अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के पूर्व कर्मचारी एडवर्ड स्नोडेन के खुलासों से तिलमिलाए अमेरिका की मुसीबत कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। एक तरफ, स्नोडेन अमेरिका की गिरफ्त से लगातार बाहर बना हुआ है, तो दूसरी तरफ स्नोडेन द्वारा लीक जानकारियों से नए नए राज़ सामने आ रहे हैं। जर्मनी की पत्रिका डेयर स्पिगल के मुताबिक स्नोडेन के दस्तावेजों से खुलासा हुआ है कि अमेरिका ने वाशिंगटन, न्यूयॉर्क और ब्रूसेल्स में ईयू के दफ्तरों पर इलेक्ट्रॉनिक निगरानी और कंप्यूटर नेटवर्क हैक किए। इस खुलासे से नाराज यूरोपियन यूनियन ने अमेरिका से सफाई माँगी है। द गार्जियन ने इस खुलासे को नया आयाम दे दिया है। गार्जियन के मुताबिक राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी के जासूसी के लिए लक्ष्य 38 ठिकानों में भारतीय दूतावास भी शामिल था। अमेरिकी सरकार इन आरोपों पर अब चुप्पी साधे है।
अमेरिका के लिए बड़ी परेशानी स्नोडेन को वापस देश लाना है, जिस पर जासूसी, सरकारी डाटा चुराने और अनाधिकृत लोगों तक खुफिया सूचना पहुंचाने का आरोप है। बीती 13 मई को अमेरिकी जासूसी के बाबत खुलासों के साथ स्नोडेन हॉगकांग पहुंच गया था, जहां से वह रूस पहुंच गया। स्नोडेन अब इक्वाडोर में राजनीतिक शरण चाहता है।
एडवर्ड स्नोडेन का प्रत्यर्पण अब एक कूटनीतिक मसला बन गया है। अमेरिका की हांगकांग से प्रत्यपर्ण संधि होने के बावजूद स्नोडेन वहां से रूस जाने में कामयाब हुआ, जिसे लेकर अमेरिका खफा है। लेकिन, इसे हॉंगकॉंग पर चीन के प्रभाव के नतीजे के रुप में देखा जा रहा है, जो अमेरिकी जासूसी की कारगुजारी के खुलासे को अपनी कूटनीतिक बढ़त रुप में देख रहा है। अमेरिका द्वारा दुनिया भर के देशों में साइबर जासूसी को अंजाम देने के खुलासे के बाद चीन को पलटवार का मौका मिल गया है, जिसे साइबर जासूसी के लिए कुख्यात माना जाता है। एडवर्ड स्नोडेन 23 जून से कथित तौर पर रूस में हैं, लेकिन रूस अमेरिकी दादागिरी के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने वाली ताकत की प्रतिष्ठा के साए में स्नोडेन रूपी हड्डी को न सहजता से उगल सकता है, न निगल सकता है।
स्नोडेन की कहानी को रोज़ पुष्ट-अपुष्ट सूचनाएं और बयान नया रंग दे रहे हैं। फिलहाल, स्नोडेन मसले पर गेंद रूस और इक्वाडोर के पाले में है, क्योंकि उन्हें अब फैसला लेना है। इक्वाडोर के राष्ट्रपति राफेल कोर्रिया कह चुके हैं कि राजनीतिक शरण के लिए आवेदन देने की प्रक्रिया इक्वाडोर के इलाके में रहकर ही की जा सकती है, जो अभी तक नहीं की गई है।
निश्चित रुप से एडवर्ड स्नोडेन एक कूटनीतिक मसला बन गए हैं और उनके संदिग्ध भविष्य पर क्या फैसला होता है, ये देखना दिलचस्प होगा। लेकिन, सवाल स्नोडेन के प्रत्यर्पण से आगे का है। सवाल अमेरिका के उस जासूसी कार्यक्रम का है, जिस पर बहस स्नोडेन के साये में दब गई है?
