प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी आगामी अमेरिकी यात्रा के दौरान सिलिकॉन वैली जाएंगे तो इसका मतलब क्या है? फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग, गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई, एपल के सीईओ टिम कुक और एडोब के सीईओ शांतनु नारायण समेत सूचना तकनीक के तमाम दिग्गजों से उनकी मुलाकात होनी है तो क्या ये सिर्फ एक राष्ट्र प्रमुख की विदेशी निवेश की चाहत लिए कुछ तकनीकी कंपनियों के दिग्गजों से मुलाकात भर होगी या इस मुलाकात के बाद भारत में सूचना तकनीक की दुनिया को नयी दिशा मिलेगी ? दरअसल, सवाल कई है क्योंकि नरेंद्र मोदी खुद सोशल मीडिया के माहिर खिलाड़ी हैं, नयी तकनीक का महत्व समझते हैं और 'डिजिटल इंडिया' के ख्वाब को साकार करना चाहते हैं।
नरेंद्र मोदी की यात्रा से पहले अमेरिकी शिक्षाविदों ने उनके खिलाफ सूचना तकनीकी कंपनियों को खत लिखकर विरोध भी जताया और अब इस विरोध को लेकर मोदी समर्थक और विरोधी आपस में भिड़े हुए हैं। दरअसल, मोदी के डिजिटल इंडिया अभियान पर सवाल उठाते हुए अमेरिका के कुछ शिक्षाविदो सिलिकन वैली की प्रमुख कंपनियों को खत लिखकर कहा था कि डिजिटल इंडिया निजता का हनन है। खत में प्रमुख प्रौद्योगिकी कंपनियों को भारत सरकार के साथ काम करने के खतरों के प्रति आगाह करते हुए कहा गया था कि मोदी सरकार ने सांस्कृतिक एवं शैक्षिक संस्थानों की स्वायत्तता के अलावा नागरिक स्वतंत्रता और मानवाधिकारों के प्रति अपना असम्मान दिखाया है। यह खत सामने आया तो मोदी समर्थकों ने शिक्षाविदो को कठघरे में खड़ा करते हुए सवाल किया कि सबसे ज्यादा निजता का उल्लंघन तो अमेरिका में ही होता है, जहां प्रिज्म जैसा प्रोजेक्ट बाकायदा सरकार के नेतृत्व में चला। इसके अलावा विरोधी अब मोदी का विरोध नहीं बल्कि राष्ट्र विरोधी बातें कर रहे हैं, जिसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।
इस विरोध ने यह भी जता दिया कि मोदी की अमेरिकी यात्रा के दौरान सोशल मीडिया पर एक बहस बदस्तूर जारी रहेगी। लेकिन मुद्दा बेमानी बहस का नहीं है क्योंकि मोदी का अमेरिका जाना भी तय है और सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियों से मिलना भी क्योंकि वे मोदी के लिए पलक पांवड़े बिछाए बैठे हैं। फेसबुक मुख्यालय में तो नरेंद्र मोदी मार्क जुकरबर्ग के साथ उपयोक्ताओं के सवाल-जवाब सत्र में भी हिस्सा लेंगे।
दरअसल, नरेंद्र मोदी की सिलिकॉन वैली यात्रा को इस आधार पर नापा जाना चाहिए कि मोदी वहां से क्या लाते हैं? क्योंकि फेसबुक, ट्विटर, गूगल और एपल जैसी तमाम कंपनियों के लिए तो भारत सबसे बड़े बाजारों में एक है, और इन कंपनियों की भावी सफलता अब इस बात पर ही निर्भर है कि उन्हें भारत में कितनी जगह मिलती है। फेसबुक के भारत में फिलहाल 14 करोड़ यूजर्स हैं, और अगले दस साल में फेसबुक की योजना इन्हें 100 करोड़ तक पहुंचाने की है। गूगल स्ट्रीट व्यू कारों का संचालन भारत में करना चाहता है। इसके लिए बाकायदा सरकार के पास आवेदन किया गया है और मोदी संभवत: खुद गूगल मुख्यालय में इस बात की घोषणा करना चाहते हैं कि गूगल स्ट्रीट व्यू कारों के संचालन को भारत में मंजूरी दी जाती है क्योंकि 14 सितंबर को मोदी ने गृह मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय को खत लिखकर गूगल के आवेदन का स्टेटस पूछा। और दोनों से महज तीन दिनों के अंदर जवाब देने को कहा गया। बावजूद इसके कि गूगल की स्ट्रीट व्यू कारों को लेकर कई देशों में आपत्ति जताई जा चुकी है और संवेदनशील ठिकानों की तस्वीरें लेने को लेकर स्ट्रीट व्यू कार कठघरे में खड़ी की गई, मोदी स्ट्रीट व्यू कारों को लेकर उत्सुक हैं तो वजह यही है कि गूगल को एक तोहफा दिया जा सके। हालांकि, इस बारे में सरकार का आखिरी रुख साफ नहीं है लेकिन माना जा रहा है कि गूगल को भारत सरकार की तरफ से तोहफा मिल सकता है।
