सूचना तकनीक की दुनिया में क्रांतिकारी बदलाव लाने वाला इंटरनेट 2010 के नोबेल शांति पुरस्कारों के दावेदारों में एक है। इंटरनेट का नाम मशहूर पत्रिका ‘वायर्ड’ के इतावली संस्करण की तरफ से भेजा गया है, जिसे अमेरिकी और ब्रिटिश संस्करणों ने सहमति दी है। लेकिन, क्या इंटरनेट को इस पुरस्कार से नवाजा जाना चाहिए? ये सवाल इसलिए क्योंकि इंटरनेट को यह पुरस्कार दिलाने की मुहिम शुरु हो चुकी है। इस कैंपेन को 2003 की नोबेल विजेता शिरीन इबादी और मशहूर इतावली सर्जन अंबेर्तो वेरोनेसी का समर्थन तो मिला ही है, साथ ही सोनी एरिक्सन से लेकर माइक्रोसॉफ्ट इटली तक दर्जनों कंपनियों का समर्थन भी प्राप्त है।
इंटरनेट को नामांकित करने वाले ‘वायर्ड इटली’ के मेनीफेस्टो के मुताबिक-“डिजीटल संस्कृति ने एक नए समाज की नींव रखी है। और ये समाज संचार के जरिए संवाद,बहस और सहमति को बढ़ावा दे रहा है। लोकतंत्र हमेशा वहीं फलता-फूलता है,जहां खुलापन,स्वीकार्यता,बहस और भागीदारी की गुंजाइश होती है। मेल-मिलाप हमेशा घृणा और झगड़े के ‘एंटीडॉट’ के रुप में काम करता है,लिहाजा इंटरनेट शांति का एक महत्वपूर्ण औजार है और इसीलिए शांति का नोबेल पुरस्कार इंटरनेट को दिया जाना चाहिए।"
निसंदेह इंटरनेट ने दुनिया के सोचने-समझने का ढंग बदला है। इसकी उपयोगिता का फलक बेहद विस्तृत है। दुनियाभर में लोगों के क्षण भर में आपस में जुड़ने से लेकर सूचना और ज्ञान के विशाल खजाने तक एक क्लिक के जरिए पहुंचने जैसे हज़ारों उदाहरण हैं। इरान में राष्ट्रपति चुनावों के दौरान हुई कथित धांधली से लेकर मुंबई में हुए आतंकवादी हमलों और हैती में आए विनाशकारी भूकंप समेत कई मौकों पर लाखों लोगों ने फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉग का इस्तेमाल कर दुनिया तक अपनी बात पहुंचाई। बावजूद इसके क्या इंटरनेट शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए योग्य है?
इंटरनेट का शांति के नोबेल पुरस्कारों के लिए नामांकन एक बहस की मांग करता है। भारत से भी इस बहस का एक सिरा इस मायने में जुड़ता है कि यहां नेट उपयोक्ताओं की संख्या 8 करोड़ पार हो चुकी है। इंटरनेट के सैकड़ों लाभ लेता भारतीय उपयोक्ता भी ‘इंटरनेट फॉर पीस’ कैंपेन का हिस्सा बन सकता है,जिसे अब बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नेतृत्व में परवान चढ़ना है। लेकिन, सवाल सिर्फ इस कैंपेन का हिस्सा बनने का नहीं है। सवाल इंटरनेट के इस लब्धप्रतिष्ठित पुरस्कार के नामांकन के पीछे की कहानी का है।
इंटरनेट की उपयोगिता अगर असीमित है,तो इसके खतरे भी कम नहीं हैं। पोर्नोग्राफी को नेट ने खासा बढ़ावा दिया। निजी सूचनाएं सार्वजनिक होने का बड़ा खतरा मंडरा रहा है। फिर, साइबर आतंकवाद को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है? साल 2007 में अमेरिका के पेंटागन की ई-मेल प्रणाली और वर्ल्ड बैंक की वित्तीय सूचना प्रणाली में साइबर घुसपैठ अगर पूरी तरह सफल रहती तो भयंकर नुकसान हो सकता था। सीईआरटी के मुताबिक साल 2009 में भारत में ही 6000 वेबसाइट्स पर साइबर हमला हुआ। दिलचस्प यह कि अगर इंटरनेट की वजह से शांति को बढ़ावा मिल रहा होता तो गूगल के चीन छोड़ने की धमकी के बाद अमेरिका-चीन आमने-सामने न खड़े होते। चीन समेत कई मुल्कों में सेंसरशिप इस फिलोसफी पर भी बट्टा लगाती है कि इंटरनेट समाज में खुलापन, स्वीकार्यता और बहस की गुंजाइश पैदा करता है।
ऐसा नहीं है कि नोबेल शांति पुरस्कार हमेशा किसी व्यक्ति को ही दिया गया हो। 2007 में अल गोर और इंटरगोवर्नमेंट ऑन क्लामेट चेंज(आईपीसीसी), 2006 में मोहम्मद युनूस और ग्रामीण बैंक, 2001 में संयुक्तर राष्ट्र और कोफी अन्नान और 1999 में डॉक्टर्स विदआउट बॉर्डर्स को दिया जा चुका है। यानी संस्थाओं को उल्लेखनीय कार्य के लिए नोबेल पुरस्कार मिलता रहा है, लेकिन इंटरनेट तो संस्था भी नहीं है। पारिभाषिक शब्दावली में इंटरनेट महज छोटे-छोटे कंप्यूटर नेटवर्क्स को मिलाकर बना एक बड़ा नेटवर्क है। वर्ल्ड वाइड वेब(डब्लूडब्लूडब्लू) भी कई सेवाओं को प्लेटफॉर्म देने वाली एक सर्विस है। इस प्लेटफॉर्म पर ई-मेल,सोशल नेटवर्किंग साइट्स, ई-बैकिंग आदि तमाम सुविधाएं संचालित होती हैं।
