Tuesday, May 4, 2010

नीतीश से ह्यूगो तक सोशल मीडिया का फैलता दायरा

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो चावेज़ में क्या कोई समानता है? बिलकुल नहीं। सिवाय इसके कि दोनों राजनेता सत्तासीन हैं और लगभग एक वक्त में सोशल मीडिया की अहमियत से रुबरु हुए हैं। नीतीश कुमार ने आम लोगों से संवाद करने के लिए ब्लॉग का मंच चुना है, तो ह्यूगो ने माइक्रोब्लॉगिंग साइट ट्विटर का। आरंभिक दौर में इन दोनों का शानदार स्वागत हुआ है। नीतीश कुमार के ब्लॉग पर पाठकों की टिप्पणियां और ह्यूगो के ट्विटर खाते के ‘फॉलोअर्स’ इस बात की तस्दीक करते हैं। नीतीश की मुख्यमंत्री बालिका योजना पर लिखी पोस्ट पर तो करीब 700 टिप्पणियां आईं और मुख्यधारा के मीडिया में उनके ब्लॉग ने खासी सुर्खियां बटोरी। जबकि ह्यूगो ट्विटर पर अभी तक करीब पौने दो लाख प्रशंसक जोड़ चुके हैं।

लेकिन, बात नीतीश के ब्लॉग अथवा ह्यूगो के ट्विटर खाते की लोकप्रियता की नहीं है। सवाल है सोशल मीडिया के उपयोग को लेकर इनके उद्देश्य का। आखिर, नीतीश कुमार ब्लॉगिंग क्यों करना चाहते हैं? या ह्यूगो को अचानक ट्विटर पर आने की आवश्यकता क्यों पड़ी? ये सवाल इसलिए क्योंकि सोशल मीडिया के मंच को इन्होंने जिस वक्त चुना है, वो चुनावी फिजां के बनने का दौर है, जब राजनेताओं को प्रचार के लिए अलग अलग माध्यमों की दरकार होती है। ब्लॉग से लेकर ट्विटर तक सोशल मीडिया के मंच की खासियत यह है कि यहां अपनी उपलब्धियों के बखान से लेकर विरोधियों को साधने का काम आसानी से किया जा सकता है। इस दौरान पत्रकारों से टेड़े सवालों से बचा जा सकता है, जबकि राज्य या राष्ट्र प्रमुख होने के नाते मुख्यधारा का मीडिया आपकी बात को जगह देता ही है। उल्लेखनीय है कि बिहार में इस साल विधानसभा चुनाव होने हैं,जबकि वेनेजुएला में संभवत: अगले साल के आखिर में राष्ट्रपति पद के चुनाव होंगे।

सवाल यही है कि क्या नीतीश कुमार या ह्यूगो का सोशल मीडिया पर आना सिर्फ चुनावी रणनीति का हिस्सा भर है अथवा इन नए मंचों से दोनों का जनता से संवाद बरकरार रहेगा? ये आशंका फिजूल नहीं है। अमेरिका में सोशल मीडिया के रथ पर सवार होकर राष्ट्रपति बने बराक ओबामा की सफलता के बाद से भारतीय राजनीति में इन नए माध्यमों को ‘चमत्कार’ के रुप में देखा जा रहा है, लिहाजा चुनाव के वक्त अचानक ब्लॉग-साइट रुपी जिन्न बोतल से बाहर निकलते हैं।पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान हम इस तमाशे को देख चुके हैं, जब उम्मीदवारों ने सिर्फ इस मकसद से ब्लॉग-वेबसाइट बनाए कि वो जादू कर देंगे। लेकिन, चुनावी हल्ला खत्म हुआ तो ब्लॉग और वेबसाइट ढह गईं। इसका अर्थ यही है कि राजनेताओं ने सोशल मीडिया की अहमियत को पहचानने के बजाय इसे ‘अलादीन का जिन्न’ समझा।

ऐसे उदाहरणों की लंबी फेहरिस्त है। बीजेपी के दिग्गज नेता डॉ.मुरली मनोहर जोशी ने अपना ब्लॉग पिछले साल अक्टूबर के बाद अपडेट नहीं किया। बीजेपी के शाहनवाज हुसैन ने चुनावी फिजां में अपनी वेबसाइट बनवाई, जो आज बिगड़ी हालत में है। फिल्म निर्देशक प्रकाश झा ने चंपारण से चुनाव लड़ते वक्त जोरशोर से ब्लॉगिंग शुरु की, लेकिन आज उनका ब्लॉग भी ठंडा पड़ा है। राष्ट्रीय जनता दल अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव तो साल 2008 में ही ब्लॉगिंग का शौक फरमा कर भूल गए। कांग्रेस नेता एसएमकृष्णा और मल्लिका साराभाई जैसे तमाम दिग्गजों ने लोकसभा चुनावों के दौरान ट्विटरिंग शुरु की, लेकिन चुनावों के बाद सब शांत हो गया। यहां तक कि बीजेपी ने अपना ट्विटर एकाउंट शुरु किया था, जिसे पिछले साल जुलाई के बाद अपडेट नहीं किया गया। बात सिर्फ ब्लॉग, ट्विटर एकाउंट या निजी वेबसाइट की भी नहीं है। सूचना क्रांति के दौर में साइबर हाइवे पर राजनीतिक दलों का चेहरा यानी पार्टी की वेबसाइट्स को जिस तरह चुनावी फिजां के वक्त चमकाया गया, वो चुनाव खत्म होते ही उपेक्षित हो गईं। छोटे राजनीतिक दलों की बात क्या कहनी, बड़ी पार्टियों की साइट्स में कई त्रुटियां अथवा अधूरापन है। कांग्रेस की वेबसाइट पर पार्टी के लोकसभा सांसदों की सूची से शशि थरुर का नाम गायब है, तो बीजेपी की वेबसाइट पर ‘भंडाफोड़’ आंदोलन के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती। समाजवादी पार्टी की साइट तो आज भी जनेश्वर मिश्र को जीवित रखे हुए है। बिहार के दोनों प्रमुख दलों की बात करें तो राष्ट्रीय जनता दल की कोई आधिकारिक साइट नहीं है। पार्टी के सदस्यों द्वारा निजी स्तर पर चलाई जा रही एक साइट अवश्य है। इस पर रेल बजट जैसी पुरानी सूचनाएं होमपेज पर टंगी दिखती हैं, तो लालू प्रसाद यादव से संवाद का कोई जरिया नहीं दिखता। लेकिन, जनता दल यूनाइटेड की तो इंटरनेट पर कोई उपस्थिति नहीं दिखती। बिहार में विधानसभा चुनावों की आहट के बीच यदि लोग(खासकर राज्य के बाहर के) वहां की राजनीतिक पार्टियों के ज़िला स्तर के नेताओं का ठौर-ठिकाना जानना चाहेंगे तो सबसे पहले इंटरनेट पर ‘गूगल देवता’ की शरण में जाकर संबंधित जानकारी से जुड़े कुछ ‘की वर्ड’ टाइप करेंगे और प्रतीक्षा करेंगे वांछित सूचना के मॉनीटर पर चमकने की। लेकिन, राज्य की प्रमुख पार्टियों की आधाकारिक वेबसाइट ही नहीं है तो उनके क्षेत्रीय नेताओं से जुड़ी जानकारी तो दूर की कौड़ी है।

