि क्या नीतीश कुमार या ह्यूगो का सोशल मीडिया पर आना सिर्फ चुनावी रणनीति का हिस्सा भर है अथवा इन नए मंचों से दोनों का जनता से संवाद बरकरार रहेगा? ये आशंका फिजूल नहीं है। अमेरिका में सोशल मीडिया के रथ पर सवार होकर राष्ट्रपति बने बराक ओबामा की सफलता के बाद से भारतीय राजनीति में इन नए माध्यमों को ‘चमत्कार’ के रुप में देखा जा रहा है, लिहाजा चुनाव के वक्त अचानक ब्लॉग-साइट रुपी जिन्न बोतल से बाहर निकलते हैं।पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान हम इस तमाशे को देख चुके हैं, जब उम्मीदवारों ने सिर्फ इस मकसद से ब्लॉग-वेबसाइट बनाए कि वो जादू कर देंगे। लेकिन, चुनावी हल्ला खत्म हुआ तो ब्लॉग और वेबसाइट ढह गईं। इसका अर्थ यही है कि राजनेताओं ने सोशल मीडिया की अहमियत को पहचानने के बजाय इसे ‘अलादीन का जिन्न’ समझा।

ऐसे उदाहरणों की लंबी फेहरिस्त है। बीजेपी के दिग्गज नेता डॉ.मुरली मनोहर जोशी ने अपना ब्लॉग पिछले साल अक्टूबर के बाद अपडेट नहीं किया। बीजेपी के शाहनवाज हुसैन ने चुनावी फिजां में अपनी वेबसाइट बनवाई, जो आज बिगड़ी हालत में है। फिल्म निर्देशक प्रकाश झा ने चंपारण से चुनाव लड़ते वक्त जोरशोर से ब्लॉगिंग शुरु की, लेकिन आज उनका ब्लॉग भी ठंडा पड़ा है। राष्ट्रीय जनता दल अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव तो साल 2008 में ही ब्लॉगिंग का शौक फरमा कर भूल गए। कांग्रेस नेता एसएमकृष्णा और मल्लिका साराभाई जैसे तमाम दिग्गजों ने लोकसभा चुनावों के दौरान ट्विटरिंग शुरु की, लेकिन चुनावों के बाद सब शांत हो गया। यहां तक कि बीजेपी ने अपना ट्विटर एकाउंट शुरु किया था, जिसे पिछले साल जुलाई के बाद अपडेट नहीं किया गया। बात सिर्फ ब्लॉग, ट्विटर एकाउंट या निजी वेबसाइट की भी नहीं है। सूचना क्रांति के दौर में साइबर हाइवे पर राजनीतिक दलों का चेहरा यानी पार्टी की वेबसाइट्स को जिस तरह चुनावी फिजां के वक्त चमकाया गया, वो चुनाव खत्म होते ही उपेक्षित हो गईं। छोटे राजनीतिक दलों की बात क्या कहनी, बड़ी पार्टियों की साइट्स में कई त्रुटियां अथवा अधूरापन है। कांग्रेस की वेबसाइट पर पार्टी के लोकसभा सांसदों की सूची से शशि थरुर का नाम गायब है, तो बीजेपी की वेबसाइट पर ‘भंडाफोड़’ आंदोलन के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती। समाजवादी पार्टी की साइट तो आज भी जनेश्वर मिश्र को जीवित रखे हुए है। बिहार के दोनों प्रमुख दलों की बात करें तो राष्ट्रीय जनता दल की कोई आधिकारिक साइट नहीं है। पार्टी के सदस्यों द्वारा निजी स्तर पर चलाई जा रही एक साइट अवश्य है। इस पर रेल बजट जैसी पुरानी सूचनाएं होमपेज पर टंगी दिखती हैं, तो लालू प्रसाद यादव से संवाद का कोई जरिया नहीं दिखता। लेकिन, जनता दल यूनाइटेड की तो इंटरनेट पर कोई उपस्थिति नहीं दिखती। बिहार में विधानसभा चुनावों की आहट के बीच यदि लोग(खासकर राज्य के बाहर के) वहां की राजनीतिक पार्टियों के ज़िला स्तर के नेताओं का ठौर-ठिकाना जानना चाहेंगे तो सबसे पहले इंटरनेट पर ‘गूगल देवता’ की शरण में जाकर संबंधित जानकारी से जुड़े कुछ ‘की वर्ड’ टाइप करेंगे और प्रतीक्षा करेंगे वांछित सूचना के मॉनीटर पर चमकने की। लेकिन, राज्य की प्रमुख पार्टियों की आधाकारिक वेबसाइट ही नहीं है तो उनके क्षेत्रीय नेताओं से जुड़ी जानकारी तो दूर की कौड़ी है।

