
Thursday, April 22, 2010
अब इस गलती का क्या कीजै?
कभी कभी जल्दबाजी में बड़ी दिलचस्प गलतियां मीडिया संस्थान करते हैं। सहारा समय की वेबसाइट में हाल में बहुत बदलाव हुए हैं और साइट बहुत तेजी से अपडेट संभवत: हो रही है। लेकिन, इस जल्दबाजी में मित्रों ने मुंबई इंडियंस को सेमीफाइनल जीतने के बावजूद सेमीफाइनल में पहुंचा हुआ ही माना। होमपेज पर तो देखने पर लगता है कि साइट अपडेट नहीं हुई क्योंकि शीर्षक दिखता है-शान से सेमीफाइनल में पहुंचा मुंबई इंडियंस। लेकिन, भीतर जाने पर पता चलता है कि मुंबई इंडियंस के फाइनल में पहुंचने की खबर को ही इस शीर्षक से डाला गया है।

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मुंबई इंडियंस
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Monday, April 19, 2010
'प्रो पब्लिका' को पुलित्ज़र अवॉर्ड के मायने
अमेरिका के कोलंबिया स्कूल ऑफ जर्नलिज़्म ने 12 अप्रैल को 94वें पुलित्जर पुरस्कारों का ऐलान किया तो पहली बार ऑनलाइन समाचार साइट के महत्व पर खास मुहर लग गई। खोजी पत्रकारिता की श्रेणी में एक अवॉर्ड “प्रो पब्लिका डॉट ऑर्ग” को दिया गया है। पेशे से डॉक्टर और न्यूरोसाइंस में पीएचडी कर चुकीं शेरी फिंक ने प्रो पब्लिका के लिए एक खोजी रिपोर्ट तैयार की थी। इस रिपोर्ट में उन्होंने खुलासा किया था कि किस तरह कैलिफोर्निया में कैटरीना तूफान के वक्त न्यू ऑर्लिन्स नर्सिंग होम में मौजूद डॉक्टरों ने अफरातफरी के बीच बुजुर्ग मरीजों को प्राणघातक दवा दे दी। नर्सिंग होम में बिजली नहीं थी। जेननेटर बंद हो चुका था। अस्पताल का बाहरी दुनिया से संपर्क कट गया था। जीवन रक्षक उपकरणों की कमी पड़ने लगी तो डॉक्टरों ने यह तरीका आजमाया। सबसे पहले प्रो पब्लिका पर आई इस रिपोर्ट को कुछ रेडियो स्टेशनों ने प्रसारित किया और कैटरीना तूफान से मची तबाही की चौथी बरसी पर न्यूयॉर्क टाइम्स ने पूरी रिपोर्ट को फिर प्रकाशित किया, जिसने सारी दुनिया का ध्यान खींचा। इस मामले में नए सिरे से जांच शुरु हुई।
लेकिन, सवाल प्रो पब्लिका का नहीं, पुलित्जर का है। पुलित्जर प्राइज बोर्ड ने हाल में नियमों में कुछ ढील दी है, जिसके बाद न्यूज साइट्स को भी रिपोर्ट नामांकित करने की सुविधा मिली। इस साल 1,103 नामांकनों के बीच प्रो पब्लिका ने भी अवॉर्ड जीता है। लेकिन,प्रो पब्लिका को पुलित्जर मिलने की अहमियत सिर्फ इसलिए नहीं है क्योंकि पहली बार किसी समाचार साइट को इतना प्रतिष्ठित अवॉर्ड मिला है। अहमियत इसलिए अधिक है क्योंकि प्रो पब्लिका किसी बड़े समाचार पत्र अथवा टेलीविजन चैनल की वेबसाइट नहीं है। यह एक स्वतंत्र और गैर व्यवसायिक न्यूज साइट है, जो लगातार सामाजिक सरोकारों की रिपोर्ट देती रहती है।
ऐसा नहीं है कि प्रो पब्लिका पहली वेबसाइट है, जिसने अपने बूते कोई खोजी रिपोर्ट दी हो। 1998 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन और मोनिका लुइंसकी मामले का खुलासा ड्रजरिपोर्टडॉटकॉम ने किया था। भारत में भी तहलकाडॉटकॉम ने मैच फिक्सिंग से लेकर कई अहम मामलों का खुलासा किया। लेकिन, प्रो पब्लिका के गैर व्यवसायिक मॉडल ने अब सामाजिक मसलों या आम लोगों के हितों की पत्रकारिता करने वाली वेबसाइट्स को नयी राह दिखा दी है। प्रो पब्लिका की अर्थव्यवस्था सैंडरल फाउंडेशन के फंड और लोगों की सहयोग राशि यानी दान से संचालित होती है। पुलित्जर अवॉर्ड के बाद लोगों के बीच इसकी साख और मजबूत हुई है, जिससे साइट को आर्थिक लाभ होगा।
