दोपहर दो बजे किसी ने मुझसे कहा कि गृहमंत्री चिदंबरम को किसी पत्रकार ने जूता मार दिया तो अचानक मुंह से निकल पड़ा-कौन था पागल पत्रकार? लेकिन,दोपहर बाद टेलीविजन स्क्रीन पर उभार लेती तस्वीरों पर अचानक नज़रें गढ़ी तो दिल धक कर गया। ये तो जनरैल सिंह हैं !
जनरैल सिंह को कई लोग मुझसे कहीं ज्यादा जानते होंगे। लेकिन,जनरैल से मेरा छोटा सा नाता रहा है। टीचर-स्टूडेंट का। 1994 में यूपी बोर्ड से इंटर पास करने के बाद दिल्ली आकर बीए(पास) में एडमिशन लिया तो अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र जैसे विषय पहली क्लासों में सिर के ऊपर से निकल गए। लेकिन, तब जनरैल ने घर आकर राजनीति शास्त्र की चंद क्लास लीं। जनरैल पॉलिटिकल साइंस में मास्टर्स हैं। उन दिनों जनरैल पब्लिक एशिया नाम के एक अखबार में थे,और अपने पुराने स्कूटर पर पहाड़गंज स्थित मोतिया खान के मेरे घर आते थे। सिर्फ मेरे चाचा से अपने संबंधों के चलते।
इन चंद क्लास और उसके बाद की चंद मुलाकातों में जनरैल की छवि हमेशा एक बेहद सुशील और हंसमुख इंसान की रही। मेरे लिए मददगार की भी। उस वक्त,जब जनरैल सिंह को अदद बढ़िया नौकरी की तलाश थी, परेशानियां थी लेकिन तब उन्होंने कभी अपना आपा नहीं खोया। अब वो दैनिक जागरण में सीनियर रिपोर्टर हैं,लेकिन अचानक ?
दरअसल,शांत जनरैल के चिदंबरम पर जूता फेंकने का दृश्य देखने के बाद अचानक सिखों की पीड़ा एक नए अर्थ में सामने आ खड़ी हो रही है। 1984 के दंगों में सिखों का जिस तरह कत्ल-ए-आम हुआ,उसके गुनाहगार आज भी खुलेआम घूम रहे हैं,और इसका दर्द विषबुझे तीर की तरह सिखों के मन में गढ़ा हुआ है।हालांकि,जनरैल की हरकत कतई सही नहीं कही जा सकती,लेकिन इसमें भी कोई दो राय नहीं कि अगर जनरैल को चिदंबरम को जूता मारना ही होता तो अगली कतार में बैठकर ऐसा आसानी से किया जा सकता था। उनका निशाना इतना खराब नहीं होगा!
लेकिन,अब जनरैल क्या करेंगे? क्या चुनाव लड़ेंगे? शिरोमणि अकाली दल ने जनरैल को दिल्ली में टिकट देने का ऐलान किया है(अगर जनरैल चाहें तो)। जनरैल सिखों के नये हीरो बन गए हैं। वेदना में जूतों के आसरे नायकों की उत्पत्ति नया फॉर्मूला है।
मल्हार- कक्षा 8
3 weeks ago
ऐसा कुछ 'महान' कर्म अभी तक किया नहीं है, जिसका विवरण दिया जाए। हाँ, औरेया जैसे छोटे क़स्बे में बचपन, आगरा में युवावस्था और दिल्ली में करियर की शुरुआत करने के दौरान इन्हीं तीन जगहों की धरातल से कई क़िस्सों ने जन्म लिया। वैसे, कहने को पत्रकार हूँ। अमर उजाला, नवभारत टाइम्स, आजतक और सहारा समय में अपने करियर के क़रीब 12 साल गुज़ारने के बाद अब टेलीविज़न के लिए कुछ कार्यक्रम और इंटरनेट पर कुछ साइट लॉन्च करने की योजना है। पांच साल पहले पहली बार ब्लॉग पोस्ट लिखी थी, लेकिन जैसा कि होता है, हर बार ब्लॉग बने और मरे... अब लगातार लिखने का इरादा है...
पत्रकार के बारे मे अच्छी जानकारी दी है।आप की बात सही है। जूता मारने कतई ठीक नही है लेकिन पच्चीस सालों तक इंतजार करने पर भी जब कोई नतीजा ना निकले तो कोई क्या कर सकता है इस हताशा मे?
ReplyDeleteपरमजीत का कहना ठीक है। यह हताशा और क्षणिक उबाल का नतीजा था।
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