Thursday, July 2, 2015
सवाल नेहरु का नहीं, हमारा है
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के विकीपीडिया प्रोफाइल को 27 जून को किसी ने बदल दिया और उन्हें मुस्लिम बता दिया। उनके पिता मोतीलाल नेहरु और उनके दादा के प्रोफाइल पेज पर भी इसी तरह छेड़खानी की गई। इतना ही नहीं, नेहरु के बारे में कुछ अन्य आपत्तिजनक बातें भी प्रोफाइल में जोड़ी गईं। कांग्रेस ने आरोप लगाया कि जिस आईपी एड्रेस से यह छेड़खानी की गई, वो केंद्र सरकार को सॉफ्टवेयर देने वाली संस्था नेशनल इंफोरमेटिक्स सेंटर के दफ्तर का है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक नेशनल इंफोरमेटिक्स सेंटर ने अब इस बाबत आंतरिक जांच शुरु कर दी है कि किसने यह छेड़खानी की।
दुनिया के सबसे बड़े ऑनलाइन संदर्भकोश विकीपीडिया पर नेहरु के प्रोफाइल से छेड़छाड़ कोई पहला मामला नहीं है, लेकिन इस मामले में एनआईसी का नाम आन के बाद विवाद न केवल अहम हो गया है बल्कि कई सवालों के जवाब की मांग करता है। सबसे बड़ा सवाल यही कि क्या सरकार विरोधी दलों के बड़े नेताओं की वर्चुअल पहचान को धूमिल करने की कोशिश कर रही है?
दुनिया की तमाम बड़ी कंपनियां अपने ब्रांड या प्रोडक्ट का विकीपीडिया पेज लगातार न केवल अपडेट करती हैं बल्कि उनमें उत्पाद की खूबियां बढ़ा चढ़ाकर पेश करनी की कोशिश करती हैं। इसके लिए पेशेवर लोगों की मदद ली जाती है। इंटरनेट पर सूचना प्राप्ति का विकीपीडिया प्राथमिक और महत्वूर्ण स्रोतों में एक है तो इस चलन को कंपनियों से आगे बढ़कर कुछ सरकारों ने भी अपनाया और बड़ी शख्सियतों ने भी। बावजूद इसके सच यही है कि विकीपीडिया 'ओपन सोर्स' है, और इसमें संपादन (कुछ मामलों को छोड़कर) कोई भी कर सकता है।
विकीपीडिया के बारे में कई भ्रांतियां है। सबसे पहली तो यही कि कई लोग इसे प्रामाणिक संदर्भकोश की तरह देखते हैं। जबकि विकीपीडिया में गलतियों की भरमार है। कुछ साल पहले अमेरिका के पेन स्टेट विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर मारिका डब्लू डिसटासो ने अपने अध्ययन में पाया था कि विकीपीडिया पर मौजूद हर दस में से छह लेखों में अशुद्धियां हैं। अध्ययन के दौरान किए एक सर्वे के मुताबिक जब विकीपीडिया के टॉक पेज के जरिए अशुद्धियां दुरुस्त करने की कोशिश हुई तो नतीजा बहुत उत्साहजनक नहीं रहा। 40 फीसदी लोगों को विकीपीडिया के संपादकों की तरफ से प्रतिक्रिया मिलने में एक दिन से ज्यादा का समय लगा, जबकि 12 फीसदी को एक हफ्ते से ज्यादा का वक्त लगा। खास बात यह कि 25 फीसदी शिकायतों के संदर्भ में तो कोई प्रतिक्रिया ही नहीं मिली। इस अध्ययन के मुताबिक 60 फीसदी कंपनियों के पेजों पर उनके अथवा उनसे जुड़े ग्राहकों के बारे में तथ्यात्मक रुप से गलत जानकारी है। गौरतलब है कि विकीपीडिया ने करीब तीन साल पहले स्वयं अपने अपने संदर्भ कोष के बारे में कराए एक अध्ययन में पाया था कि 13 फ़ीसदी लेखों में ग़लतियाँ हैं।