भारत में अभी ऑनलाइन पत्रकारिता की स्थिति इतनी बेहतर नहीं है, लेकिन न्यूज साइट्स के पाठक तेजी से बढ़े हैं। इस बीच,सामाजिक सरोकारों की बात करने वाली कई वेबसाइट्स खड़ी हुई हैं। प्रो पब्लिका की तरह अगर इन साइट्स पर बेहतरीन रिपोर्ट मिलें तो न केवल मीडिया में आम आदमी की आवाज़ मुखर होगी बल्कि मुख्यधारा का मीडिया भी इन्हें गंभीरता से लेना शुरु करेगा। फिर, मीडिया के मुनाफे से संचालित होने के आरोपों के बीच प्रो पब्लिका मुनाफारहित पत्रकारिता की संभावना का बिगुल तो बजाती ही है। प्रो पब्लिका का नारा है-जनता के हितों की पत्रकारिता और इसी उद्देश्य के साथ उसने अपनी पहचान बनायी है, जो इसी राह पर चलने वाली कई दूसरी न्यूज साइट्स के लिए उम्मीद जगाती हैं। हालांकि, हिन्दी में यह तब तक संभव नहीं दिखता, जब तक कुछ गैर सरकारी संगठन इस तरह की साइट्स को बढ़ावा न दें। क्योंकि हिन्दी में बड़ी संख्या में पाठकों को खींचना एक दिन का काम नहीं है, जिसके लिए सतत प्रयास और बेहतर रिपोर्टिंग की आवश्यकता होगी। हां, इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत जैसे देश में प्रो पब्लिका मॉडल की साइट की जरुरत बहुत है।
लेकिन, सवाल प्रो पब्लिका का नहीं, पुलित्जर का है। पुलित्जर प्राइज बोर्ड ने हाल में नियमों में कुछ ढील दी है, जिसके बाद न्यूज साइट्स को भी रिपोर्ट नामांकित करने की सुविधा मिली। इस साल 1,103 नामांकनों के बीच प्रो पब्लिका ने भी अवॉर्ड जीता है। लेकिन,प्रो पब्लिका को पुलित्जर मिलने की अहमियत सिर्फ इसलिए नहीं है क्योंकि पहली बार किसी समाचार साइट को इतना प्रतिष्ठित अवॉर्ड मिला है। अहमियत इसलिए अधिक है क्योंकि प्रो पब्लिका किसी बड़े समाचार पत्र अथवा टेलीविजन चैनल की वेबसाइट नहीं है। यह एक स्वतंत्र और गैर व्यवसायिक न्यूज साइट है, जो लगातार सामाजिक सरोकारों की रिपोर्ट देती रहती है।
ऐसा नहीं है कि प्रो पब्लिका पहली वेबसाइट है, जिसने अपने बूते कोई खोजी रिपोर्ट दी हो। 1998 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन और मोनिका लुइंसकी मामले का खुलासा ड्रजरिपोर्टडॉटकॉम ने किया था। भारत में भी तहलकाडॉटकॉम ने मैच फिक्सिंग से लेकर कई अहम मामलों का खुलासा किया। लेकिन, प्रो पब्लिका के गैर व्यवसायिक मॉडल ने अब सामाजिक मसलों या आम लोगों के हितों की पत्रकारिता करने वाली वेबसाइट्स को नयी राह दिखा दी है। प्रो पब्लिका की अर्थव्यवस्था सैंडरल फाउंडेशन के फंड और लोगों की सहयोग राशि यानी दान से संचालित होती है। पुलित्जर अवॉर्ड के बाद लोगों के बीच इसकी साख और मजबूत हुई है, जिससे साइट को आर्थिक लाभ होगा।
भारत में अभी ऑनलाइन पत्रकारिता की स्थिति इतनी बेहतर नहीं है, लेकिन न्यूज साइट्स के पाठक तेजी से बढ़े हैं। इस बीच,सामाजिक सरोकारों की बात करने वाली कई वेबसाइट्स खड़ी हुई हैं। प्रो पब्लिका की तरह अगर इन साइट्स पर बेहतरीन रिपोर्ट मिलें तो न केवल मीडिया में आम आदमी की आवाज़ मुखर होगी बल्कि मुख्यधारा का मीडिया भी इन्हें गंभीरता से लेना शुरु करेगा। फिर, मीडिया के मुनाफे से संचालित होने के आरोपों के बीच प्रो पब्लिका मुनाफारहित पत्रकारिता की संभावना का बिगुल तो बजाती ही है। प्रो पब्लिका का नारा है-जनता के हितों की पत्रकारिता और इसी उद्देश्य के साथ उसने अपनी पहचान बनायी है, जो इसी राह पर चलने वाली कई दूसरी न्यूज साइट्स के लिए उम्मीद जगाती हैं। हालांकि, हिन्दी में यह तब तक संभव नहीं दिखता, जब तक कुछ गैर सरकारी संगठन इस तरह की साइट्स को बढ़ावा न दें। क्योंकि हिन्दी में बड़ी संख्या में पाठकों को खींचना एक दिन का काम नहीं है, जिसके लिए सतत प्रयास और बेहतर रिपोर्टिंग की आवश्यकता होगी। हां, इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत जैसे देश में प्रो पब्लिका मॉडल की साइट की जरुरत बहुत है।
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पुलित्जर पुरस्कार
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