इन किंतु-परंतु के बावजूद इंटरनेट शांति के नोबेल पुरस्कारों के मजबूत दावेदारों में उभर सकता है। वजह-इसके पक्ष में होने वाला कैंपेन। नोबेल पुरस्कारों की घोषणा अक्टूबर 2010 में होगी, और वायर्ड पत्रिका की तरफ से सितंबर तक मुहिम चलायी जाएगी। इंटरनेट को नोबेल पुरस्कार मिले अथवा न मिले-वायर्ड पत्रिका के लिए यह दोनों हाथ में लड्डू सरीखा है। वायर्ड पत्रिका का मकसद महज कैंपेन का सफल बनाना है और इसमें वो सफल भी होगी।
दरअसल, दुनिया की मशहूर पत्रिकाओं में शुमार वायर्ड मंदी के दौर में खासी प्रभावित हुई है। पिछले साल इस पत्रिका के विज्ञापन राजस्व में लगातार कमी हुई। पब्लिशर्स इनफोरमेशन ब्यूरो के आंकड़े के मुताबिक 2009 की पहली तिमाही में तो पत्रिका के विज्ञापन राजस्व में 50.4 फीसदी की गिरावट आई। यह हाल पूरे साल रहा। क्रिस एंडरसन के संपादन में निकलने वाली इस पत्रिका को लेकर मशहूर स्तंभकार स्टीफेनी क्लीफोर्ड ने न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा भी- ‘तीन नेशनल मैग्जीन अवॉर्ड जीतने वाली वायर्ड का करिश्मा विज्ञापन जुटाने में नाकाम रहा और 2009 में विज्ञापन राजस्व 50 फीसदी तक गिर गया।‘ मंदी से जूझते हुए पत्रिका ने बड़ी संख्या में अपने कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखाया। इसी वक्त, कंपनी के सामने इटली और ब्रिटेन में पत्रिका शुरु करने का दबाव था,जहां काफी निवेश किया जा चुका था। इस कड़ी में 18 फरवरी 2009 को वायर्ड के इतावली संस्करण की शुरुआत हुई। फिर अप्रैल में ब्रिटिश संस्करण की। वायर्ड पत्रिका इन दोनों देशों में अमेरिकी संस्करण का रुपांतरित संस्करण नहीं निकालना चाहती थी, लिहाजा कंटेंट को पूरी तरह अलग रखा गया। बावजूद इसके, वायर्ड के इतावली और ब्रिटिश संस्करण को कोई करिश्माई कामयाबी नहीं मिली है।
वायर्ड ने इंटरनेट को शांति के नोबल पुरस्कारों के लिए नामांकित कर एक तीर से कई निशाने साधे हैं। दुनियाभर में इस खबर के बाद अचानक सुर्खियों में आई पत्रिका ने खासी पब्लिसिटी बटोरी। इंटरनेट को अवॉर्ड दिलाने की मुहिम अब अगले छह-सात महीनों तक जारी रहेगी। यानी बिक्री में बढ़ोतरी होने की संभावना बढ़ेगी और बड़ी संख्या में लोग पत्रिका के नेट संस्करण तक पहुंचेंगे। वायर्ड उन चुनिंदा पत्रिकाओं में है,जिसका नेट संस्करण खासा कमाऊ रहा है। अमेरिका में वायर्डडॉटकॉम टॉप 200 वेबसाइट्स में एक है। इतावली संस्करण को इस कैंपेन का अगुआ बनाकर पत्रिका ने कई कंपनियों से ‘टाइ-अप’ करने में कामयाबी पाई है,जो उसके लिए विज्ञापनों का बड़ा स्रोत बनेंगे। सिर्फ इटली में ही नहीं, अमेरिका और ब्रिटेन में भी।
जानकारों का मानना है कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को जिस तरह अवॉर्ड कमिटी ने शांति के नोबेल पुरस्कारों के लिए चुना, उसके बाद इंटरनेट का चुनाव नामुमकिन नहीं है। क्योंकि,कमिटी के लिए अब ‘परसेप्शन’ महत्वपूर्ण हो गया है। दिलचस्प है कि जुलाई 2009 में इरान में राष्ट्रपति चुनाव के दौरान माइक्रोब्लॉगिंग साइट ट्विटर के योगदान के बीच अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मार्क पफेल ने ट्विटर के संस्थापकों को नोबेल शांति पुरस्कार देने की मांग की थी। सरकार में बैठे कुछ आला अधिकारियों ने उनकी मांग का समर्थन भी किया था। लेकिन इस बार तो वायर्ड ने बाकायदा रणनीति के तहत कैंपेन शुरु किया है।
दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित नोबेल शांति अवॉर्ड के लिए इंटरनेट के पक्ष में कैंपेन एक व्यवसायिक कवायद है। हालांकि, अवॉर्ड के लिए इंटरनेट की राह आसान नहीं हैं,लेकिन वायर्ड को तो सिर्फ कैंपेन की सफलता से मतलब है। फिर, इंटरनेट पर ही इन दिनों एक चुटकुला चल निकला है, नेट को नोबेल का शांति पुरस्कार मिल भी गया तो लेने आएगा कौन?
It begins with self
4 days ago
it's a great post
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EINDIAWEBGURU
मै भी आप से सहमत हूँ
ReplyDeleteमुझे लगता है कि सारी कवायदें सिर्फ पुरस्कार पर आकर ही खत्म हो जाती हैं।
ReplyDeleteaati uttam
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