साल 2012 में विकिपीडिया की विश्वसनीयता को बड़ा सवाल उस वक्त खड़ा हो गया था, जब एक काल्पनिक युद्ध से संबंधित लेख को पाँच साल बाद साइट से हटाने की बात सार्वजनिक हुई। यह लेख ‘बिकोलिम संघर्ष’ नाम के एक काल्पनिक युद्ध के बारे में था। इसमें 17वी शताब्दी में पुर्तगालियों और मराठा साम्राज्य के बीच काल्पनिक युद्ध का जिक्र था। बाद में वेबसाइट को जानकारी मिली कि ऐसा युद्ध कभी हुआ ही नहीं और लेख में शामिल जानकारियां और संदर्भ पूरी तरह काल्पनिक हैं। यह लेख जुलाई 2007 में विकिपीडिया पर डाला गया था और सिर्फ दो महीने बाद वेबसाइट के संपादकों ने इसे अच्छे लेखों की श्रेणी में डाल दिया था। उल्लेखनीय है कि विकिपीडिया पर उपलब्ध अंग्रेजी के कुल लेखों में सिर्फ एक फीसदी लेखों को इस श्रेणी में रखा गया है। विकीपीडिया पर सामग्री से छेड़छाड़ का एक मामला 2011 जुलाई में मुंबई बम धमाकों के वक्त सामने आया था, जब अजमल कसाब के जन्म तारीख को एक दिन में ही 8 से ज्यादा बार बदला गया।
विकीपीडिया की विश्वसनीयता 100 फीसदी कभी नहीं रही। हां ये तमाम विषयों पर जानकारी का प्रथम स्रोत अवश्य है। दिक्कत यही है कि विकीपीडिया प्रथम स्रोत के बजाय मुख्य स्रोत की जगह लेता जा रहा है। इसकी लोकप्रियता का आलम यह है कि 244 साल पहले शुरु हुए सबसे प्रामाणिक संदर्भकोश ब्रिटेनिका को भी अपना प्रिंट संस्करण बंद करना पड़ा है। इसमें भी ध्यान रखने वाली बात यह है कि विकीपीडिया के पेजों को विकीपीडिया के स्वयंसेवक अपडेट करते हैं। अंग्रेजी विकीपीडिया के स्वयंसेवकों की संख्या लाखों में है, इसलिए अंग्रेजी विकीपीडिया तेजी से अपडेट होता है, जबकि हिन्दी समेत तमाम क्षेत्रीय भाषाओं के पेजों में सैकड़ों त्रुटियां कई-कई दिनों तक सुधारी नहीं जातीं। दिक्कत यह है कि अकादमिक, पत्रकारीय और अन्य महत्वपूर्ण मंचों पर भी विकीपीडिया से ली सामग्री बिना 'क्रॉस चैक' के इस्तेमाल की जा रही है।
लेकिन अब सवाल विकीपीडिया की विश्वसनीयता भर का भी नहीं है। सवाल है वर्चुअल दुनिया में अपनी पहचान के विषय में पता होने और उसे बचाने का। क्या हमने कभी देखा है कि वर्चुअल दुनिया में हमारी पहचान कैसी है? बहुत मुमकिन है कि किसी अंजान ब्लॉग पर आपके बारे में ऐसी भ्रामक और गलत बातें लिखी हों-जिनके बारे में आपको पता ही नहीं हो और सर्च इंजन में आपके बारे में खोजने पर वही पेज सबसे पहले आता हो। हो सकता है कि आपके नाम से कोई टि्वटर या फेसबुक खाता संचालित हो रहा है, जिस पर आपने कभी ध्यान ही नहीं दिया हो।
विकीपीडिया पर जवाहरलाल नेहरु के पेज से छेड़छाड़ ने फिर इस मुद्दे को प्रमुखता से उठा दिया है। क्योंकि सवाल सिर्फ जवाहरलाल नेहरु, महात्मा गांधी या किसी बड़े राजनेता का नहीं, हमारा भी है। सवाल हमारी 'वर्चुअल आइडेंटिटी' का भी है। नए डिजिटल समाज में हर सामाजिक व्यक्ति की वर्चुअल दुनिया में भी एक पहचान है, और यह जिम्मेदारी उसे खुद उठानी होगी कि उसकी आभासी पहचान सही सलामत और प्रामाणिक रहे। यह बड़ी चुनौती है कि क्योंकि अभी भी देश में डिजिटल साक्षरता बहुत अधिक नहीं है, और लोग वर्चुअल पहचान को लेकर ज्यादा सजग नहीं है। सच यही है कि इंटरनेट के विस्तार के साथ इस नई समस्या के बड़े खतरों से रुबरु होना हमें अभी बाकी है।
(लेखक सोशल मीडिया जानकार है)
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