उल्लेखनीय है कि भारत में इस वक्त करीब आठ करोड़ इंटरनेट उपभोक्ता हैं,जो करीब 30 से 40 फीसदी की दर से प्रतिवर्ष बढ़ रहे हैं। इन उपभोक्ताओं की कुल तादाद का करीब 30-40 फीसदी ‘नॉन मेट्रो’ शहरों से है। इसके अलावा, भारत में करीब 50 करोड़ लोगों के पास मोबाइल फोन है, जिसमें एक तिहाई फोन पर इंटरनेट एक्सेस किया जा सकता है।

दरअसल, भारत में इंटरनेट के तेज़ी से बढ़ते इस्तेमाल के बावजूद राजनीतिक पार्टियों को इसकी अहमियत अभी तक ठीक से समझ नहीं आयी है। राजनेता या तो इस माध्यम को बकवास मान बैठते हैं या चमत्कारी। बात सिर्फ इंटरनेट पर एक साइट बनाने की नहीं है। इंटरनेट प्रचार का सशक्त माध्यम है। इसके जरिए राजनीति से दूर युवाओं को वोटर में तब्दील किया जा सकता है। साइट-ब्लॉग द्विगामी संवाद का जरिया भी बन सकते हैं। आखिर,दिल्ली में बैठकर क्यों कोई शख्स अपनी पसंदीदा पार्टी के छपरा-मधुबनी या किसी भी छोटे शहर के राजनेताओं से संपर्क नहीं साध सकता? आधुनिक युग में भी क्यों एक वोटर को विधायक या सांसद से अपनी बात कहने में मशक्कत करनी पड़ती है? लेकिन,ऐसा है क्योंकि पार्टियां इंटरनेट की ताकत का समुचित इस्तेमाल नहीं कर रहीं।

हालांकि, कुछ राजनेता निजी स्तर पर प्रयास कर रहे हैं। नीतीश कुमार भी इस फेहरिस्त में शामिल हो गए हैं। अंग्रेजी से ब्लॉगिंग की शुरुआत करने वाले नीतीश पाठकों की शिकायत के बाद हिन्दी में पोस्ट लिख रहे हैं। वो पाठकों की प्रतिक्रियाएं पढ़ रहे हैं और लोगों से संवाद कर रहे हैं-यह सक्रिय और समझदार ब्लॉगर के लक्षण हैं। लेकिन, एक मुख्यमंत्री का ब्लॉग बेहतर डिजाइन किया हुआ और व्यवस्थित होना चाहिए-जो नीतीश का नहीं है। लेकिन, बड़ा सवाल यह है कि क्या ब्लॉगर नीतीश चुनावों के बाद भी सक्रिय रहेंगे? दूसरी तरफ, ह्यूगो समझ चुके हैं कि वेनेजुएला में अब ट्विटर का बोलबाला है। इस छोटे से देश में दो लाख से ज्यादा सक्रिय ट्विटर उपयोक्ता हैं,और पिछले एक साल में वहां इनकी संख्या में 1000 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। ह्यूगो का कहना है कि वो सोशल मीडिया पर मुख्यत: विरोधियों के दुष्प्रचार का जवाब देने के लिए आए हैं।

बहरहाल,नीतीश से ह्यूगो तक सोशल मीडिया के अलग अलग औजारों का इस्तेमाल करने वाले राजनेताओं को समझना होगा कि यह चमत्कारी माध्यम नहीं है। हां, यह नया माध्यम आम लोगों (वोटरों) से उस संवाद की गुंजाइश बनाता है, जो विश्वसनीयता पैदा करने का काम कर सकती है। और इसमें कोई दो राय नहीं कि आज राजनीतिक दलों और राजनेताओं को इस ’क्रेडेबिलिटी’ की सख्त आवश्यकता है।

1 comment:

  1. राजनेता ,वो भी आज के और जनता के साथ ईमानदारी से संवाद ? ऐसा ना मुमकिन है /देखते हैं आगे क्या होता है /

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