सिलिकॉन वैली की सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियां भारत में कितना निवेश करती हैं-ये आने वाले दिनों में पता चलेगा क्योंकि मोदी की नजर उस निवेश पर भी होगी। लेकिन बड़ा सवाल निवेश का नहीं तकनीक का है। आखिर सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियां भारत को ऐसी कौन सी तकनीक देती हैं या ऐसे कौन से एप्लीकेशन बनाने में भारतीय कंपनियों को मदद करती हैं,जिनसे आम भारतीयों को लाभ हो। सूचना तकनीक के दिग्गजों के बीच खड़े मोदी से यह सवाल तो किया ही जा सकता है कि आखिर ऐसी क्या वजह रही कि दुनिया की नामी कंपनियों के सीईओ भारतीय हैं और वहां काम करने वाला बड़ा वर्ग भारतीयों का है पर भारत कभी गूगल-फेसबुक या एपल जैसी कंपनी नहीं बना सका। बीते दो दशकों से भारत सॉफ्टवेयर निर्यात के जरिए सूचना तकनीक क्षेत्र को सींच रहा है और आज भी मूलत: वही हाल है।
सिलिकॉन वैली यात्रा से मोदी के डिजिटल इंडिया कैंपेन को कितना फायदा होता है-ये भी बड़ा सवाल है। क्योंकि अभी
डिजिटल इंडिया कैंपेन की सफलता में अमेरिकी कंपनियों की भूमिका कम दिख रही है। वजह ये कि डिजिटल इंडिया की सफलता भारत में मौजूद बुनियादी ढांचे से जुड़ी है। सरकार ने डिजिटल इंडिया को लेकर जो योजना बनाई है, सवाल उसके क्रियान्वयन की तैयारी का है? ब्रॉडबैंड हाइवे के मामले में सबसे बड़ी बाधा है कि नेशनल ऑप्टिक फ़ाइबर नेटवर्क का प्रोग्राम, जो करीब चार साल पीछे चल रहा है। क्या अचानक तार बिछाने की गति तेज की जा सकती है और ये सवाल इसलिए भी इस संबंध में यूपीए सरकार भी मानती थी कि फाइबर ऑप्टिक्ल्स तेजी से बिछाने चाहिए। सरकार का दूसरा लक्ष्य है सबके पास फोन की उपलब्धता। लेकिन, जिस देश में गरीबी की परिभाषा 28 रुपए और 33 रुपए में उलझी हो तो वहां क्या ये संभव है। सरकार हर किसी के लिए इंटरनेट चाहती है तो यह बहुत अच्छी बात है। लेकिन पीसीओ की तर्ज पर इंटरनेट एक्सेस प्वाइंट का खांका तो बहुत साल से तैयार है, जिस पर अभी तक अमल नहीं हो पाया। राष्ट्रीय डिजिटल साक्षरता मिशन अपने पहले चरण में अपने लक्ष्य से खासा पीछे चल रहा है। सरकारी दफ्तरों को डिजिटल बनाने और सेवाओं को नेट से जोड़ने के मामला इतना आसान नहीं है क्योंकि काम तो लोगों को ही करना है। कई दफ्तर जो डिजिटल हो चुके हैं, वहां काम करने वाले लोग खुद को तैयार नहीं कर पा रहे हैं। यानी एक नयी डिजिटल फौज की जरुरत होगी। ई-लॉकर जैसी तमाम योजनाएं जो आम शहरी के लिए फायदेमंद है, उसका प्रचार नहीं हो पा रहा। फिर स्टार्टअप्स के लिए कारोबारी माहौल तैयार करने और उनके लिए धन की व्यवस्था करने जैसे मुद्दे भी है।
यानी देश में सूचना तकनीक को गति देने के मामले में जो चुनौतियां हैं, उनसे सरकार को ही पार पाना है और इसमें फेसबुक-गूगल जैसी कंपनियां ज्यादा भूमिका नहीं निभा सकती। तो इंतज़ार कीजिए मोदी की सिलिकॉन वैली यात्रा से हासिल का।
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