उल्लेखनीय है कि भारत में इस वक्त करीब आठ करोड़ इंटरनेट उपभोक्ता हैं,जो करीब 30 से 40 फीसदी की दर से प्रतिवर्ष बढ़ रहे हैं। इन उपभोक्ताओं की कुल तादाद का करीब 30-40 फीसदी ‘नॉन मेट्रो’ शहरों से है। इसके अलावा, भारत में करीब 50 करोड़ लोगों के पास मोबाइल फोन है, जिसमें एक तिहाई फोन पर इंटरनेट एक्सेस किया जा सकता है।

दरअसल, भारत में इंटरनेट के तेज़ी से बढ़ते इस्तेमाल के बावजूद राजनीतिक पार्टियों को इसकी अहमियत अभी तक ठीक से समझ नहीं आयी है। राजनेता या तो इस माध्यम को बकवास मान बैठते हैं या चमत्कारी। बात सिर्फ इंटरनेट पर एक साइट बनाने की नहीं है। इंटरनेट प्रचार का सशक्त माध्यम है। इसके जरिए राजनीति से दूर युवाओं को वोटर में तब्दील किया जा सकता है। साइट-ब्लॉग द्विगामी संवाद का जरिया भी बन सकते हैं। आखिर,दिल्ली में बैठकर क्यों कोई शख्स अपनी पसंदीदा पार्टी के छपरा-मधुबनी या किसी भी छोटे शहर के राजनेताओं से संपर्क नहीं साध सकता? आधुनिक युग में भी क्यों एक वोटर को विधायक या सांसद से अपनी बात कहने में मशक्कत करनी पड़ती है? लेकिन,ऐसा है क्योंकि पार्टियां इंटरनेट की ताकत का समुचित इस्तेमाल नहीं कर रहीं।

हालांकि, कुछ राजनेता निजी स्तर पर प्रयास कर रहे हैं। नीतीश कुमार भी इस फेहरिस्त में शामिल हो गए हैं। अंग्रेजी से ब्लॉगिंग की शुरुआत करने वाले नीतीश पाठकों की शिकायत के बाद हिन्दी में पोस्ट लिख रहे हैं। वो पाठकों की प्रतिक्रियाएं पढ़ रहे हैं और लोगों से संवाद कर रहे हैं-यह सक्रिय और समझदार ब्लॉगर के लक्षण हैं। लेकिन, एक मुख्यमंत्री का ब्लॉग बेहतर डिजाइन किया हुआ और व्यवस्थित होना चाहिए-जो नीतीश का नहीं है। लेकिन, बड़ा सवाल यह है कि क्या ब्लॉगर नीतीश चुनावों के बाद भी सक्रिय रहेंगे? दूसरी तरफ, ह्यूगो समझ चुके हैं कि वेनेजुएला में अब ट्विटर का बोलबाला है। इस छोटे से देश में दो लाख से ज्यादा सक्रिय ट्विटर उपयोक्ता हैं,और पिछले एक साल में वहां इनकी संख्या में 1000 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। ह्यूगो का कहना है कि वो सोशल मीडिया पर मुख्यत: विरोधियों के दुष्प्रचार का जवाब देने के लिए आए हैं।

बहरहाल,नीतीश से ह्यूगो तक सोशल मीडिया के अलग अलग औजारों का इस्तेमाल करने वाले राजनेताओं को समझना होगा कि यह चमत्कारी माध्यम नहीं है। हां, यह नया माध्यम आम लोगों (वोटरों) से उस संवाद की गुंजाइश बनाता है, जो विश्वसनीयता पैदा करने का काम कर सकती है। और इसमें कोई दो राय नहीं कि आज राजनीतिक दलों और राजनेताओं को इस ’क्रेडेबिलिटी’ की सख्त आवश्यकता है।