गौरतलब है कि ब्रिटिश अखबार गार्जियन को दिए एक साक्षात्कार में स्नोडेन ने अमरीका के दो कार्यक्रमों के बारे में बताया था। एक कार्यक्रम के जरिए एनएसए लाखों करोड़ों फोन कॉल के ब्यौरे जमा करता है। एनएसए इसके जरिए यह जानने की इच्छा रखता है कि संदिग्ध आतंकवादी अमेरिका में किन लोगों के संपर्क में हैं। दूसरा कार्यक्रम प्रिज्म था, जिसमें नौ बड़ी इंटरनेट कंपनियों के सर्वरों पर खुफिया एजेंसी की सीधी पहुंच थी। प्रिज्म के जरिए अमेरिका विदेशों में बैठे इंटरनेट उपयोक्ताओं तक नजर रखे हुए था। इस खुलासे के बाद दुनिया के कई मुल्क साइबर दुनिया में अपनी निजता को लेकर आशंकित और चिंतित हैं। लेकिन, स्नोडेन के मसले पर वह गंभीर बहस सिरे से नदारद दिख रही है।
ऐसा नहीं है कि अमेरिकी खुफिया एजेंसी और संघीय जाँच एजेंसी ने साइबर दुनिया में जासूसी का काम अभी शुरु किया है, लेकिन अति गोपनीय ‘प्रिज्म’ के बाबत खुलासे ने साफ कर दिया कि साइबर दुनिया की नौ बड़ी कंपनियां बाकायदा जाँच एजेंसियों की साझेदार हैं। ब्रिटिश समाचार पत्र ‘गार्जियन और अमेरिकी समाचार पत्र ‘वाशिंगटन पोस्ट’ ने स्नोडेन से प्राप्त दस्तावेजों के आधार पर इस सनसनीखेज खुलासे को सार्वजनिक किया था।
प्रिज़्म की शुरुआत पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के वारंटमुक्त घरेलू निगरानी कार्यक्रम की राख से हुआ, जिसे 2007 में मीडिया ने सार्वजनिक कर दिया था। इसके बाद 2007 के प्रोटेक्ट अमेरिका एक्ट और फीसा (फॉरेन एंटेलीजेंस सरविलेंस एक्ट) अमेंडमेंट एक्ट 2008 के साए में प्रिज़्म का जन्म हुआ। गार्जियन की रिपोर्ट के मुताबिक बिल गेट्स की माइक्रोसॉफ्ट सबसे पहले 11 सितंबर 2007 को इस कार्यक्रम का हिस्सा बनी। इसके बाद याहू, गूगल, फेसबुक आदि। सबसे आखिर में यानी अक्टूबर 2012 में एपल इस कार्यक्रम में शामिल हुई।
रिपोर्ट के मुताबिक प्रिज्म के तहत एनएसए माइक्रोसॉफ्ट, याहू, गूगल, फेसबुक, पालटॉक, एओएल,स्काइप,यूट्यूब और एपल के सर्वरों से सीधे सूचनाएं हासिल कर रही है। इस कार्यक्रम पर अमेरिकी सरकार बीस लाख डॉलर से ज्यादा सालाना खर्च कर रही है। गार्जियन ने यह भी खुलासा किया था कि ब्रिटेन की खुफिया एजेंसी जीसीएचक्यू भी अमेरिकी ऑपरेशन का हिस्सा है।
अमेरिका ने आतंकवादी गतिविधियों पर रोक के लिए प्रिज्म को आवश्यक बताया है। हाल में भारत दौर पर आए अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी ने इस कार्यक्रम को आवश्यक करार दिया था। लेकिन, सवाल है कि क्या निजता के अधिकार का कोई मतलब है या नहीं।
प्रिज्म के खुलासे के बाद साख का संकट अमेरिका सरकार के साथ इंटरनेट कंपनियों के सामने भी है। दिलचस्प है कि ‘विकिलिक्स’ के संस्थापक जूलियन असांजे ने रशियन टुडे को दिए एक साक्षात्कार में कहा था कि फेसबुकअमेरिकी खुफिया एजेंसियों के लिए दुनिया की सबसे बेहतरीन जासूसी मशीन है। असांजे ने कहा था, “सिर्फ फेसबुक ही नहीं, बल्कि गूगल और याहू जैसी तमाम बड़ी कंपनियों ने अमेरिकी खुफिया एजेंसियों के लिए ‘बिल्ट-इन इंटरफेस’ निर्मित कर दिए हैं।” साल 2011 में अमेरिकी कंज्यूमर वाचडॉग ने लॉस्ट इन द क्लाउड : गूगल एंड द यूएस गवर्नमेंट नाम से एक रिपोर्ट जारी कर कहा था कि गूगल एनएसए के साथ “अनुचित खुफिया रिश्ते” निभा रहा है और इसका लाभ उसे मिल रहा है।
फिलहाल, प्रिज्म के बाबत खुलासे के कुछ निहितार्थ अवश्य हैं। पहला, अमेरिका को अब कई मुल्कों को इस बाबत जवाब देना पड़ेगा और अपनी कूटनीतिक चतुराई को स्पष्ट करना होगा। चीन साइबर जासूसी के मसले पर अब अमेरिकी आरोपों को आसानी से नहीं सुनेगा। सिलिकॉन घाटी की कई इंटरनेट कंपनियां अब दूसरा ठिकाना खोज सकती हैं, जो इस आशंका से भयभीत हैं कि उनका व्यवसाय इस बात से प्रभावित हो सकता है कि वे सरकार के निकट हैं। प्रिज्म कार्यक्रम कुछ दिनों के लिए प्रभावित हो सकता है। इसके अलावा फेसबुक और गूगल जैसी कंपनियों के क्षेत्रीय स्तर पर कुछ विकल्प उभर सकते हैं।
इंटरनेट पर बहुत हद तक अभी भी अमेरिकी नियंत्रण है और अधिकांश बड़ी इंटरनेट कंपनियां अमेरिकी हैं। वे मूलत: वहां के कानूनों से संचालित होती हैं,लिहाजा सवाल भारत व अन्य देशों का है कि वे साइबर दुनिया में अपनी निजता को कैसे बचाते हैं। चिंतानजक बात यही है कि हमने भी बिना गंभीर विचार-विमर्श अमेरिका के साइबर जासूसी कार्यक्रम को समर्थन दे डाला है।
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