बुधवार यानी 28 अक्टूबर को सब टीवी पर प्रसारित लापतागंज का तीसरा एपिसोड देखा तो एक छोटे से शब्द ने दिल खुश कर दिया। शब्द था-लबड़याए। धारावाहिक के मुख्य किरदार मुकंदी लाल गुप्ता की पत्नी घर के बीच में चावल की बोरी पर गिरे पति से दो टूक कहती है- तुम कहां बीच में ही लबड़याए रहे हो...सोना है तो बिस्तर पर सोओ। पूरी तरह याद नहीं है, लेकिन ये एपिसोड शरद जोशी के संभवत: डेमोक्रेसी नामक निबंध का रुपांतरण था, जिसमें वोट की ताकत से अंजान लोगों की वोट डालने में दिलचस्पी नहीं है, और जिन चंद लोगों की दिलचस्पी है भी, उन्हें वोट डालना नसीब नहीं होता, क्योंकि या तो उनके वोट पहले ही डाल दिए जाते हैं या फिर वोटर लिस्ट में उनका नाम नहीं होता।
लब्धप्रतिष्ठ व्यंग्यकार शरद जोशी के व्यंग्य पर आधारित सीरियल लापतागंज की पिछली तीन कड़ियों को देखकर शिद्दत से अहसास होता है कि टेलीविजन पर बन चुके कॉमेडी के बड़े बाजार में विशुद्ध व्यंग्य के लिए न केवल जगह है, बल्कि विज्ञापन भी हैं। अच्छी बात यह है कि इन व्यंग्यों को स्क्रिप्ट में परिवर्तित करते हुए थोड़ा बहुत परिवर्तन किया है लेकिन वो आज की परिस्थतियों आवश्यक मालूम पड़ता है। मसलन-बुधवार के एपिसोड में वोट डालने को इच्छुक एक शख्स कहता है- मेरी पत्नी ने जब से देखा है कि वोट डालने के बाद लोग अपनी निशान लगी उंगली दिखाते हैं, तब से वोट डालने को उतावली है। इसलिए उसने नेल पॉलिश भी लगाई है।
इसी सीरियल के सबसे पहले एपिसोड़ की शुरुआत शरद जोशी के उस व्यंग्य से हुई, जिसमें उन्होंने अचानक प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने वाले राजीव गांधी पर कटाक्ष किया था। उस दौर में उनका वो व्यंग्य लेख खासा चर्चित भी हुआ था। पानी की समस्या पर आधारित इस व्यंग्य में राजीव जी गांव के लोगों से पूछते हैं- गांव से नदी कितनी दूर है? गांव वाले जवाब देते हैं-दो किलोमीटर। तो राजीव फिर सवाल करते हैं-तो क्या लौटते में भी इतनी ही पड़ती है। ऐसे कई कटाक्ष इस व्यंग्य में हैं। लेकिन,लापतागंज में राजीव जी का किरदार बदलकर एक विदेश में पढ़े-लिखे मुख्यमंत्री का हो जाता है, जो अपने पिता के मरने के बाद कुर्सी संभालता है।
लेकिन,सवाल शरद जोशी के व्यंग्य के टेलीस्क्रिप्ट में बदलने का नहीं है। सवाल है इस सीरियल के बहाने विशुद्द व्यंग्य की दर्शकों के बीच पहुंच का। अचानक रजनी, ये जो है ज़िंदगी और कक्का जी कहिन जैसे दूरदर्शन मार्का लेकिन सामाजिक विसंगतियों पर कटाक्ष करते धारावाहिकों की याद दिलाता हुआ ‘लापतागंज ’ बाजारवाद के उस दौर में दर्शकों से रुबरु है, जहां इस तरह का सीरियल निर्माण की सोच भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं है।
दरअसल,लापतागंज सिर्फ एक कॉमेडी सीरियल नहीं है,ये उससे कहीं आगे का धारावाहिक है। आखिर,व्यंग्य को सामाजिक आक्रोश की परीणिति कहा गया है, और इस सीरियल के बहाने शरद जोशी की कलम से निकले कटाक्ष एक बार फिर दर्शकों को सोचने को मजबूर करेंगे कि कुछ भी तो नहीं बदला।
फिर, स्वस्थ्य मनोरंजन की दृष्टि से देखें तो हंसी-ठिठोली का बड़ा बाजार आज मौजूद है, लेकिन इसमें व्यंग्य कहां है ?या तो इस कॉमेडी में मिमिक्री है या भौंडा हास्य। कहीं द्विअर्थी चुटकुलेबाजी है, तो कहीं सिर्फ हंसाने की कोशिश करते निरर्थक चुटकले। हां, इनके बीच तारक मेहता का उल्टा चश्मा जैसे धारावाहिक सामाजिक संदेश देने की कोशिश करते जरुर दिखते हैं,लेकिन एक सीमा तक।
दिलचस्प यह है कि ‘लापतागंज ’ के दौरान विज्ञापनों की खासी तादाद पहली नज़र में यह भरोसा जगाती है कि विज्ञापनदाताओं को भी शरद जोशी के व्यंग्य की ताकत मालूम है, और उन्हें इसके हिट होने का भरोसा है। सब टीवी का भारतीय टेलीविजन की दुनिया में यह योगदान तो है ही, कि वो उन सीरियल्स के जरिए स्वस्थ्य मनोरंजन की अलख जगाए हुए है,जिनके लिए टीआरपी की होड़ में जुटे चैनलों पर जगह नहीं है।
It begins with self
6 days ago
सहमत हूँ आपसे.
ReplyDeleteमुझे तो चाभी है पडोस में के बाद ये दूसरा धारावाहिक है जो कुछ पसंद आ रहा है..शरद जी के क्या कहने ..उनका साहित्य भी बहुत मनोरंजक है ..अच्छा लगा आपका आलेख पढ कर
ReplyDeleteहमें तो इस धारावाहिक का पता आप से लगा है। टीवी कम ही देखने को मिलता है। कोशिश करते हैं अगले बुध को।
ReplyDeleteसचमुच मज़ा आ गया... मैने तो इसका कोई एपिसोड नहीं छोड़ा है... टीवी पर फूहड़ कॉमेडी के इस दौर में साफ़-सुथरी कॉमेडी के लिए हमेशा जगह है... आम आदमी से जुड़ी ऐसी कहानियां जल्द ही हिट होती हैं.. और फिर शरद जोशी का तो कहना ही क्या...
ReplyDeleteबताने के लिये धन्यवाद,,, अब देखने की कोशिश करेंगे… हम भी फ़ैन हैं शरद जोशी के…
ReplyDeleteaapse sahmat...bahut badhiya hai yah....
ReplyDeleteबहुत सही जानकारी मिली जी...जरूर देखेंगे
ReplyDeleteशरद जोशी जी क्रे व्यंग्य का जवाब नही । निश्चित ही इसे सही ढंग से फिल्माया गया होगा ।
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